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मरीज़ को क्लाइंट समझने की सोच से उबरा जाए!

वैद्य अथवा डॉक्टर के लिए दोस्ती का कोई मतलब नहीं उन्हें हर बीमार अपना क्लाइंट नज़र आता है जिससे वे दवा के बदले पैसा उगाह सकते हैं। इसीलिए लोग कहते हैं कि जिस मौसम में बीमारियाँ बढ़ती हैं वही मौसम डाक्टरों के लिए सबसे ज्यादा मुफीद होता है। 
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: Tribune

कोरोना काल में दो बातें उभर कर सामने आईं। एक तो यह कि डॉक्टरी के पेशे में अब लोक कल्याण नहीं, खुली लूट है। दूसरी बात दवाओं के गोरखधंधे की है। पहले कोरोना काल में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने घोषणा की कि गुरुद्वारा बंगला साहिब में वे लोग एमआरपी से 45 प्रतिशत कम क़ीमत पर दवाएँ मुहैया कराएँगे। वैसे इसके पहले दिल्ली के भागीरथ पैलेस में 20 प्रतिशत कम मूल्य पर दवाएँ मिल जाती थीं, लेकिन 45 प्रतिशत से तो एक तरह की क्रांति आ गई। कमेटी वालों का कहना था कि वे कोई दवाएँ ख़ैरात में नहीं बाँट रहे बल्कि दवाओं की क़ीमत बहुत कम होती है। तब पता चला कि दवा बाज़ार में कितना बड़ा गोरखधंधा चल रहा है। पहले सरकारी अस्पतालों में दवाएँ मुफ़्त मिलती थीं, अब शायद ही किसी अस्पताल में दवा मिले। डॉक्टर बाहर से दवा लाने को कहता है।

प्राइवेट अस्पतालों के अंदर ही दवा की दूक़ानें होती हैं और वे एक पर्सेंट की भी छूट नहीं देते। दें भी कैसा अस्पताल वाले दवा की दूक़ानों से मनमानी वसूली जो करते हैं। इसके अलावा एक खेल और हुआ। किसी को नहीं पता था कि कोरोना का इलाज़ क्या है लेकिन दवाएँ खूब ख़रीदवाई गईं। इस बहाने भी लूट हुई। मरीज़ बच गया तो क्रेडिट अस्पताल को मिला और मर गया तो मरीज़ की लापरवाही बताई गई। 

दोनों लहर में सरकार इतनी बेफ़िक्र रही कि उसने कोई ज़िम्मेदारी नहीं ली। न अस्पतालों की लूट पर अंकुश लगाया न अंड-बंड दवाओं पर। लगाती भी कैसे जिस तरह से सरकार ने नागरिकों के स्वास्थ्य को लूट का धंधा बनाया है उसमें डॉक्टर अनाप-शनाप तरीक़े से दवाएँ न लिखे तो बेचारा अपनी डिग्री का खर्च नहीं निकाल सकता। सरकारी मेडिकल कॉलेज में भी अब एमबीबीएस की पढ़ाई का खर्च ही 20 से 25 लाख के बीच बैठता है और उसके बाद एमएस या एमडी का खर्च। निजी मेडिकल कॉलेज में यही फ़ीस चार गुना बढ़ जाएगी। तब लगभग एक करोड़ की फ़ीस देकर निकला छात्र लूटे न तो क्या करे!

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इस संदर्भ में एक लोककथा है. एक वैद्य जी की वैद्यकी जब अपने इलाके में नहीं चली तो उन्होंने दूसरे शहर जाने की ठानी। वे चले और उस शहर में पहुँच कर अपने एक पुराने क्लाइंट सेठ जी के यहाँ डेरा डाला। सेठ जी उस समय थे नहीं तो सेठानी ने उन्हें भोजन कराया और रात बिताने के लिए उन्हें मेहमानों के कमरे में भेज दिया। देर रात जब सेठ जी लौटे तो सेठानी ने उनके लिए भोजन लगाया। अचानक वैद्य जी के कानों में एक तेज आवाज़ गूंजी। सेठ जी सेठानी को डांट कर कह रहे थे- ‘अरे तूने खाने में दही नहीं परोसा?’ वैद्य जी सेठ जी की यह मांग सुनकर अपनी पत्नी से बोले कि अबकी जाड़ों में तुझे सोने का हार दिलवाऊंगा। मगर तभी फिर सेठ जी की आवाज़ उन्हें सुनाई पड़ी- ‘सेठानी तेरा दिमाग कहाँ है, शाम को दही परोसा और भुना हुआ जीरा डालना भूल गई.’ यह सुनते ही वैद्य जी अपनी पत्नी से बोले- “हार कैंसिल. जो आदमी शाम को दही जीरे के साथ लेगा उसे बीमारी होने से रही।” 

अब इसका एक मतलब तो यह है कि रात को दही नहीं खाना चाहिए और अगर खाया जाए तो उसमें भुना हुआ जीरा डालना अनिवार्य है। मगर इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि वैद्य अथवा डॉक्टर के लिए दोस्ती का कोई मतलब नहीं उन्हें हर बीमार अपना क्लाइंट नज़र आता है जिससे वे दवा के बदले पैसा उगाह सकते हैं। इसीलिए लोग कहते हैं कि जिस मौसम में बीमारियाँ बढ़ती हैं वही मौसम डाक्टरों के लिए सबसे ज्यादा मुफीद होता है। क्योंकि वही मौसम डाक्टरों की जेबें भरता है। दुःख है कि कुछ डॉक्टरों ने अपनी हरकत से अपनी यही छवि बनाई हुई है। और इसका खामियाजा उन अच्छे डॉक्टरों को भी भुगतना पड़ता है जो एक मिशन के लिए डाक्टरी कर रहे हैं। चिकित्सा एक व्यवसाय नहीं एक सेवा है। एक डॉक्टर अपने ज्ञान और कौशल से मरीज़ को आराम पहुंचाता है, उसे असह्य पीड़ा से मुक्ति दिलाता है, उसे आकस्मिक मृत्यु से बचाता है। मगर ऐसे व्यवसाय को आज खुद सरकार ने गन्दा कर दिया है। आज भी डाक्टर अपना प्रिस्क्रिपशन लिखने के पूर्व पर्चे पर आरएक्स (Rx) लिखता है. आरएक्स यानी वी ट्रीट्स, ही क्योर्स (We treats, He cures), यहां He का मतलब ईश्वर से है। 

