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'चारे' के संकट में फंसी भारत की श्वेत क्रांति

चारे की ख़राब गुणवत्ता और कमी के कारण भारत में दूध और मांस का उत्पादन गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। इसके समाधान मौजूद हैं, लेकिन क्या कोई सुनने को तैयार है?
White Revolution
'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: पीटीआई

भारत में चारे की समस्या है और तीस करोड़ से अधिक मवेशियों का भाग्य एक महीन धागे से लटका हुआ है, क्योंकि चारे की कीमतें तेजी से बढ़ रही हैं और कमी की खबरे जंगल की आग की तरह फैल रही हैं। सरकार ने आपातकालीन बैठकें कर   घोषणा की है कि "कोई कमी नहीं है", लेकिन यह एक खुला रहस्य है कि भारत में चारे की एक महत्वपूर्ण कमी बनी हुई है। आम तौर पर देखा गया है कि, सूखे चारे की लगभग 11-12 प्रतिशत, हरे चारे की 25-30 प्रतिशत और ठोस चारे की 36 प्रतिशत की कमी है। नतीजतन, मांस और दूध उत्पादन गंभीर रूप से प्रभावित हो रहा है। लेकिन इस साल क्या स्थिति है?

लंपी बीमारी रोग से जूझ रहे पशुओं/मवेशियों के कारण दूध के उत्पादन में कमी आई है, साथ ही उन्हें पालने वालों की आय भी कम हो गई है। अब राजस्थान से लेकर बंगाल तक चारे के दाम बढ़ गए हैं। सरकार के हालिया अनुमान के मुताबिक सूखे चारे की कीमत 5-10 रुपए से बढ़कर 8-14 रुपये प्रति किलो हो गई है। 

पशुपालन वाले प्रमुख राज्यों में चारे की कीमतों में 200 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है। आमतौर पर फसल के मौसम के दौरान चारा अक्सर प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है, और कीमतें लगभग 3-4 रुपए प्रति किग्रा तक गिर जाती हैं। वर्तमान समय में कई जगहों पर असंसाधित चारा 10 रुपये से अधिक में बिक रहा है। यहां तक कि डेयरी कारोबार को, खासकर छोटे और असंगठित क्षेत्र को चारे की कीमतों में अचानक आई तेजी से नुकसान हो रहा है।

दूध की कीमत तय अरने में चारे का योगदान आधा या उससे अधिक होता है। इसके अलावा, भारत में, चारे की बेहतर गुणवत्ता नस्ल सुधार से अधिक दूध उत्पादन और उसकी की गुणवत्ता में वृद्धि हो सकती है। इसलिए, चारे की महंगी कीमतें होने से दूध और उसके उत्पाद महंगे मिलेंगे, जबकि भारतीय पशु नस्लों का औसत उत्पादन  विश्व स्तर की नस्लों से कम रहेगा। 

गुजरात में, भारत की सबसे बड़ी सहकारी डेयरी अमूल, में ज्वार [सोरघम], गेहूं के भूसे और सूखे बाजरे [मोती बाजरा] की थोक दर 15 रुपए प्रति किलोग्राम से अधिक है। जब राजस्थान के बीकानेर में पशुपालकों से संपर्क कर पूछा गया कि क्या वे जितना चाहें उतना चारा खरीद सकते हैं – जवाब था हाँ, लेकिन यह उन्हे तेजी से बढ़ती कीमतों पर ही खरीदना होगा। मई और जून में, चारी की कमी के बारे में गंभीर चिंताएं थीं, लेकिन एक या दो बार हुई बारिश ने हरे चारे की आपूर्ति को बढ़ा दिया था। इस बुवाई के मौसम में बीकानेर में पहले से ही गेहूं की बुवाई कम थी क्योंकि कई किसान अधिक कमाई वाली सरसों को बोना पसंद कर रहे थे। इसलिए, गर्मियों में, बीकानेर (और उत्तर भारत के अन्य हिस्सों) में चारे की आपूर्ति (सामान्य से) कम थी, जिसके कारण मुख्य फसल के साथ-साथ इसकी उपज और चारे की कीमतों में भी वृद्धि हुई है।

गौशालाओं और पशुपालकों पर दबाव गर्मियों से ही बढ़ना शुरू हो गया था- किसान चारा खोजने के संघर्ष में फंसे थे जो चारे की स्थिर आपूर्ति और उचित लागत दोनों की महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करता था।

