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साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण है: भीष्म साहनी

आज भी यह सवाल बारम्बार उठता रहता है कि साहित्य में विचारधारा की कितनी दख़ल होनी चाहिए। किसी लेखक को विचारधारा से बंधा होना चाहिए या नहीं। विचारधारा आपके लेखन को समृद्ध बनाती है या नुक़सान करती है। कथाकार भीष्म साहनी के जन्मदिवस पर आइए उनके हवाले से इन सवालों से मुठभेड़ करते हैं।
Bhisham Sahni

भीष्म साहनी को याद करना, हिंदी की एक शानदार और पायदार परम्परा को याद करना है। उनकी रचनाशीलता मुख़्तसर नहीं है, बल्कि इसका दायरा काफ़ी विस्तृत है। उपन्यास, कहानियां, नाटक, आत्मकथा, लेख और कला की तमाम दीगर विधाओं में उन्होंने अपनी क़लम लगातार चलाई। भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’, ‘कुन्तो’, ‘बसंती’, ‘कड़ियां’, ‘झरोखे’, ‘मय्यादास की माड़ी’ और ‘नीलू, नीलिमा नीलोफ़र’। कहानी संग्रह ‘भाग्यरेखा’, ‘निशाचर’, ‘पाली’, ‘डायन’, ‘शोभायात्रा’, ‘वांडचू’, ‘पटरियां’, ‘भटकती राख’, ‘पहला पाठ’। नाटक ‘कबीरा खड़ा बाजार में’, ‘हानूश’, ‘माधवी’, ‘मुआवजे’। आत्मकथा ‘आज के अतीत’ को भला कौन भूल सकता है?

वे प्रगतिशील लेखक संघ से एक बार जुड़े, तो इसमें आख़िर तक रहे। अपने बड़े भाई अभिनेता बलराज साहनी की तरह भीष्म साहनी भी भारतीय जन नाट्य संघ यानी इप्टा के समर्पित कार्यकर्ता थे। विचारधारा और संगठन से कभी उनकी निष्ठा नहीं डिगी। साल 1975 में ‘गया सम्मेलन’ में वे प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव बने और इस पद पर साल 1986 तक रहे।

भीष्म साहनी वैचारिक तौर पर एक परिपक्व रचनाकार थे। सभी मामलों में उनका नज़रिया बिल्कुल स्पष्ट था। अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में विचारधारा और साहित्य के रिश्ते को स्पष्ट करते हुए भीष्म साहनी लिखते हैं,

‘‘विचारधारा यदि मानव मूल्यों से जुड़ती है, तो उसमें विश्वास रखने वाला लेखक अपनी स्वतंत्रता खो नहीं बैठता। विचारधारा उसके लिए सतत प्रेरणास्रोत होती है, उसे दृष्टि देती है, उसकी संवेदना में ओजस्विता भरती है। साहित्य में विचारधारा की भूमिका गौण नहीं है, महत्वपूर्ण है। विचारधारा के वर्चस्व से इंकार का सवाल ही कहां है। विचारधारा ने मुक्तिबोध की कविता को प्रखरता दी है। ब्रेख्त के नाटकों को अपार ओजस्विता दी है। यहां विचारधारा की वैसी ही भूमिका रही है, जैसी कबीर की वाणी में, जो आज भी लाखों-लाख भारतवासियों के होठों पर है।’’

भीष्म साहनी एक कुशल संगठनकर्ता थे। प्रलेस के महासचिव के तौर पर उन्होंने देश भर में इसकी विचारधारा फैलाने का काम किया। भारतीय साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन और प्रगतिशील लेखक संघ की भूमिका को वे महत्वपूर्ण मानते थे। प्रलेस की भूमिका पर भीष्म साहनी लिखते हैं,‘‘प्रलेस की भूमिका एक सामाजिक, सांस्कृतिक के रूप में रही, संगठन बन जाने के बाद भी उसने संस्था का रूप नहीं लिया। उसका स्वरूप एक लहर जैसा ही है, बंधी-बंधाई संस्था का नहीं है। यह भारत की सभी भाषाओं का साझा मंच था, धर्मनिरपेक्ष जनतंत्रात्मक की दृष्टि से प्रेरित और वामपंथी विचारधारा से गहरे प्रभावित जो एक देश के स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ता था, तो दूसरी ओर विश्वव्यापी स्तर पर उठने वाली घटनाचक्र के प्रति सचेत था।’’ भीष्म साहनी की नौजवानी का दौर, देश की आज़ादी की जद्दोजहद का दौर था। साल 1942 में ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ छिड़ा, तो वे सियासी गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। इस हंगामाख़ेज दौर में उनकी मुलाकात सियासत और साहित्य दोनों ही क्षेत्र की अनेक महान हस्तियों महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, प्रेमचंद, सुदर्शन, दयानारायण निगम, जैनेन्द्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, इम्तियाज अली ‘ताज’, रबीन्द्रनाथ टैगोर, उदयशंकर आदि से हुई, जिसका असर आगे चलकर उनकी ज़िंदगी पर भी पड़ा।

