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भारतीय अर्थव्यवस्था : एक अच्छी ख़बर खोज पाना मुश्किल

शुक्रवार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट के मुताबिक रियल्टी क्षेत्र को दिए गए क़र्ज़ के मामले में एनपीए का अनुपात जून 2018 के 5.74 की तुलना में जून 2019 में 7.3 फ़ीसदी हो गया है। सरकारी बैंकों को मामले में स्थिति और भी खराब है क्योंकि ऐसे क़र्ज़ के मामले में उनका एनपीए 15 फ़ीसदी से बढ़कर 18.71 फीसदी हो गया है।
RBI
फोटो साभार : एनडीटीवी 

पिछले कुछ समय में भारतीय अर्थव्यवस्था एक ऐसे दौर से गुजर रही है जिसमें किसी अच्छी खबर को खोज पाना मुश्किल हो गया है। अर्थव्यवस्था में लंबे समय से बरकरार भारी सुस्ती के बीच भारतीय रिजर्व बैंक ने शुक्रवार को चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि अगले नौ महीने में बैंकों के फंसे कर्ज यानी एनपीए में और वृद्धि हो सकती है। केंद्रीय बैंक ने कहा है कि इसका कारण अर्थव्यवस्था में सुस्ती, लोन का भुगतान करने में नाकामी तथा क्रेडिट ग्रोथ में कमी है।

दरअसल शुक्रवार को रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट जारी की। रिपोर्ट के मुताबिक रियल्टी क्षेत्र को दिए गए कर्ज के मामले में एनपीए का अनुपात जून 2018 के 5.74 की तुलना में जून 2019 में 7.3 फ़ीसदी हो गया है। सरकारी बैंकों को मामले में स्थिति और भी खराब है क्योंकि ऐसे कर्ज के मामले में उनका एनपीए 15 फीसदी से बढ़कर 18.71 फीसदी हो गया है।

रिपोर्ट के मुताबिक, 2016 में रियल्टी क्षेत्र से संबंधित लोन में एनपीए का अनुपात कुल बैंकिंग प्रणाली में 3.90 फीसदी और सरकारी बैंकों में 7.06 फीसदी था, जो 2017 में बढ़कर क्रमश: 4.38 और 9.67 फीसदी पर पहुंच गया। इसमें बताया गया है कि रियल्टी क्षेत्र को दिया गया कुल लोन लगभग दोगुना हो गया है।

इससे दो दिन पहले ही नरेंद्र मोदी सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ने भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर बड़ी चेतावनी दी है। उन्होंने कहा है कि भारत सामान्य आर्थिक संकट की चपेट में नहीं है, बल्कि स्थिति बहुत गंभीर है। अरविंद सुब्रमण्यम के मुताबिक अर्थव्यवस्था के मुख्य संकेतकों की वृद्धि दर या तो नकारात्मक है या फिर उनमें नाममात्र की वृद्धि है।

उनका ये भी कहना था कि निवेश से लेकर आयात-निर्यात तक हर मोर्चे पर मंदी है। अरविंद सुब्रमण्यम के मुताबिक इसके चलते लोगों की आय भी घटी है और सरकार को मिलने वाला राजस्व भी। अरविंद सुब्रमण्यम दुनिया के चर्चित अर्थशास्त्रियों में शुमार हैं। नरेंद्र मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में वे तीन साल तक मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे थे।

हालांकि अर्थव्यवस्था की हालत खराब है लेकिन सरकार और उसके मंत्री इस बात से लगातार इनकार कर रहे हैं। शुक्रवार को ही शिमला में राइजिंग हिमाचल प्रदेश इन्‍वेस्‍टर्स मीट में मंदी की चर्चा पर अमित शाह ने कहा, 'मैं उद्योग जगत को विश्‍वास दिलाना चाहता हूं कि ग्‍लोबल मंदी का जो अस्‍थायी असर दिखाई दे रहा है। मोदी जी के नेतृत्‍व में निर्मला सीतारमण, अनुराग ठाकुर दोनों दिन रात परिश्रम करके अलग-अलग योजनाएं लाकर इससे लड़ने के लिए एक अच्‍छा प्लैटफ़ॉर्म बना रहे हैं। मुझे भरोसा है कि कुछ समय में हम दुनिया में ग्‍लोबल मंदी से बाहर निकलने वाली सबसे पहली अर्थव्‍यवस्‍था होंगे।'