सरकार की स्वायत्त एजेंसी, भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) द्वारा संचालित राष्ट्रीय डेयरी अनुसंधान संस्थान (NDRI) में चारा उत्पादन पर नज़र रखने वाले डॉ अनुराग सक्सेना कहते हैं, इस सीजन में “सूखे चारे की प्रति क्विंटल कीमत 1,800 रुपए है जो बहुत ज्यादा है। यह मार्च और अप्रैल में गर्मी की लहरों का नतीजा है, जिसने खड़ी गेहूं की फसल को तबाह कर दिया था। और बाजार में गेहूं का स्टॉक कम था, जिससे महंगाई बढ़ी।

डॉ सक्सेना कहते हैं कि, गेहूं का उत्पादन रबी सीजन 2022 के दौरान “पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में प्रभावित हुआ था। और अब, अनियमित बारिश के कारण, बरसीम [मिस्र की  तिपतिया घास] की फसल को भी नुकसान हुआ है। अन्य सूखी फसलें जैसे बाजरा, और चारा फसलों को भी नुकसान हुआ है।”

झांसी, उत्तर प्रदेश में, भारतीय घास के मैदान और चारा अनुसंधान संस्थान (IGFRI), जो आईएआरआई (IARI) अक अन्य निकाय है, में पशुधन उत्पादन और प्रबंधन के प्रमुख और प्रमुख वैज्ञानिक डॉ पुरुषोत्तम शर्मा कहते हैं, “जब चारे की बात आती है तो कीमतों में भारी वृद्धि हुई है। चारा सामान्य रूप से 1,000 रुपये प्रति क्विंटल होता था जो अब बढ़कर 1,500 प्रति क्विंटल से अधिक बिक रहा है। अब लगातार हो रही बारिश से हरी चारे की फसल भी प्रभावित हुई है। अधिक बारिश ने फसलों को नुकसान पहुंचाया है। उदाहरण के लिए, बुंदेलखंड क्षेत्र में बेमौसम बारिश ने दलहनी फसलों को बुरी तरह प्रभावित किया है। सूखे चारे की फसलें जैसे बाजरा, दालें आदि भी प्रभावित हुई हैं।

चारे पर तैयार की गई पूरे उत्तर भारत की रिपोर्ट यह स्पष्ट करती है कि 2022 में चारे की समस्या के लिए जलवायु परिवर्तन भी जिम्मेदार है। बेमौसम बारिश और गरम हवा ने चारा अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाया है- पहले से ही कम आपूर्ति में और बाधा उत्पन्न हुई है, जिससे कीमतों में वृद्धि हुई। हालांकि, क्या भारतीय नीति निर्माताओं के पास चारे की बढ़ती कमी और मुद्रास्फीति का समाधान है? आइए जानते हैं।

चारे का समाधान 

डॉ शर्मा कहते हैं कि, चारा आमतौर पर राज्य सरकारों के दायरे में आता है। आईजीएफआरआई (IGFRI) ने चारा प्रबंधन और आपूर्ति के लिए राज्यवार योजनाओं को सार्वजनिक किया है। "लेकिन अगर राज्य बारहमासी घास और तेजी से उगने वाले चारे के साथ बहु-फसल को अपनाते हैं, तो भारत आसानी से इस कमी को पूरा कर सकता है।" 

लेकिन डॉ सक्सेना हक़ीक़त बयां करते हुए कहते हैं, “किसानों के लिए खाद्यान्न सर्वोच्च प्राथमिकता है। उपजाऊ भूमि सिकुड़ रही है, जबकि जनसंख्या का दबाव बढ़ रहा है। यह स्थिति चारे को आखिरी प्राथमिकता की तरफ धकेल देती है। इसलिए हम केवल मूल्य नियंत्रण और किसानों के समर्थन के माध्यम से ही चारा उत्पादन बढ़ा सकते हैं।”

