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अमेरिका-ईरान के बीच JCPOA का वापस लौटना इतना आसान नहीं

इब्राहिम रैसी के औपचारिक तौर पर ईरान के राष्ट्रपति घोषित होने के बाद, अब 2015 में हुए ईरान परमाणु समझौते (JCPOA) पर चीज़ें किसी भी तरफ़ जा सकती हैं।
अमेरिका-ईरान के बीच JCPOA का वापस लौटना इतना आसान नहीं

मंगलवार को ईरान के सर्वोच्च नेता अयातोल्लाह अली ख़ामेनेई द्वारा इब्राहिम रैसी को आधिकारिक तौर पर अगला राष्ट्रपति नियुक्त कर दिया जाएगा। दो दिन बाद उन्हें संसद में राष्ट्रपति के तौर पर मान्यता दे दी जाएगी। एक बार फिर ईरान मे तय प्रारूप में सत्ता का हस्तांतरण हो रहा है।

यह हस्तांतरण ईरान में भविष्य की दिशा, क्षेत्रीय राजनीति और आंतरिक सुरक्षा के नज़रिए से अहम है। ऐसा इसलिए है क्योंकि ईरान के परमाणु मुद्दे पर परिस्थितियों का दुर्लभ संयोग बना है और अब तेहरान में एक नई मुख्यधारा आकार ले रही है।

उम्मीदों के विपरीत, ईरान के 2015 के परमाणु समझौते पर इस साल अप्रैल से विएना में जो बात चल रही थी, वह फिलहाल स्थगित स्थिति में चल रही है। चीजें किसी भी तरफ मुड़ सकती हैं।

दूसरी तरफ रैसी को कट्टर रुढ़िवादी माना जाता है, जिसका मतलब होगा कि अब अमेरिका के लिए तेहरान में ज़्यादा कठिन वार्ताकार सामने होगा। हालांकि सर्वोच्च नेता ख़ामेनेई के नेतृत्व में ईरान अपनी राजनीतिक स्थिति पर डटा रहेगा।

फिर दूसरी तरफ बाइडेन प्रशासन पर 2020 की मंदी में धीमी पड़ी अर्थव्यवस्था के तेज ना होने का दबाव भी बन रहा है। बड़े प्रोत्साहन पैकेज और वाल स्ट्रीट ने अब तक आर्थिक तेजी संकेत नहीं दिए हैं, लेकिन मंहगाई का दबाव निश्चित तौर पर बढ़ रहा है। फिर अमेरिका के दक्षिणी हिस्से से कोरोना वायरस का डेल्टा वैरिएंट उत्तर की तरफ़ बढ़ रहा है, इससे भी अनिश्चित्ता की स्थिति बन रही है। 

साधारण शब्दों में कहें तो विएना में राष्ट्रपति बाइडेन "कमज़ोर" वार्ताकार दिखाई देने का भार नहीं उठा सकते। ऊपर से तेहरान को भी यह महसूस होगा कि बाइडेन के पास इतनी राजनीतिक पूंजी नहीं है कि वे नए परमाणु समझौते के लिए कांग्रेस की सहमति ले पाएं, मतलब इतिहास अपने आपको दोहराएगा। 

बल्कि अमेरिकी अधिकारी पहले ही तर्क दे रहे हैं कि कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति यह गारंटी नहीं दे सकता कि उसके द्वारा किए गए समझौतों को भविष्य के राष्ट्रपतियों या कांग्रेस द्वारा नहीं बदला जाएगा।

अमेरिका और ईरान के कड़वे इतिहास और आपसी विश्वास की कमी की पृष्ठभूमि में तेहरान एक बार फिर इस उहापोह में फंस गया है कि क्या उसे ऐसा समझौता करना चाहिए, जिसका समयकाल निश्चित नहीं है। यहां तक कि मौजूदा अमेरिकी राष्ट्रपति के रिटायर होने से पहले भी यह समझौता अपना जीवन पूरा कर सकता है।

