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ओपेनहाइमर फ़िल्म के अंतरंग दृश्य की 'जांच' और फ़िल्म सेंसरशिप को लेकर भारत की रस्साकसी

रील के कृष्णा बहस में कूद पड़े हैं और उन्होंने केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर से, जिन्हें गोलीमारो वाले उग्र भाषणों के लिए जाना जाता है, व्यवस्था बहाल करने की गुहार लगाई है।
Oppenheimer

क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म ओपेनहाइमर 21 जुलाई को सिनेमाघरों में रिलीज हुई, जिसने दुनिया भर के दर्शकों की एक पूरी की पूरी नई पीढ़ी को वैज्ञानिक और उनके द्वारा शुरू की गई विनाशकारी बम परियोजना से परिचित कराया है। बीसवीं सदी के संकटग्रस्त और करिश्माई वैज्ञानिक की इस कहानी ने दुनिया भर में बड़ी हलचल पैदा कर दी है, और भारत में कुछ प्रभावशाली, शक्तिशाली वर्ग उन कारणों से नाराज़ हैं जिनका शायद नोलन ने पूरी तरह से कभी अंदाज़ा भी नहीं लगाया होगा।

फिल्म में गीता का संदर्भ वाले दृश्य पर आपत्ति जताने वाले पहले भारतीय नागरिक मुख्य सूचना आयुक्त (सीआईसी) उदय महुरकर थे, जो ‘सेव कल्चर सेव इंडिया फाउंडेशन’ के संस्थापक भी हैं, जिन्होंने नोलन को लिखे एक खुले पत्र में अपनी पीड़ा व्यक्त की है। उन्होंने यौन क्रिया के दौरान गीता के संदर्भ पर आपत्ति जताई है। “सीन में, वह अपनी प्रेमिका के साथ संभोग कर रहा है, और साथ ही वह उसे गीता दिखाते हुए श्लोक पढ़ता है। माहुरकर के मुताबिक, यह गीता का अपमान है।”

सीआईसी ने फिल्म से इस सीन को हटाने को कहा है।

क्या माहुरकर उस केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) के फैसले पर सवाल उठा रहे थे, जिसे 1952 में संसद के एक अधिनियम के माध्यम स्थापित किया गया था और उसे वैधानिक निकाय का दर्ज़ा हासिल है, और जो सूचना और प्रसारण मंत्रालय के तहत काम करता है? सीबीएफसी ने फिल्म को यू/ए प्रमाणपत्र के साथ मंजूरी दी है- यानी जिसे सिनेमाघरों में दिखाने पर कोई प्रतिबंध नहीं है लेकिन माता-पिता के विवेक के आधार पर देखने का प्रावधान है।

और, मासूम लोगों को बताते चले कि, सीआईसी 2005 में सूचना का अधिकार अधिनियम द्वारा स्थापित किया गया एक पद है, जिसका काम जनता को पारदर्शी तरीके से शासन के बारे में जानकारी प्रदान करना अनिवार्य है। उस अर्थ में, इस संस्थान से सूचना की स्वतंत्रता और सूचना तक पहुंच दोनों को बनाए रखने की अपेक्षा की जाती है।

जबकि एक वैधानिक निकाय के प्रमुख द्वारा किसी दूसरी वैधानिक संस्था के फैसले पर सवाल उठाने की विडंबना पर किसी का ध्यान नहीं गया, उल्टा दूसरे लोग भी इसमें शामिल हो गए। बहस को गर्म बनाने के लिए सेक्स से बेहतर कुछ नहीं होता है। सूत्रों के मुताबिक केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर बोर्ड के फैसले से नाराज़ हैं और उन्होंने एक बार फिर बोर्ड के खिलाफ कार्रवाई करने का वादा किया है।

अब, कोई भी ऐसे मंत्री से पंगा नहीं लेना चाहेगा, जिसने तीन साल पहले नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा पारित नागरिकता (संशोधन) अधिनियम का विरोध करने वाले लोगों को गोली मारने की खुलेआम धमकी दी थी।

समान अधिकार वाले सेंसर

अब लगता है भारत में एक बहुत ही ‘स्वस्थ’ लोकतांत्रिक परंपरा स्थापित हो गई है जिसमें लगभग कोई भी व्यक्ति किसी फिल्म, गीत, पुस्तक या सोशल मीडिया पर टिप्पणी पर आपत्ति जता सकता है। एक अर्थ में, हम सभी समान अधिकार वाले सेंसर हैं, और भारतीय कानून हमें लगभग हर चीज़ पर अपराध करने का अधिकार देते हैं। अदालतें समय-समय पर इसकी आलोचना करती रही हैं - कभी-कभी अभिव्यक्ति की आज़ादी को बरकरार रखती हैं, कभी-कभी इसे ख़त्म कर देती हैं।

सीबीएफसी बोर्ड अक्सर संतुलन बनाने की कोशिश करता है। बोर्ड के अधिकारियों ने कुछ समय पहले इस लेखक को बताया था कि हर साल फिल्म प्रमाण के लिए लगभग 1,700 फिल्मों आती हैं और उनमें से केवल 90 को प्रमाण पत्र देने से इनकार किया जाता है। स्पष्ट रूप से, ओपेनहाइमर फिल्म के मामले में, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सरकार द्वारा नियुक्त सीबीएफसी सदस्य विफल हो गई लगती है। आख़िरकार, मंत्री अनुराग ठाकुर ने उन अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई का वादा किया है जिन्हें फ़िल्म में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं मिला है!