ऐतिहासिक कारण यहां महत्वपूर्ण हैं: हरित क्रांति की खाद्य फसलों की किस्मों ने चारे की उपलब्धता को कम कर दिया है। इसमें कोई शक नहीं कि चारे का विकास भी हुआ है, लेकिन हरित क्रांति से पहले धान और गेहूं की किस्मों के पास लंबे समय तक खाद्य भंडार था, जो अनाज की कटाई के बाद चारे के रूप में इस्तेमाल किया जाता था। नई किस्मों का लक्ष्य ज्यादा अनाज उत्पादन करना है, और इसलिए खाद्य का स्टॉक कम हो गया है, खासकर धान का स्टॉक कम हुआ है। जो भी हो, अब चारे की फसलों को अलग-अलग क्षेत्रों में उगाने की जरूरत है। हमारी वर्तमान कृषि संबंधी सोच केवल इंसानों का पेट भरती है और जानवरों की ज़रूरतों से मुह मोड लेती है।

राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो, दूध और मांस उत्पादन की पूरी क्षमता का दोहन अभी भी दूर की कौड़ी है। और भारतीय खाद्य निगम की तर्ज पर चारा प्रबंधन के लिए समर्पित प्राधिकरण स्थापित किए बिना यह असंभव होगा। राज्यवार, किसानों को हरा और सूखा चारा उगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जिसे अन्य क्षेत्रों में खपत के लिए उपलब्ध कराया जा सके। चारे के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी की शुरूआत, चारा पैदा करने वाली फसलों की सार्वजनिक खरीद से, जैसे बाजरा, दालें, बरसीम, आदि तत्काल अंतराल को भरने में मदद कर सकती हैं।

विशेषज्ञ आपूर्ति और उत्पादन के प्रबंधन में सावधानी बरतने की सलाह दे रहे हैं। उनका कहना है कि इसके लिए वित्तीय प्रोत्साहनों द्वारा समर्थित चारा उत्पादक क्लस्टर और एफपीओ बनाना जरूरी है। जलवायु परिवर्तन के प्रभाव और आपूर्ति और मांग में मौसमी कमी का मतलब है कि बेहतर प्रबंधन तकनीकें उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितना कि उत्पादन बढ़ाना है। एक चारा प्राधिकरण, विशेष रूप से राजस्थान और गुजरात के शुष्क क्षेत्रों में, विनियमित दरों पर चारा उपलब्ध कराने के लिए, ग्राम-आधारित केंद्र स्थापित कर सकते हैं। प्रमुख पशुपालन वाले राज्यों में चारा मंडियों (बाजार यार्ड) का एक नेटवर्क बनाने की जरूरत है।

केंद्र सरकार एक टैगिंग प्रणाली के माध्यम से मवेशियों की आबादी का मानचित्रण कर रही है- इसे गायों के मामले में आधार कार्ड के रूप में सोचें- लेकिन हमें बड़े पैमाने पर पशुओं के लिए उचित मूल्य के चारे की जरूरत है, न कि गायों की आबादी और इस्तेमाल की आदतों की पुलिसिंग करने की। राज्यों को चारे के लिए आपातकालीन आपूर्ति और स्टॉकयार्ड की जरूरत होती है, जिसे साइलेज (संरक्षित चारे) में परिवर्तित किया जा सकता है और भविष्य में इस्तेमाल के लिए संग्रहीत किया जा सकता है। और अंतिम उपाय, जो कम महत्व का नहीं है, कि केंद्रीय बजट 2022-23 में कृषि अनुसंधान के लिए 8,514 करोड़ का आवंटन है, 2021-22 में संशोधित अनुमान के मुक़ाबले 0.00 प्रतिशत की वृद्धि को चिह्नित करता है। दरअसल, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद को इस आवंटन का सबसे बड़ा हिस्सा यानि 5,877 करोड़ रुपए मिला, मोटे तौर पर पिछले वर्ष से 315 करोड़ रुपए अधिक  मिला है। इस पैसे का अधिकांश हिस्सा वेतन देने और पुरानी परियोजनाओं को जारी रखने में जाता है।

जलवायु परिवर्तन के उतार-चढ़ाव के चलते चारा अनुसंधान जरूरी है। भारत को चारे की फसलों के लिए जलवायु अनुकूलन रणनीतियों के लिए और अधिक संसाधन समर्पित करने चाहिए। अन्यथा, श्वेत क्रांति एक दुखद और लाभहीन मौत मर सकती है।

लेखक स्वतंत्र विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

मूल रूप से अंग्रेज़ी में प्रकाशित साक्षात्कार को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करेंः

India’s White Revolution Runs Into Fodder Problem

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