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जम्मू-कश्मीर: सुस्त प्रशासन का लोकतांत्रिक प्रक्रिया में बाधा डालना जारी

जिला विकास परिषद (डीडीसी) के चुनावों के लगभग नौ महीने बीत चुके हैं, लेकिन नौकरशाही और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच कामकाजी संगति नहीं बन सकी है। यह होने की बजाय, हम केंद्र शासित प्रदेश के प्रशासन को सभी स्तरों पर विकास कार्यों में एक कठोर हस्तक्षेप करते देखते हैं।
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प्रतिनिधि चित्र। सौजन्य: इंडियन एक्सप्रेस 

केंद्र सरकार ने केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में लगभग दो साल के अंतराल के बाद पिछले वर्ष जिला विकास परिषद (डीडीसी) और पंचायत उपचुनावों की अचानक घोषणा कर राजनीतिक गतिविधियों को फिर से शुरू करने का मार्ग प्रशस्त किया था। तब ये चुनाव संविधान अनुच्छेद 370 और 35A के निरस्त होने के बाद के यहां पसरे राजनीतिक गतिरोध को तोड़ते मालूम हुए थे। इससे लोगों को राहत की कुछ उम्मीद बंधी थी। तब यह भी अनुमान लगाया गया था कि इन चुनावों के संचालन के साथ सार्वजनिक मामलों एवं लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर नौकरशाही का पूर्ण नियंत्रण खत्म हो सकता है। इसलिए कि चुनाव जीत कर आए ये जन प्रतिनिधि शासन में जवाबदेही, पारदर्शिता और उत्तरदायित्व की भावना को निरुपित करेंगे। 

इस अपेक्षा के विपरीत अभी तो हाल यह है कि प्रशासनिक प्रमुख इन जन प्रतिनिधियों के साथ विकास योजनाओं और उन पर आगे के निर्माण-कार्यों पर चर्चा करने की जहमत नहीं उठाते। जम्मू-कश्मीर में बहुप्रचारित त्रिस्तरीय पंचायती राज संस्था नौकरशाही के अहंकार और उसकी मनमानी कार्यशैली की वजह से अब धीरे-धीरे अपना महत्त्व खो रही है। कागजों पर तो इस संस्था को जमीनी स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने वाली संस्था माना जाता है, लेकिन इसके कामकाज में नौकरशाही की बार-बार दखलअंदाजी से उसके अभीष्ट आदर्श दरकिनार हो जाते हैं। प्रशासन के प्रमुख अधिकारी विकास योजनाओं और उसके निर्माण की प्रक्रियाओं के बारे में जनप्रतिनिधियों से विचार-विमर्श नहीं करते। है। दरअसल, अधिकारी तो इसके बारे में जनप्रतिनिधियों को सूचना देना तक गंवारा नहीं करते। 

क्या इन प्रशासनिक प्रमुखों को उनके इस व्यवहार और कार्यशैली के इसके लिए जवाबदेह ठहराया जा सकता है? ऐसा नहीं है कि मौजूदा कानूनी ढांचा उन्हें जनप्रतिनिधियों की ऐसी अनदेखी करने की छूट देता है; बल्कि यह उनका अहंकार और भ्रष्ट आचरण है, जो उनकी पहली प्राथमिकता हो गया है। विगत के प्रगतिशील कानूनों के क्रियान्वयन का वास्तविक सार फाइलों में ही सीमित हुआ पड़ा है। यहां यह उल्लेख करना उचित है कि 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम (1992) के अनुसार, राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों से पंचायत निकायों (हल्का पंचायत, बीडीसी, डीडीसी) को पर्याप्त शक्तियां, जिम्मेदारियां और वित्तीय अधिकार दिया गया है, ताकि इन्हें आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने के हिसाब से योजनाएं तैयार करने और उन योजनाओं को लागू करने के सक्षम बनाया जा सके। इन अधिनियमों द्वारा प्रस्तावित किया गया त्रिस्तरीय पंचायती राज पिछले साल के डीडीसी चुनावों के सफल आयोजन से संपन्न हुआ था। 

दुर्भाग्य से, जिस तरह से जन प्रतिनिधियों की बार-बार उपेक्षा की जाती है, उनसे तो इन अप्रिय और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं के सिलसिले के खत्म होने का निकट भविष्य में कोई संकेत नहीं मिलता है। ऐसे में जम्मू-कश्मीर में शांति और विकास की प्रक्रिया को लेकर केंद्र की छाती पीटना अधिक विडंबनापूर्ण और विरोधाभासी ही लगता है। केंद्र द्वारा यह जोर-शोर से घोषित किया जाता है कि कैसे केंद्र शासित प्रदेश ने बहुत ही कम समय में ही प्रगति की दिशा में एक लंबी छलांग लगाई है। बहरहाल, जनता के प्रतिनिधियों ने मौजूदा व्यवस्था के प्रति खुले तौर पर अपना असंतोष दिखाते हुए यह साबित कर दिया है कि केंद्र का वह प्रचार एकदम झूठा है और सरासर एक धोखा है। 

