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बच्चों में डिप्रेशन की बात हलके में मत लीजिए!

कोरोना महामारी वर्षों तक बच्चों और युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित कर सकती है। यूनिसेफ के मुताबिक भारत में 14 फीसदी बच्चें हताश-निराश जीवन यापन कर रहे हैं।
depression
image credit- Social media

"काश की सच में बच्चों को डिप्रेशन न होता, लेकिन दूसरे लोगों बहकावे में आकर आज मैं उस स्थिति में पहुंच गई हूं, जहां मैं जानबूझकर कभी आना नहीं चाहती थी।"

कुछ सालों पहले जब फिल्मों में काम कर चुकीं अभिनेत्री ज़ायरा वसीम ने अपने डिप्रेशन की बात सोशल मीडिया पर साझा करते हुए ये लाइने अपने पोस्ट में लिखीं, तो कई लोगों ने उन्हें उनके मज़हब को लेकर ट्रोल किया तो कईयों ने तंस कसते हुए कहा कि बच्चों को डिप्रेशन नहीं हो सकता। हालांकि दुनिया के सामने ऐसी कई रिसर्च आ चुकी हैं, जो ज़ायरा की बातों को सही साबित करती हैं।

यूनिसेफ की ताज़ा जारी रिपोर्ट में भी यही बताया गया है कि भारत में 15 से 24 साल के बच्चों में सात में से एक बच्चा अक्सर उदास महसूस करता है, यानी लगभग 14 फीसदी बच्चें हताश-निराश जीवन यापन कर रहे हैं, जो कहीं न कहीं डिप्रेशन का शिकार है। उदास रहने वाले बच्चे काम में भी दिलचस्पी नहीं लेते हैं। रिपोर्ट में चेतावनी देते हुए कहा गया है कि कोरोना महामारी वर्षों तक बच्चों और युवाओं के मानसिक स्वास्थ्य और कल्याण को प्रभावित कर सकती है।

बता दें कि यूनिसेफ इंडिया की प्रतिनिधि डॉ. यास्मीन अली हक ने मंगलवार, 5 अक्तूबर को कहा कि वैश्विक स्तर पर बच्चों को मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं हैं और कोविड ने इसे और बढ़ा दिया है। हमने देखा है कि समस्याएं होने के बावजूद बच्चे इसके बारे में बात करने में सहज नहीं हैं।

उन्होंने कहा, "हमें बच्चों, वयस्कों और युवाओं को उनकी चिंता, अवसाद और बुरे विचारों को साझा करने के लिए प्रोत्साहित करने की जरूरत है ताकि हम उनकी मदद कर सकें। इस कलंक को दूर करना एक बहुत बड़ा मुद्दा है।"

क्या कहती है रिपोर्ट?

‘स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन-2021 ऑन माई माइंड : प्रमोटिंग, प्रोटेक्टिंग एंड केयरिंग फॉर चिल्ड्रन्स मेंटल हेल्थ'’ शीर्षक से अपनी रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र बाल कोष ने कहा है कि कोविड महामारी ने बच्चों, युवाओं, माता-पिता और देखभाल करने वालों की एक पूरी पीढ़ी के मानसिक स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ी चिंता पैदा कर दी है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि कई बच्चे उदासी, दुख और चिंता से भरे हुए हैं। कुछ लोग सोच रहे हैं कि ये दुनिया किस ओर जा रही है और इसमें उनका क्या स्थान है। दरअसल, बच्चों और युवाओं के लिए ये बेहद चुनौतीपूर्ण समय है और 2021 में उनकी दुनिया की यही स्थिति है।

'स्टेट ऑफ द वर्ल्ड्स चिल्ड्रन 2021' रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में 15 से 24 साल के बच्चों में केवल 41 प्रतिशत ने माना कि मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के दौरान मदद लेना अच्छा है, जबकि अन्य 20 देशों की बात करें तो यह प्रतिशत करीब 83 है।

