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हरियाणा की प्राइवेट नौकरियों में बाहरी की एंट्री बंद करने वाला क़ानून क्या सही है?

हरियाणा में डबल इंजन की सरकार फिर भी प्राइवेट सेक्टर में नौकरी के लिए हरियाणा के लोगों को 75 फ़ीसदी आरक्षण! क्या ये संवैधानिक है? विश्लेषण कर रहे हैं अजय कुमार।
नौकरियों
Image Courtesy : Times of India

महज वोट बटोरने के लिए काम करना एक तरह का धंधा है, राजनीति नहीं। देश और समाज को चलाने के लिए राजनीति की जरूरत होती हैं, धंधे की नहीं। केवल वोट के नफा-नुकसान का ख्याल रखकर छोटा नहीं सोचा जाता, बल्कि जनकल्याण का ख्याल रखकर बड़ा और बहुत दूर का सोचा जाता है। 

इसलिए भारत के संविधान में यह कहीं भी नहीं लिखा कि बिहार की सरकार बिहार की नौकरी केवल बिहारियों को देने का कानून बना सकती है। महाराष्ट्र की सरकार महाराष्ट्र की नौकरी केवल मराठियों को देने का कानून बना सकती है। बल्कि संविधान में यह साफ-साफ लिखा हुआ है कि जन्म स्थान के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाएगा। 

लेकिन हरियाणा सरकार ने यह कानून बना दिया है कि महीने की 50 हजार रुपये से कम वेतन वाली हरियाणा की प्राइवेट नौकरियों में 75% आरक्षण हरियाणा के लोगों को मिलेगा। यानी हरियाणा की प्राइवेट नौकरियों में महज 25 फ़ीसदी कामगारों के अलावा सब हरियाणा से होंगे। निवास स्थान के आधार पर नौकरियों को आरक्षित करने का कानून केवल हरियाणा में ही नहीं बना है। लेकिन इससे पहले कर्नाटक मध्य प्रदेश में भी बन चुका है।

सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी की रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2020 में हरियाणा 43.2 प्रतिशत बेरोजगारी के साथ देश में पांचवे नंबर पर था। यानी पूरे भारत की तरह हरियाणा में भी बेरोजगारी बहुत बड़ी परेशानी है। लेकिन इस बेरोजगारी का इलाज क्या है?

क्या इलाज यही है कि हरियाणा में दूसरे राज्यों से आने वाले लोग काम ना करें? हरियाणा की नौकरियां हरियाणा के लोगों को ही मिले?

क्या इसे बेरोजगारी की बीहड़ परेशानी का इलाज कहा जाएगा?

कोई भी सुलझा हुआ नागरिक ऐसे नियम पर यह कहेगा कि अगर हरियाणा ने यह कानून बनाया है तो कल बिहार, उत्तर प्रदेश भी ऐसा कानून बनाएंगे। तब क्या होगा जब पलट कर दिल्ली और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य हरियाणा से यह पूछ बैठें कि हरियाणा के बहुत बड़े इलाके का विकास दिल्ली और नोएडा की वजह से हुआ है, हरियाणा की बहुत बड़ी आबादी दिल्ली और नोएडा में काम करती है। अगर दिल्ली और नोएडा भी हरियाणा की तरह कानून लाएं तो क्या होगा?

क्या ऐसे कानूनों से बेरोजगारों की परेशानी सुलझ जाएगी। इसीलिए अगर यह कहा जाए कि हरियाणा की सरकार ने बहुत बड़ा नहीं सोचा, पूरे देश के बारे में नहीं सोचा, बहुत दूर का नहीं सोचा महज वोट के बारे में सोचा तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