यह तो जाना-माना तथ्य है कि पंचायती राज संस्था की मूल इकाई ग्राम पंचायत होती है, और इसका सुदृढ़ीकरण स्थानीय विकास और नियोजन में लोगों की भागीदारी से ही होगा। ग्राम सभा और ग्राम पंचायत, पंचायत के समग्र विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसमें लोगों की अधिक से अधिक भागीदारी से ही पारदर्शिता, जवाबदेही, समानता, प्रभावशीलता, दक्षता और जिम्मेदारी आएगी। तब जाकर पंचायती राज संस्था का वास्तविक उद्देश्य अक्षरश: पूरा होगा।

इसके लिए सबसे पहले तो प्रशासन की कार्यशैली में बदलाव लाना होगा। इसकी पहली प्राथमिकता विभिन्न योजनाओं के बारे में जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करना और ग्राम स्तर पर विकास योजनाओं को तैयार करना होनी चाहिए। लेकिन दुर्भाग्य से, पिछले दस्तूर जारी हैं और मुट्ठी भर लोग गांवों के भविष्य की योजनाएं तय करते हैं। 

यह तर्क बार-बार दिया जाता है कि आम जनता के लाभ के लिए जन प्रतिनिधियों और प्रशासनिक प्रमुखों को एक साथ काम करने के लिए परस्पर सामंजस्य-संगति विकसित करने की आवश्यकता है। लेकिन डीडीसी चुनावों के संपन्न हुए लगभग नौ महीने बीतने के बावजूद जमीनी स्तर पर ऐसी पारस्पारिकता देखने को नहीं मिली है। निर्वाचित जनप्रतिनिधियों को कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है: उन्हें उचित आवास की कमी से लेकर अपनी सुरक्षा की चिंता है। जिस पर प्रशासन द्वारा दिखाए जाने वाला उतावलापन उन पर पुरजोर दबाव में रखता है, सो अलग। अनंतनाग जिले के दौरे पर आए लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने कहा था, 'मैंने अनंतनाग जिले के डीडीसी, बीडीसी और पंचायतों के प्रतिनिधियों से चर्चाएं की हैं। मुझे यह जानकर बहुत खुशी हो रही है कि इस क्षेत्र के लोग इतनी सारी चुनौतियों के बावजूद लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए लगातार काम कर रहे हैं।” माननीय अध्यक्ष का यह कथन स्पष्ट रूप से संकेत देता है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधि अत्यंत कठिन वातावरण में लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर मजबूत करने के लिए एवं अपने क्षेत्र के लोगों तक पहुंचने के लिए लगातार कड़ी मेहनत कर रहे हैं। 

लेकिन निर्वाचित प्रतिनिधियों के सामने चुनौतियां बदस्तूर हैं और उन्हें परे धकेल रही हैं। हाल ही में बनिहाल और रामसू प्रखंडों के लगभग 50 सरपंचों और पंचों ने संबंधित खंड विकास परिषद के अध्यक्षों को अपना इस्तीफे सौंप दिए हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी अनदेखी की जा रही है, उन्हें विकास कार्यों में अनावश्यक देरी और हस्तक्षेप को सहन करना पड़ा है। इस कारण उनके लिए 73वें संविधान संशोधन अधिनियम का तथाकथित क्रियान्वयन क्रूर मजाक साबित हो रहा था।

दरअसल, मुद्दा केवल निर्वाचित प्रतिनिधियों के इस्तीफे का नहीं है जो स्पष्ट रूप से लोकतंत्र के लिए हानिकारक है, बल्कि नौकरशाही का जनप्रतिनिधियों के साथ दुर्व्यवहारों का है, जो लोकतंत्र का मजाक उड़ाती है। यदि नौकरशाही के अधिनायकवादी तौरे-तरीके पर अंकुश नहीं लगाया गया, तो जम्मू-कश्मीर में पंचायती राज व्यवस्था का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा।

(लेखक सीपीआइ (एम) के नेता हैं और वर्तमान में कुलगाम से डीडीसी के सदस्य हैं।)

अंग्रेजी में मूल रूप से प्रकाशित लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें 

J&K: An Inert Administration Continues to Obstruct the Democratic Process in the UT

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