यूनिसेफ और गैलप ने मिलकर साल 2021 की शुरुआत में 21 देशों में 20,000 बच्चों और वयस्कों पर यह सर्वे किया। सर्वेक्षण में पाया गया कि भारत में युवा मानसिक तनाव के दौरान किसी का समर्थन लेने से बचने की कोशिश करते हैं।

रिपोर्ट के मुताबिक 21वीं सदी में बच्चों, किशोरों और देखभाल करने वालों के मानसिक स्वास्थ्य पर नजर रखने वाले यूनिसेफ ने कहा कि कोरोना महामारी का बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ा है।

यूनिसेफ के कार्यकारी निदेशक हेनरीएटा फोर ने कहा कि राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन और महामारी से संबंधित मूवमेंट पर लगी प्रतिबंध की वजह से बच्चों ने अपने जीवन के अमिट वर्ष परिवार, दोस्तों, कक्षाओं और खेल के मैदान से दूर बिताए हैं। ऐसे में महामारी का प्रभाव महत्वपूर्ण है और ये सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा है। महामारी से पहले भी बहुत से बच्चे मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के बोझ तले दबे हुए थे। इन महत्वपूर्ण जरूरतों को पूरा करने के लिए सरकारों द्वारा बहुत कम निवेश किया जा रहा है।

गौरतलब है कि ब्रिटेन की जानी मानी हेल्थ बेवसाइट एनएचएस च्वाइस के मुताबिक 19 साल के होने से पहले हर चार में से एक बच्चे को डिप्रेशन होता है। इस बेवसाइट के मुताबिक बच्चों में जितनी जल्द डिप्रेशन का पता चल जाए उतना बेहतर होता है। अगर लंबा खिंचता है तो इससे उबरने मे ज्यादा वक़्त लगता है। आंकड़ों की बात करें तो दुनिया में तकरीबन 35 करोड़ लोगों डिप्रेशन के शिकार है।

डिप्रेशन के लक्षण

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ डिप्रेशन एक आम मानसिक बीमारी है। डिप्रेशन आमतौर पर मूड में होने वाले उतार-चढ़ाव और कम समय के लिए होने वाले भावनात्मक प्रतिक्रियाओं से अलग है। लगातार दुखी रहना और पहले की तरह चीज़ों में रुचि नहीं होना इसके लक्षण हैं।

पंजाब स्थित मनोचिकित्सक मनिला गोयल के अनुसार बच्चों में कई तरीके से इसका आसानी से पता लगाया जा सकता है। जानकारों के मुताबिक शुरूआती लक्षण कुछ ऐसे होते हैं, जैसे- स्कूल न जाने की लगातार ज़िद करना, दोस्त न बना पाना, खाना नहीं खाना, हमेशा लो फ़ील करना, हर बात के लिए इनकार करना, पैनिक अटैक आना आदि।

पैनिक अटैक को एंग्जाइटी अटैक भी कहते है। कई लोगों में ये डिप्रेशन का शुरूआती दौर होता है। कई बार पैनिक अटैक और डिप्रेशन साथ-साथ भी आ सकते हैं। कई बार एंग्जाइटी अटैक, सिर्फ एंग्जाइटी अटैक बन कर ही रह जाता है, डिप्रेशन तक की नौबत नहीं आती है। ऐसी स्थिति में हमेशा नकारत्मकता बीमार लोगों पर हावी रहती है।

अगर बच्चा बहुत ज्यादा ग़ुस्से में रहता है और हमेशा कही जाने वाली बात का उल्टा करता है तो ये भी डिप्रेशन का एक प्रकार होता है। लोग अकसर उत्तेजित बच्चों को डिप्रेस्ड नहीं मानते हैं, लेकिन ऐसा नहीं होता।

क्या कारण हो सकते हैं बच्चों में डिप्रेशन के?