लेकिन आज वह अपने मरीज को उसकी माली हालत को देखकर ही ट्रीट करता है क्योंकि उसे पूरा भरोसा है कि जब उसे ही क्योर करना है तो अगर वह ऊपर वाला चाहेगा तो यह मरीज क्योर हो जाएगा फिलहाल तो मेरा काम इसकी जेब खाली कराना है। यही कारण है कि इलाज के लिए अब नब्ज नहीं बल्कि जेब देखी जाती है और जेब के अनुसार ही इलाज होता है। तमाम तरह के टेस्ट और टेस्ट के बाद एडवांस टेस्ट तो यही कहानी कहते हैं। हालांकि इस बात से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि इन पैथॉलाजी टेस्ट से मरीज के रोग का सही-सही इलाज करना आसान हो गया है लेकिन अगर डॉक्टर अनुभवी है तो वह रोग को तत्काल पकड़ लेगा और अगर बहुत जटिल हुआ तो एकाध टेस्ट से ही वह रोग को समझ लेगा। मगर आज डॉक्टर फालतू में ही इतने टेस्ट करा देगा कि रोगी का दम तो वैसे ही फूलने लगेगा। यही नहीं सारे टेस्ट भी और अल्ट्रासाउंड भी। संभव है कि डॉक्टर इसके बाद भी रोग न पकड़ पाए और विशेषज्ञों की एक बैठक बुलवाए, उसका खर्च भी मरीज देगा। एक सामान्य बुखार के लिए आज डॉक्टर्स राजरोग की तरह इलाज करते हैं नतीजन एक गरीब आदमी तो इलाज करा ही नहीं पाता और बिना इलाज के बेचारे को मरना पड़ता है।

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आमतौर पर मौसम बदलने के चलते प्रकृति और वातावरण में कई तरह के परिवर्तन होते हैं। इनकी वजह से कुछ मौसमी बीमारियां आम हो गई हैं। मलेरिया, टायफायड और बदहजमी की समस्या इसके कारण ही पैदा होती है। लेकिन मजा देखिए आज तक देश के डॉक्टरों ने ऐसा कोई टीका नहीं ईजाद किया जो मलेरिया को जड़ से हटा दे। मलेरिया के तमाम रूप उलटे हर साल नए-नए नाम से आ जाते हैं। डेंगू, चिकेनगुनिया, बर्ड फ्लू आदि बीमारियां ऐसे ही बैक्टीरिया से पनपती हैं। मौसम गुजरने के बाद इनका कहर कम होने लगता है तो डॉक्टर और सरकार सब बेखबर हो जाते हैं कि अगले साल ये बीमारियां फिर आएंगी तब सोचा जाएगा। 

अगर मलेरिया का टीका ईजाद कर लिया गया होता तो बहुत-सी बीमारियां जड़ से खत्म हो चुकी होतीं। इसी तरह अगर पीने के पानी की शुद्घता पर ध्यान दिया गया होता तो टायफायड से लेकर यूटीआई व किडनी के रोगों पर काबू पा लिया गया होता। मगर हुआ उलटा यहां न तो नई दवाओं को ईजाद करने पर जोर दिया गया न ही खान-पान की शुद्धता पर नतीजा सामने है कि हर पांच भारतीय में से एक या तो मधुमेह का शिकार है अथवा रक्तचाप का या पेट जनित बीमारियों का। जब मरीज आया तो उसके रोग को धीमा कर दो, डॉक्टरों का बस यही फंडा रहता है। अंगों का प्रत्यार्पण कोई इलाज नहीं है क्योंकि यह सुविधा उसे ही मिल सकती है जो इसका खर्च उठा सकता है और डॉक्टरों की चौकड़ी में शामिल होने की ताकत रखे।

नतीजा सामने है। इसी वर्ष गोरखपुर, देवरिया से लेकर आगरा, मथुरा तक न जाने कितने बच्चे काल कवलित हुए। अकेले दो महीने में पाँच सौ से ज्यादा बच्चे मर गए पर सभी हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे। क्योंकि उन बच्चों के माँ-बाप इलाज़ का खर्च नहीं उठा सकते थे। जिस मुल्क में आदमी को दो जून की रोटी का जुगाड़ करने के लिए दिन-रात मेहनत करनी पड़ती हो वहां वह पैसा लाएगा कहाँ से जिसके बूते वह इलाज़ करवा सके। इसलिए यह सरकार का ही कर्त्तव्य बन जाता है कि वह कम से कम देशवासियों के लिए मुफ्त इलाज़ की व्यवस्था तो कर सके। एक अच्छा और बेहतर समाज वही है जहाँ हर मनुष्य के अंदर करुणा हो। परस्पर करुणा से ही एक दूसरे के कष्ट और पीड़ा को दूर किया जा सकता है। एक अच्छे डाक्टर का यह दायित्त्व तो बनता ही है कि वह अपने कौशल और ज्ञान का इस्तेमाल पीड़ित मानवता का कष्ट दूर करने में करे। पर अब वह कैसे संभव है। 

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।

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