ऐसे कानूनों के साथ यही दिक्कत है। इसीलिए ऐसे कानून संविधान के खिलाफ भी होते हैं। भारत के संघवाद के खिलाफ होते हैं। नागरिकों से उनकी अवसर की समानता से जुड़ा मूल अधिकार छीनते हैं। भारत के संविधान के मुताबिक जन्म स्थान के आधार पर राज्य भेदभाव नहीं कर सकता है। किसी भी व्यक्ति को भारत में कहीं भी आने जाने की छूट है। कहीं भी रहने की छूट है। किसी भी तरह के पेशे को अपनाने की छूट है। कुछ जायज अपवादों के अलावा राज्य नागरिकों से उनके ये अधिकार नहीं छीन सकता है। कहने का मतलब यह है कि बिहार में पैदा हुए शख्स की नौकरी की तलाश अगर हरियाणा में पूरी होती है तो संविधान के मुताबिक इस पर कोई रोक नहीं लगाई जानी चाहिए। 

फिर भी कुछ परिस्थितियों में संविधान के अनुच्छेद 16 (3) के तहत नौकरियों के लिए निवास स्थान के आधार की बात करता है। लेकिन संविधान इस पर कानून बनाने का हक राज्य को नहीं बल्कि संसद को देता है। यानी संसद को अगर लगता है कि नौकरी देने के मामले में निवास स्थान का भी गौर किया जाना चाहिए तो इस पर संसद में कानून प्रस्तावित किया जा सकता है है। यह हक राज्य को नहीं मिला है।

अब सवाल उठता है कि आखिरकर संसद को यह हक क्यों मिला है? हरियाणा ऐसे मामले में कानून क्यों नहीं बना सकता है? इसका जवाब ढूंढने के लिए भारतीय राज्य को वैचारिक तौर पर समझना चाहिए। भारत में एकल नागरिकता है। यानी लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक,आंध्र प्रदेश के नागरिक नहीं होते बल्कि इन सभी राज्यों में बसे लोग भारत के नागरिक होते हैं।

इन नागरिकों के साथ आधारभूत तरीके से व्यवहार कैसे होगा, इसकी व्याख्या भारत के संविधान में मौजूद है ना कि गुजरात, महाराष्ट्र, पश्चिम बंगाल ने अपने खुद के संविधान बनाए हैं और उसके आधार पर अपने राज्य के लोगों के लिए नियम-कानून। 

इसलिए पूरे देश में अगर कोई कानून या नियम बनता है तो उसका आधारभूत स्रोत भारत का संविधान ही होता है। इस संविधान से अलग होकर नियम कानून नहीं बन सकते हैं। हरियाणा का एंप्लॉयमेंट ऑफ लोकल कैंडिडेट एक्ट 2020 का आधार भी भारत के संविधान से अलग नहीं हो सकता। 

लेकिन फिर भी कुछ मामले ऐसे होते हैं, कुछ परिस्थितियां ऐसी होती हैं, जहां पर अलग तरीके से काम करने की जरूरत पड़ती है। लेकिन इसका फैसला करने का अधिकार उसे है, जिसमें भारत की संप्रभुता निहित है। यानी ऐसे फैसले करने का अधिकार भारत सरकार और संसद को है। इसीलिए भारत सरकार भारत में रहने वाले नागरिकों के बीच कोई भेदभाव नहीं कर सकती लेकिन अपनी संप्रभु शक्तियों की वजह से भारत से बाहर रहने वाले दूसरे देशों के नागरिकों के साथ दूसरे आधारों पर भी बर्ताव कर सकती है। इसी तरह से जब परिस्थितियां बिल्कुल ऐसी हो कि निवास स्थान के आधार पर नौकरी देने की जरूरत आन पड़े तो इसका फैसला करने का अधिकार संसद को है ना की किसी राज्य के विधान मंडल को। 

लेकिन इसके बाद भी यह सवाल उठ सकता है कि स्वराज और भारतीय प्रशासन में विकेंद्रीकरण की बात की जाती है, जिसके तहत स्थानीयता को केंद्र में रखा जाता है, इसलिए अगर हरियाणा सरकार ने स्थानीय लोगों को नौकरी में तवज्जो दी तो गलत क्या किया? हरियाणा सरकार ने गलत किया और बिल्कुल गलत किया। केंद्र, राज्य और पंचायतों की तीन स्तरीय व्यवस्था अपने आप में विकेंद्रीकरण ही है। 