यदि ठाकुर कार्रवाई करते हैं, तो यह सीबीएफसी के लिए एक बड़ा दुखद दिन होगा लेकिन निश्चित रूप से इसके इतिहास में यह पहली बार भी नहीं होगा। कांग्रेस के दिनों से, जब सूचना और प्रसारण मंत्री अपने द्वारा प्रसारित हर चीज के स्वामी थे, जिसमें टीवी पर प्रसारित फिल्में या सिनेमाघरों में दिखाए जाने वाले फिल्में भी शामिल थीं, आज भी स्थिति बहुत अलग नहीं है। मंत्रालय ही, मध्यम वर्ग की नैतिकता पर अंतिम शब्द बना हुआ है, और कुछ बहादुर पूर्व सीबीएफसी प्रमुखों ने सिनेमा में अभिव्यक्ति की आज़ादी की लड़ाई में सरकार को जवाब भी दिया है।

अपनी नौकरी गंवाने वाले विजय आनंद से लेकर लीला सैमसन तक, जिनका सरकार के साथ रिश्ता ख़राब था, अकेली आवाज़ें शोर-शराबे से ऊपर उठकर समय-समय पर खुद को प्रतिष्ठित करती रही हैं। 2005 में, सीबीएफसी प्रमुख शर्मिला टैगोर को दा विंची कोड पर फैसला लेना पड़ा था क्योंकि कई ईसाई संगठनों ने इसके कंटेंट पर आपत्ति जताई थी और सूचना और प्रसारण मंत्रालय से शिकायत की थी। एक बार जब मंत्रालय ने आस्था के संबंधित प्रतिनिधियों को आश्वासन दिया, तो टैगोर बोर्ड, जिसने फिल्म को प्रमाणित किया था, सावधानी से आगे बढ़ा था।

2023 में, रील कृष्णा व्यवस्था को बहाल करने आए हैं

जो लोग ओपेनहाइमर फिल्म के दृश्य पर आपत्ति जता रहे हैं वे सत्ताधारी व्यवस्था के वे लोग हैं जिनसे यही उम्मीद की जा सकती थी, लेकिन जिस बात ने सभी को आश्चर्यचकित किया वह यह कि सरकार को चेतावनी देने वाली एक आवाज अचानक से प्रकट हो गई। यह आवाज़ किसी और की नहीं बल्कि भाजपा के एक नेता की थी जिन्होंने निर्देशक नोलन के पक्ष में बोला। पूर्व भाजपा सांसद नीतीश भारद्वाज, जिन्होंने महाकाव्य टीवी श्रृंखला महाभारत में कृष्ण की भूमिका निभाई थी, ने टीवी पर ओपेनहाइमर फिल्म में गीता के श्लोक का बचाव किया और कहा कि यदि इन्हें संभोग के दौरान बोला गया है तो इसमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। भारद्वाज ने निर्देशक की शानदार काम की प्रशंसा की और इस बात पर रोशनी डाली कि वह कोई छोटे-मोटे व्यक्ति नहीं हैं जो जानबूझकर विवाद खड़ा करेंगे।

महाकाव्य में जैसे कृष्ण अर्जुन को गीता का उपदेश देते हैं, वास्तविक जीवन में, पूर्व सांसद ठाकुर को उपदेश देते हुए कहा कि वे सेक्स को बहुत अधिक महत्व न दें। उन्होंने कहा कि, "मैं मंत्री से अंतरंग दृश्य के बजाय नोलन द्वारा संबोधित किए जा रहे गीता के संदेश पर ध्यान केंद्रित करने का आग्रह करूंगा।" भारद्वाज का मानना है कि वह संदेश उस पाश्चाताप का है जो ओपेनहाइमर जैसा व्यक्ति अनुभव करता है जब उसने उस चीज की विनाशकारी क्षमता का सामना किया जिसे उसने जन्म दिया था।

रील कृष्ण का हाज़िर होना और उनके प्रतीकवाद को नज़रअंदाज़ करना कठिन है। गीता के अध्याय 4 में कृष्ण को उद्धृत करते हुए कहा गया है, "जब भी धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, हे अर्जुन, उस समय मैं खुद ही पृथ्वी पर प्रकट होता हूं।"

क्या अब भारद्वाज से ठाकुर मिलेंगे, जब वे मंत्री के साथ चर्चा करने में सक्षम होंगे। यह तो समय ही बताएगा।

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार निजी हैं।)

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें :

‘Probe’ Into Intimate Oppenheimer Scene and India’s Tryst With Film Censorship

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