ब्रिटेन की हेल्थ बेवसाइट एनएचएस चॉइस के मुताबिक बच्चों में डिप्रेशन के कई वजह हो सकते हैं। परिवार में कलह, स्कूल में मारपीट, शारीरिक, मानसिक या यौन शोषण या फिर परिवार में पहले से किसी को डिप्रेशन होना।

कई बार एक साथ बहुत अटेंशन मिलने के बाद एकाएक अटेंशन नहीं मिलने की वजह से कई बार लोग डिप्रेशन में चले जाते है। इसलिए कम उम्र में शोहरत पाने वाले बच्चों को इसका ख़तरा ज्यादा रहता है।

इलाज कैसे संभव है?

मनोचिकित्सक मनिला गोयल के मुताबिक बच्चों में डिप्रेशन का इलाज बड़ों की तरह ही होता है, बस ज़रूरत होती है बच्चों की मानसिकता को ज्यादा बेहतर समझने की। डिप्रेशन के प्रकार पर उसका इलाज निर्भर करता है। अगर बच्चा 'माइल्ड चाइल्डहुड डिप्रेशन' का शिकार है तो बातचीत और थेरेपी से इलाज संभव होता है। कई बार दवाइयों और काउंसिलिंग दोनों की जरूरत पड़ती है।

आमतौर पर ऐसे बच्चों को एंटी डिप्रेसेंट टैबलेट लेने की सलाह दी जाती है। हालांकि ये टैबलेट डिप्रेशन के कुछ लक्षणों में तो आराम पहुंचाते हैं मगर वे मूल वजह पर असर नहीं करते। यही वजह है कि बाकी उपचारों के साथ इसके इस्तेमाल होते हैं, अकेले नहीं।

मानसिक स्वास्थ्य पर खुल कर बातचीत ज़रूरी

विश्व स्वास्थ्य संगठन कि एक रिपोट के मुताबिक बच्चों में डिप्रेशन यानी अवसाद के इलाज के लिए एंटी डिप्रेशन दवाओं का इस्तेमाल 50 फ़ीसदी बढ़ गया है। संगठन का कहना है कि यह चलन ख़तरनाक है क्योंकि ये दवाएं बच्चों को ध्यान में रखकर नहीं बनाई गई थीं। लेकिन जब डिप्रेशन का फ़ेज चरम पर होता है तो काउंसिलिंग से बात नहीं बनती। उस समय इंजेक्शन और दवाइंयों से पहले इलाज कर डिप्रेशन को कंट्रोल में लाया जाता है फिर बाद में थेरेपी का इस्तेमाल किया जाता है। कई मामलो में मनोचिकित्सक और मनोवैज्ञानिक दोनों का एक साथ सहारा लेने की जरूरत पड़ती है।

मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक़ डिप्रेशन के दौरान किए गए क्रिएटिव काम आपको इस परिस्थिति से निपटने में मदद कर सकते हैं, कई बार जब आप जो महसूस कर रहे हैं उसे अपने क्रिएटिव काम के माध्यम से जताना आसान होता है, इसलिए आपके किए गए क्रिएटिव काम में आपकी मनोस्थिति दिखती है और वो आपको अच्छा भी लगने लगता है। लेकिन ये तरीक़ा सभी पर कारगार साबित होगा ऐसा नहीं है। हर इंसान या बच्चे का दिमाग़ अलग होता, कुछ लोगों को ये मदद करता है तो कुछ को नहीं। और सिर्फ़ अपना ध्यान किसी क्रिएटिव काम में लगाना भी इलाज नहीं है, परिवार और दोस्तों का साथ, योगा, फ़िज़िकल एक्टीविटी और डॉक्टर्स द्वारा दी जाने वाली दूसरी थेरेपी भी बहुत ज़रूरी हैं। सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि समाज में मानसिक स्वास्थ्य पर खुल कर बातचीत हो, जो आज के समय में समाज और सरकार दोनों के रडार से बाहर नज़र आती है।

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