बंटवारे के बाद भीष्म साहनी का पूरा परिवार भारत आ गया। देश के कई विश्वविद्यालयों में उन्होंने अध्यापन का कार्य किया। साल 1953 में उनका पहला कहानी संग्रह ‘भाग्यरेखा’ प्रकाशित हुआ और इसके तीन साल बाद 1956 में दूसरा, ‘पहला पाठ’। भीष्म साहनी हमेशा मक़सदी अदब के कायल रहे। कहानी की शैली-शिल्प और भाषा से ज़्यादा उनका ध्यान इसके उद्देश्य पर रहता था।

कहानी के मुतअल्लिक उनका नज़रिया था,‘‘कहानी में कहानीपन हो, उसमें ज़िंदगी की सच्चाई झलके, वह विश्वसनीय हो, उसमें कुछ भी आरोपित न हो, और वह जीवन की वास्तविकता पर खरी उतरे।’’ वहीं कहानी की भाषा के बारे में भीष्म साहनी का ख़याल था कि जहां ज़रूरी लगे वहां हिंदी की सहोदर भाषाओं और बोलियों का इस्तेमाल करना चाहिए। उनके मुताबिक ‘‘उत्तर भारत की भाषाएं एक-दूसरी से इतनी मिलती-जुलती हैं कि एक के प्रयोग से दूसरी भाषा बिगड़ती नहीं, बल्कि समृद्ध होती है।’’ यही वजह है कि भीष्म साहनी की सारी कहानियां हमें ज़िंदगी के करीब लगती हैं। उनमें कुछ भी अपनी ओर से थोपा हुआ नहीं लगता। उनकी कहानी-उपन्यास की भाषा से भी पाठक भावनात्मक तौर पर जुड़ जाते हैं। जिसमें वे पंजाबी शब्दों, वाक्यांशों के इस्तेमाल से बचते नहीं हैं। हिंदी, उर्दू के ज्यादातर बड़े रचनाकारों ने अपने कथा साहित्य में इस परंपरा का निर्वाह किया है। फिर वे रेणु हों, चाहे राही, विजयदान देथा, यशपाल, कृष्णा सोबती, मोहन राकेश, कृष्ण बलदेव वैद।

साल 1957 से लेकर साल 1963 तक भीष्म साहनी मास्को में विदेशी भाषा प्रकाशन गृह में अनुवादक के तौर पर कार्यरत रहे। इस दौरान उन्होंने करीब दो दर्जन किताबों जिसमें टॉल्सटॉय के उपन्यास भी शामिल हैं, का हिंदी में अनुवाद किया। अनुवाद को भीष्म साहनी एक कला मानते थे, अपनी आत्मकथा ‘आज के अतीत’ में इस विधा के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘‘अनुवाद कार्य भी एक कला है, पाठक को जो रस कहानी-उपन्यास को मूल भाषा में पढ़ने पर मिले, वैसा ही रस अनुवाद में भी मिले। तभी अनुवाद को सफल और सार्थक अनुवाद माना जाएगा। शाब्दिक अनुवाद-जिसे मक्खी पर मक्खी बैठाना कहा जाता है, साहित्यिक कृतियों के लिए नहीं चल सकता।’’