इस बीच अमेरिकी वार्ताकारों ने विएना में कठोर शर्तें रखी हैं। उन्होंने ईरान की अपने मूल हितों की रक्षा करने की दृढ़ता को कमजोर समझा। अमेरिकी वार्ताकारों ने माना कि ईरान अपनी आर्थिक दिक्कतों को देखते हुए आसानी से झुक जाएगा, ताकि मौजूदा प्रतिबंध हटाए जा सकें। ऐसा मानकर चलने वाले अमेरिकी वार्ताकार अपने निर्देश देने लगे। 

फिलहाल उपलब्ध जानकारी के मुताबिक़, बाइडेन की टीम का जोर है कि अमेरिका का JCPOA पर लौटना, ईरान के साथ 'क्षेत्रीय मुद्दों पर भविष्य में चर्चा' की सहमति पर निर्भर करेगा; अमेरिका हथियारों पर लगे प्रतिबंधों को वापस नहीं ले सकता, बल्कि JCPOA में उल्लेख था; मौजूदा प्रशासन, ट्रंप द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों को नहीं हटाएगा; JCPOA से अमेरिका के एकतरफा ढंग से हटने से ईरान को जो भारी आर्थिक नुकसान हुआ है, अमेरिका उसकी भरपाई नहीं करेगा; JCPOA में लगाए गए प्रतिबंधों के परे, ईरान को उसके परमाणु समझौते पर नए प्रतिबंधों को लगाने पर सहमति देनी होगी। ईरान का हमेशा से कहना रहा है कि परमाणु समझौते को उसके मिसाइल कार्यक्रम या क्षेत्रीय नीतियों के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। लेकिन अमेरिका का मानना है कि ईरान इस बात से पीछे हट सकता है।

बाइडेन की टीम को ट्रंप प्रशासन द्वारा तय किए गए लक्ष्यों को पाने की उम्मीद है, जिनमें ट्रंप प्रशासन अधिकतम दबाव की नीति के बावजूद असफल हो गया था। यह लक्ष्य हैं; 2015 के समझौते का एक नवीन प्रारूप लाया जाए, जिसमें दूसरी चीजों के साथ ऐसी शर्तें शामिल होंगी, जिनसे ईरान एक गैर-परमाणु हथियार संपन्न देश के तौर पर भी शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम भी नहीं चला सकेगा। जबकि परमाणु अप्रसार संधि के तहत ईरान को जापान की तरह यह अधिकार है। (एक और दूसरे गैर-परमाणु हथियार देश, ब्राजील में तो सेना यूरेनियम के संवर्द्धन की तकनीक, नागरिक परमाणु कार्यक्रमों को लीज़ पर देती है और नौसेना परमाणु क्षेत्र में तकनीकी विकास करती है, यहां तक कि उसने परमाणु संपन्न पनडुब्बी भी बना ली है।) 

साफ़ है कि JCPOA को दोबारा पुर्नजीवित करने के मुद्दे पर अमेरिका और ईरान के बीच गहरे मतभेद हैं। अमेरिका के गृह सचिव एंटनी ब्लिंकन द्वारा हाल में की गई टिप्पणी से भी यह साफ़ हो जाता है। उन्होंने कहा था, "अब गेंद ईरान के पाले में है, हम देखेंगे कि क्या वे समझौते के पालन पर लौटने के लिए जरूरी फ़ैसले लेने के लिए तैयार हैं।" उन्होंने अप्रत्यक्ष चेतावनी देते हुए कहा कि "यह (विएना) प्रक्रिया अनिश्चितकाल तक जारी नहीं रह सकती।"

ईरान के मामलों में अंतिम शब्द कहने वाले ख़ामेनेई ने बुधवार को घोषणा करते हुए कहा था कि तेहरान, परमाणु समझौते में वाशिंगटन की जिद्दी मांगे नहीं मानेगा। उन्होंने एक बार फिर परमाणु समझौते की वार्ता में दूसरे मुद्दों को जोड़ने की शर्त को नकार दिया। ख़ामेनेई के शब्द वह परिसीमा तय कर देते हैं, जिनके भीरत रैसी विएना में वार्ता कर सकेंगे।

आने वाले हफ़्तों में रैसी को अपनी कैबिनेट बनाकर उन्हें मज़लिस से मान्यता दिलवानी होगी, खासकर नए विदेशमंत्री को। इसका मतलब होगा कि इसके पहले विएना में गंभीर वार्ता चालू नहीं हो सकती।