इससे पहले पिछले हफ्ते प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एसोचैम के वार्षिक कार्यक्रम में कहा, 'जब 2014 से पहले के वर्षों में अर्थव्यवस्था तबाह हो रही थी, उस समय अर्थव्यवस्था को संभालने वाले लोग किस तरह तमाशा देख रहे थे, ये देश को कभी नहीं भूलना चाहिए। हमने अर्थव्यवस्था को संभाला। तब अखबारों में किस तरह की बात होती थी, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की साख कैसी थी, इसे आप भली-भांति जानते हैं।' पीएम मोदी ने कहा कि 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य कठिन हो सकता है लेकिन असंभव हरगिज नहीं है। आज इस बारे में लोग बात कर रहे हैं और जाहिर है कि यह लोगों के दिमाग में है और कभी न कभी लक्ष्य जरूर पूरे कर लिए जाते हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सरकार ने इस सुस्ती से निपटने के लिए कॉरपोरेट टैक्स कम करने समेत कई तरह के कदम उठाए हैं लेकिन इससे यह संकट दूर होता नहीं दिख रहा है। हर दिन नया आंकड़ा आता है जो यह बताता है कि देश की आर्थिक हालत कितनी खराब है। ऐसे में सरकार के सामने यह विकल्प है कि वह हर दिन आ रहे आंकड़ों को ईमानदारी से स्वीकार करे और उनसे निपटने के उपाय सोचे। हालांकि सरकार इसके उलट यह बताने में अपनी सारी उर्जा खर्च कर रही है कि स्थिति बेहतर है, जबकि अभी के हालात सबसे सामने आ गए हैं।

दरअसल अर्थव्यवस्था के मंदी की तरफ बढ़ने पर आर्थिक गतिविधियों में चौतरफा गिरावट आती है और इसके संकेत साफ साफ दिखाई देते हैं। आर्थिक विकास दर का लगातार गिरना, खपत यानी कंजम्प्शन में गिरावट, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, बेरोजगारी में इजाफा, बचत और निवेश में कमी, कर्ज की मांग घटना, शेयर बाजार में गिरावट और लिक्विडिटी में कमी वो प्रमुख संकेतक हैं जो आर्थिक मंदी की तरफ इशारा करते हैं।

भारत में ऐसे तमाम आंकड़ें हैं जो इस ओर इशारा कर रहे हैं। एक ओर अक्टूबर में लगातार तीसरे महीने औद्योगिक उत्पादन में 3.8% की गिरावट हुई है तो वहीं फुटकर महंगाई दर बढ़कर तीन साल के उच्चतम स्तर 5.54% पर पहुँच गई।

यह भी खबर आई कि ग्रामीण क्षेत्र में दैनिक मजदूरी दर में 3.54% की कमी दर्ज की गई है। वहीं, सरकार और रिजर्व बैंक द्वारा लगातार एक साल से ब्याज दरों में कमी की कोशिश करने के बाद भी खुद सरकार के अपने ऋण पर ब्याज दर गिर नहीं रही बल्कि 10 वर्षीय सरकारी प्रतिभूति पर ब्याज दर बढ़कर 6.80% हो गई है।

इतना ही नहीं देश के और दुनिया की प्रतिष्ठित आर्थिक एजेंसियां भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास दर का अनुमान पहले की तुलना में कम करती जा रही है।

वर्ल्ड बैंक ने भारत की विकास दर का अनुमान 6 फीसदी रखा है। आईएमएफ ने 2019 में 6.1 फीसदी, एशियन डेवलपमेंट बैंक ने 6.5 फीसदी, नोमूरा जो कि एक जापानी ब्रोकरेज कंपनी है उसने चालू वित्त वर्ष में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि का अनुमान 4.9 फीसदी रखा है। मूडीज ने भारत की साख को नकारात्मक कर दिया है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने विकास दर का अनुमान 6.9 फीसदी से घटाकर 6.1 फीसदी कर दिया है।

एसबीआई ने एक र‍िसर्च रिपोर्ट में चालू वित्त वर्ष के लिए विकास दर अनुमान में भारी कटौती करते हुए इस साल विकास दर 5 फीसदी रहने का अनुमान जताया, जो 6.1 फीसदी के पिछले अनुमान से कम है।

आपको बता दें कि जब भी अर्थव्यवस्था में गिरावट लंबे समय तक जारी रहती है तो उस अर्थव्यवस्था में मंदी का सामाजिक संतुलन पर भी गहरा प्रभाव पड़ता है। आर्थिक गिरावट के चलते बेरोजगारी दर बढ़ जाती है, निवेश घटता है, निर्यात घटता है, गरीबी बढ़ जाती है, भुखमरी बढ़ जाती है, आपराधिक घटनाएं बढ़ जाती हैं और सरकार जरूरी समाजिक खर्चों में कटौती करने लगती है।

यानी अगर यह स्थिति लंबे समय तक जारी रही तो ऐसी स्थिति में जनता को दोहरा नुकसान होता है। पहला सोशल वेलफेयर स्कीम पर पैसा कम खर्च होने लगता है और दूसरा उन पर नए कर का बोझ डाला जा सकता है। क्योंकि पूँजीपतियों को तो पहले से रियायत दी जा रही है। ऐसे में पूंजी की कमी को पूरा करने के लिए आम जनता पर ही कर बढ़ाया जाएगा।

दूसरी तरफ सोशल वेलफेयर स्कीम में खर्च घटाकर सरकार ये कमी पूरा करती है। जैसे प्राथमिक शिक्षा के लिए आबंटित बजट में पहले ही तीन हजार करोड़ रुपये की कटौती की खबर आ चुकी है। आपको बता दें कि मंदी के परिणाम हमेशा ही भयावह रहे हैं और ये बड़े पैमाने में लोगों को गरीबी के गर्त में धकेल देते हैं। 

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