अध्यापन और अनुवाद के अलावा भीष्म साहनी ने दो साल ‘नई कहानियां’ नामक पत्रिका का संपादन भी किया। ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से जुड़े रहे। इस संगठन की पत्रिका ‘लोटस’ के कुछ अंकों का उन्होंने संपादन किया। ‘अफ्रो-एशियाई लेखक संघ’ से जुड़कर भीष्म साहनी दुनिया के कई मशहूर लेखकों मसलन फिलिस्तीनी कवि महमूद दरवेश, दक्षिण अफ्रीका के एलेक्स ला गूमा, अंगोला के आगस्टीनो नेटो और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के संपर्क में आए। अनेक अफ्रो-एशियाई देशों की यात्राएं कीं। साहित्य, नाटक और संस्कृति के क्षेत्र में भीष्म साहनी के अविस्मरणीय योगदानों को देखते हुए उन्हें कई सम्मानों से नवाज़ा गया। साल 1975 में उपन्यास ‘तमस’ पर उन्हें ‘साहित्य अकादमी’ पुरस्कार मिला, तो साहित्य अकादमी ने उन्हें अपना महत्तर सदस्य बनाकर नवाज़ा। भीष्म साहनी के लेखन का सम्मान अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुआ। साल 1980 में उन्हें ‘अफ्रो-एशियन राइटर्स एसोसिएशन’ का ‘लोटस अवार्ड’, तो साल 1983 में सोवियत सरकार ने अपने प्रतिष्ठित पुरस्कार ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’ से नवाज़ा। यही नहीं साल 1998 में भारत सरकार ने उन्हें ‘पद्म भूषण’ अलंकरण से विभूषित किया।

भीष्म साहनी ने अपनी ज़्यादातर कहानियां मध्य वर्ग के ऊपर लिखी हैं। मध्य वर्ग के सुख-दुःख, आशा-निराशा, पराजय-अपराजय उनकी कहानियों में खुलकर लक्षित हुई हैं। ‘चीफ़ की दावत’, ‘वांड्चू’, ‘ख़ून का रिश्ता’, ‘चाचा मंगलसेन’, ‘सागमीट’ जैसी उनकी कई कहानियां, हिंदी कथा साहित्य में ख़ास मुक़ाम हासिल कर चुकी हैं। कहानी ‘चीफ की दावत’ साल 1956 में साहित्य की लघु पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई थी। इस कहानी को प्रकाशित हुए छह दशक से ज़्यादा हो गए, लेकिन यह कहानी आज भी मध्य वर्ग की सोच की नुमाइंदगी करती है। इस वर्ग की सोच में आज भी कोई ज़्यादा बड़ा फ़र्क़ नहीं आया है।

भारत के बंटवारे पर हिंदी में जो सर्वक्षेष्ठ कहानियां लिखी गई हैं, उनमें से ज़्यादातर भीष्म साहनी की हैं। उन्होंने और उनके परिवार ने ख़ुद बंटवारे के दुःख-दर्द झेले थे, यही वजह है कि उनकी कहानियों में बंटवारे के दृश्य प्रमाणिकता के साथ आएं हैं। कहानी ‘आवाज़ें’, ‘पाली’, ‘निमित्त’, ‘मैं भी दिया जलाऊंगा, मां’ और ‘अमृतसर आ गया है’ के अलावा उनका उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे और उसके बाद के सामाजिक, राजनीतिक हालात को बड़े ही बेबाकी से बयां करता है। उपन्यास ‘तमस’ बंटवारे की पृष्ठभूमि, उस वक़्त के साम्प्रदायिक उन्माद और इस सबके बीच पिसते आम आदमी के दर्द को बयां करता है। उनके उपन्यास ‘तमस’ के ऊपर जब निर्देशक गोविंद निहलानी ने ‘तमस’ शीर्षक से ही टेली सीरियल बनाया, तो इसे उपन्यास से भी ज़्यादा ख्याति मिली। इसकी मक़बूलियत का आलम यह था कि पूरे देश में लोग इस नाटक के प्रसारण का इंतज़ार करते। सीरियल को चाहने वाले थे, तो कुछ मुट्ठी भर कट्टरपंथी इस सीरियल के ख़िलाफ़ भी थे। उन्होंने सीरियल को लेकर देश भर में धरने-प्रदर्शन किए। यहां तक कि दूरदर्शन के दिल्ली स्थित केन्द्र पर हमला भी किया। लेकिन जितना इस सीरियल का विरोध हुआ, यह उतना ही लोकप्रिय होता चला गया।