विकेंद्रीकरण का असल मकसद यह है कि सब जगह की परिस्थितियां अलग होती हैं। सब जगह को एक ही तरह से हांका नहीं जा सकता है। बिहार के पश्चिमी चंपारण जिले की परेशानी की तरह महाराष्ट्र के लातूर जिले की परेशानी नहीं है। उन दोनों में बहुत अंतर है। इसलिए उन दोनों परेशानियों का हल अलग-अलग तरीके से किया जाना चाहिए।

विकेंद्रीकरण और स्वराज की बात इससे जुड़ती है कि भूगोल के आधार पर बदलने वाली परेशानियां और मानव संसाधन से जुड़ी परेशानिया भूगोल तक पहुंचकर हल की जाए। ना कि सब का हल केवल दिल्ली में बैठे लोग करें। 

विकेंद्रीकरण और स्वराज का मतलब कहीं से भी यह नहीं होता कि लोगों का विकल्प खत्म कर दिया जाए। लोगों की चुनने की आजादी खत्म कर दी जाए। एक भौगोलिक सीमा के अंदर उन्हें कैद करके रखा जाए। बल्कि विकेंद्रीकरण और स्वराज का मतलब यह होता है कि हर भौगोलिक सीमा तक पहुंचा जाए और हर भौगोलिक सीमा की परेशानी का हल किया जाए। इस आधार पर बेरोजगारी की परेशानी हल करने का तरीका यह हो सकता है कि हरियाणा सरकार अपने राज्य के अनुकूल मानव संसाधन को विकसित करे। वह तरीके और प्रबंधन अपनाएं जिससे हरियाणा में रोजगार के अवसर विकसित हो। हरियाणा के इलाके तक शिक्षा की पहुंच हो। कौशल उन्नत करने से जुड़े योजनाएं पहुंचे।

प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता इंडियन एक्सप्रेस में लिखते हैं कि यह मामला सुप्रीम कोर्ट में तो जरूर जाएगा। हरियाणा सरकार को भी पता है कि संविधान के आधार पर इस कानून को खारिज कर दिया जाएगा। लेकिन इसके खतरनाक परिणाम दिखाई दे रहे हैं। ऐसे कानून अपवाद स्वरूप बनते थे। लेकिन अब बहुत सारी सरकारें यह चालाकियां अपनाने लगी हैं। अगर यह कानून सुप्रीम कोर्ट के जरिए रद्द कर दिया जाता है फिर भी स्थानीयता की आग से उठी लपटों से कैसे बचा जाएगा। स्थानीयता की वही आग जिसे  शिव सेना के जरिए महाराष्ट्र में मराठी बनाम बाहरी करके पूरा भारत देख चुका है।

संवैधानिक तौर पर तो यह कानून बहुत कमजोर है लेकिन आर्थिक तौर पर भी बहुत कमजोर है। मान लीजिए अगर किसी काम के लिए जरूरी कौशल वाले लोग हरियाणा में उपलब्ध नहीं  हों तब क्या होगा? ऐसे में धांधली बढ़ेगी। लोग कानून तोड़ने के लिए मजबूर होंगे। इंस्पेक्टर राज की बढ़ोतरी होगी। अगर यह सारे काम नहीं होंगे तो मजबूरन उद्योग को हरियाणा छोड़ना पड़ेगा। नौकरी की जगह और कम होगी। यानी यह कानून व्यवहारिक भी नहीं है।  खट्टर सरकार की अदूरदर्शिता का परिणाम है। मोदी जी के शब्दों में कहा जाए तो डबल इंजन की सरकार होते हुए भी हरियाणा सरकार केंद्र से अलग होकर कानून बना रही है। क्या हरियाणा सरकार को मोदी जी की नीतियों पर भरोसा नहीं है। क्या मोदी जी की नीतियां हरियाणा में रोजगार के संसाधन पैदा नहीं कर सकती? 

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