दरअसल बाइडेन की टीम गच्चा खा गई और ऐसी मांग रख दीं, जो ईरान की पिछली सरकार के दायरे से बाहर थीं। उन्होंने भोलपन में अंदाजा लगाया कि यह राष्ट्रपति हसन रुहानी और विदेश मंत्री जवाद ज़ारिफ के लिए किसी भी चीज से ज़्यादा सिर्फ़ विरासत का मुद्दा है। (ख़ामेनेई ने बाइडेन प्रशासन के साथ समझौता करने की रुहानी और ज़ारिफ की उत्सुकता को अप्रत्यक्ष तौर पर रोका था।)

चूंकि ईरान का परमाणु शोध और उत्पादन तेजी से बढ़ रहा है और बम बनाने के लिए लगने वाला वक़्त कम होता जा रहा है, ऐसे में बाइडेन प्रशासन पर दबाव बढ़ेगा।

न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा, "अधिकारियों ने कहा कि ज़्यादा चिंताजनक बात यूरेनियम को 60 फ़ीसदी तक संवर्द्धन करने और ज़्यादा उन्नत अपकेंद्रित उपकरण बनाने से ईरान को हासिल हो रहा वैज्ञानिक ज्ञान है, ईरान अब बम बनाने के लिए जरूरी यूरेनियम संवर्द्धन से कुछ ही दूर है।"

इस साल जून से IAEA के अधिकारी पूरी तरह अंधेरे में हैं। जून में तेहरान के साथ नाटान्ज संयंत्र में कैमरा और सेंसर लगाने का समझौता ख़त्म हो गया था। नाटान्ज में ही ज़्यादा उन्नत अपकेंद्रित उपकरण चलाए जा रहे हैं।

ऊपर से यह भी साफ़ है कि रैसी की टीम वार्ता की मेज पर ज़्यादा कठोर होगी। यहां तक कि ईरान नई मांग भी कर सकता है। क्या अब JCPOA को पुनर्जीवन अब कोई मायने रखता है?

ट्रंप प्रशासन के अधिकतम दबाव को भुगतने के बाद अब ईरान ज़्यादा बेहतर स्थिति में है। अंतरराष्ट्रीय स्थितियां भी उसके पक्ष में बन रही हैं। रूस और चीन के साथ बढ़ती साझेदारी से ईरान को कूटनीतिक गहराई हासिल हुई है। अब ईरान को अलग-थलग करना संभव नहीं है, ना ही उसके ऊपर सैन्य कार्रवाई करना बुद्धिमानी भरा कदम होगा।

इसमें कोई शक नहीं है कि विएना वार्ता का स्वागत करने वाले रैसी ज़्यादा कठोर सत्यापन और नए समझौते में अमेरिका की ज़िम्मेदारियों को ज़्यादा बेहतर ढंग से लागू करने पर जोर देंगे। यह उनकी न्यूनतम मांग दिखाई पड़ती है, जिसके ऊपर वे कोई समझौता नहीं करेंगे।

क्या बाइडेन ऐसा कर पाएंगे? बाइडेन प्रशासन कमजोरी के संकेत दिखा रहा है। दूसरी तरफ़ रैसी को पद दिया जाना, नेतृत्व के स्तर पर ईरान में ज़्यादा एकजुटता दिखा रहा है, जो 1990 के बाद के राष्ट्रपति कार्यकालों में कम ही नज़र आ रही थी।

ऐसी असामान्य स्थितियों का राज्यनीति में दिखावा हो ही जाता है। इतना तय है कि अनसुलझे ईरान का सवाल अमेरिका के लिए सतह के नीचे घूमता रहता है और यह बाइडेन प्रशासन की विदेश नीति के लिए सबसे ख़तरनाक चुनौती है।

एम के भद्रकुमार पूर्व कूटनीतिज्ञ हैं। वे उज़्बेकिस्तान और तुर्की में भारत के राजदूत भी रह चुके हैं। यह उनके निजी विचार हैं।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

JCPOA: A Bridge too far?

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