‘झरोखे’ भीष्म साहनी का पहला उपन्यास था, जो उन्होंने सोवियत संघ से लौटकर लिखा था। इसके बाद उनका उपन्यास ‘कड़ियां’ आया। इन दोनों उपन्यासों को सम्पादक धर्मवीर भारती ने ‘धर्मयुग’ में धारावाहिक रूप से छापा। ‘मय्यादास की माड़ी’ भीष्म साहनी का एक और महत्वपूर्ण उपन्यास है। इस उपन्यास में उन्होंने बड़े ही विस्तार से यह बात बतलाई है कि किस तरह देश में ब्रिटिश उपनिवेशवाद की स्थापना हुई। देशी शासक और सेनापति यदि विश्वासघात नहीं करते, तो देश कभी गुलाम नहीं होता।

भीष्म साहनी का रंगमंच से भी शुरू से ही नाता रहा। इप्टा की स्थापना से ही वे अपने बड़े भाई बलराज साहनी के साथ इससे जुड़ गए थे। उन्होंने इप्टा के लिए न सिर्फ नाटक लिखे, अभिनय किया बल्कि कुछ नाटकों मसलन ‘भूतगाड़ी’, ‘कुर्सी’ का निर्देशन भी किया। कहानी और उपन्यास की तरह भीष्म साहनी के नाटक भी काफी चर्चित रहे। लेकिन उनके नाटक की शुरुआत बड़ी ठंडी रही। जब उन्होंने अपना पहला नाटक ‘हानूश’ लिखा, तो इसे अपने बड़े भाई बलराज साहनी और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के निर्देशक इब्राहिम अल्काज़ी को दिखाया। लेकिन दोनों ने ही इस नाटक में न तो कोई दिलचस्पी ली और न उनका उत्साह बढ़ाया। बाद में इस नाटक को निर्देशक राजिंदरनाथ ने खेला। नाटक ख़ूब पसंद किया गया। ‘हानूश’ की कामयाबी के बाद भीष्म साहनी ने ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में’ लिखा। जिसे एमके रैना ने निर्देशित किया। इस नाटक ने ‘हानूश’ की सफलता की कहानी दोहराई। एमके रैना के नाट्य ग्रुप ने इस नाटक को दस साल तक लगातार खेला और आज भी जब इस नाटक का प्रदर्शन होता है, तो इसे दर्शक देखने के लिए टूट पड़ते हैं।

‘माधवी’, ‘आलमगीर’, ‘रंग दे बसंती चोला’ और ‘मुआवज़े’ भीष्म साहनी के दीगर चर्चित नाटक हैं। उनके सभी नाटकों में वैचारिक प्रतिबद्धता और समाज के प्रति दायित्व साफ़ नज़र आता है। नाटक ‘तमस’ हो या ‘हानूश’ या फिर ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ इन सभी नाटकों में एक बात समान है, यह नाटक धर्म और राजनीति के भयानक गठजोड़ पर प्रहार करते हैं। उनके कई नाटकों में स्त्री विमर्श भी है। नाटक ‘माधवी’ और ‘कबीरा खड़ा बाजार में’ स्त्रीवादी नज़रिए से लिखे गए हैं। नाटक के बारे में भीष्म साहनी की मान्यता थी, ‘‘नाटक में कही बात, अधिक लोगों तक पहुंचती है। दर्शकों के भीतर गहरे उतरती है। साहित्य से आगे सामान्यजनों तक बात पहुंचती है।’’ नाट्य लेखन के ज़रिए समाज को उन्होंने हमेशा एक संदेश दिया।

प्रेमचंद की तरह भीष्म साहनी का भी यह मानना था कि लेखक राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है और अपनी इस बात को वे एक इंटरव्यू में इस तरह से सही ठहराते हैं,‘‘लेखक का संवेदन अपने समय के यथार्थ को महसूस करना और आंकना है। अंतद्वंद्व और अन्तर्विरोध के प्रति सचेत होना है। इसी दृष्टि से उसकी पकड़ समाज के भीतर चलने वाले संघर्ष पर ज़्यादा मजबूत होती है। और परिवर्तन की दिशा का भी भास होने लगता है। इसी के बल पर वह राजनीति से आगे होता है और पीछे नहीं।’’ भीष्म साहनी को एक लंबी उम्र मिली और उन्होंने अपनी इस उम्र का सार्थक इस्तेमाल किया। ज़िंदगी के आख़िरी लम्हों तक वे सक्रिय रहे। बीमारी, शारीरिक दुर्बलता के बावजूद उन्होंने अपना लिखना-पढ़ना और सांगठनिक ज़िम्मेदारियां नहीं छोड़ी। वे सचमुच एक कर्मयोगी थे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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