Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्यों कोर्बिन के चुनावी एजेंडे का मतलब ‘दौलत के सृजन पर हमले’ में नहीं मिलता?

ख़तरे का कारण स्वयं पूंजीपतियों के द्वारा उनके जानबूझकर के विरोध में छिपा है। यह किसी अर्थशास्त्र के एजेंडे से नहीं जुड़ा है।
Jeremy Corbyn
छवि सौजन्य: द जेवीस क्रॉनिकल 

"मुख्यधारा" के अर्थशास्त्र को देखकर ऐसा लगता है जैसे वह बुर्जुआ आर्थिक व्यवस्था के नियमों को समझने में असमर्थ है; और इसका सबसे बड़ा प्रमाण और कहीं नहीं बल्कि राजकोषीय नीति से संबंधित मामलों में कहीं अधिक स्पष्टता से झलकता है। जिसकी यह मान्यता रही है कि निजी ऋण क्षमता को घटाकर राजकोषीय घाटा, निजी निवेश की “भीड़” को बाहर करने का काम करता है। यह पहले से माने बैठा है कि किसी भी अवधि में अर्थव्यवस्था में बचत का एक निश्चित ज़रिया है, जिसमें से अगर सरकार कहीं ज़्यादा (राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिए) निकाल लेती है, तो उसी मात्रा में निजी क्षेत्र के पास कम संसाधन रह जाते हैं, जिससे निजी निवेश के क्षेत्र में कमी होने लगती है।

इस तर्क में चूक इस बात में है कि बचत का कोई निश्चित साधन नहीं होता है। जब कुल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में वृद्धि दर्ज होगी तो इसका असर बचत में वृद्धि के रूप में भी नज़र आता है। और चूंकि सरकारी व्यय जो उधार (एक राजकोषीय घाटा) द्वारा वित्तपोषित होता है,  वह सकल मांग में वृद्धि लाने का काम करता है। और इस प्रकार राजकोषीय घाटे के ज़रिये सकल उत्पादन और रोज़गार (पूंजीवादी अर्थव्यवस्था माँग-बाधित व्यवस्था है, युद्ध के समय को छोड़कर) के साथ बचत के साधनों में भी बढ़ोत्तरी होती जाती है।

वास्तव में अगर हम इसे सामान्य भाषा में कहें तो, एक बंद अर्थव्यवस्था में जहाँ बिना किसी विदेशी लेनदेन के,  बचत के संसाधन तब तक बढ़ते रहते हैं, जहाँ तक कि निजी हाथों में निवेश पर बचत की मात्रा राजकोषीय घाटे के बराबर रहती है। इसे दूसरे शब्दों में कहें तो, एक राजकोषीय घाटा वह है जो किसी निश्चित बचत पूल से संसाधनों को जुटाने के बजाय, "ख़ुद को वित्तपोषित करता है",  वह स्वंय की राशि के बराबर इन संसाधनों के पूल को बढ़ाकर यह करता है।

इसी प्रकार का मिथ्या भ्रम “मुख्यधारा” के अर्थशास्त्र में सरकारी ख़र्च के लिए वित्तपोषण की व्यवस्था हेतु पूंजीपतियों पर टैक्स लगाने के मुद्दे पर दोहराया जाता है। उदहारण के लिए चलिए यह मान लेते हैं कि यदि सरकार 100 रुपये ख़र्च करती है और इसके लिए संसाधन जुटाने के लिए पूंजीपतियों के मुनाफ़े पर 100 रुपये की सीमा तक बढ़ाकर टैक्स वसूलती है।  तो इसपर "मुख्यधारा" अर्थशास्त्र का यह तर्क होता है कि पूंजीपतियों का मुनाफ़ा 100 रुपये से नीचे चला गया है। दूसरे शब्दों में "मुख्यधारा" अर्थशास्त्र इस पूरी प्रक्रिया को निम्नानुसार देखता है: सरकार ने मुनाफ़े से 100 रुपये झटक लिये, जिसके चलते इस राशि के बराबर के कर-पश्चात लाभ को घटा दिया है , और फिर इस राशि का उपयोग अपने ख़र्चों को पूरा करने के लिए करती है।

हालाँकि ऐसा मानना  पूरी तरह से ग़लत है। यदि हम चीज़ों को सामान्य ढंग से समझने के क्रम को जारी रखें और यह मानकर चलते हैं कि हम बिना किसी विदेशी लेनदेन के साथ, एक बंद अर्थव्यवस्था में जी रहे हैं (वैकल्पिक रूप से, हम दोनों ही स्थिति में मानकर चलते हैं, जिसका ज़िक्र यहाँ पर और इस मामले में पहले चर्चा कर चुके हैं कि- भुगतान संतुलन के मामले में चालू वित्त घाटे में कोई बदलाव नहीं होता है) और श्रमिक लोग जितना कमाते हैं उस सबका उपभोग कर लेते हैं। इसका अर्थ है कि ऊपर उल्लिखित यह सारी प्रक्रिया कर-पश्चात मुनाफ़े को पहले की तुलना में पूरी तरह से अपरिवर्तित छोड़ देगी, बजाय कि ऐसा करना कर-पश्चात मुनाफ़े में कमी लाएगा जैसा कि "मुख्यधारा" अर्थशास्त्र का मानना है।

इसकी वजह स्पष्ट है। सरकार द्वारा 100 रुपये के व्यय से कुल मांग में वृद्धि पैदा होती है, जो उत्पादन और रोज़गार को बढ़ाने में कारगर साबित होता है। लेकिन मामला यहीं पर जाकर ख़त्म नहीं होता है। उत्पादन में इस वृद्धि से उन क्षेत्रों में मज़दूरी और लाभ की दर में बढ़ोत्तरी होती है, जिन वस्तुओं का उत्पादन बढ़ा है, और जो फिर से और (उपभोक्ता वस्तुओं के लिए) मांग में वृद्धि पैदा करने का काम करते हैं, और इस प्रकार उत्पादन और रोज़गार में वृद्धि लाने का ज़रिया बनते हैं। उत्पादन वृद्धि के ऐसे क्रमिक दौर के माध्यम से, पूर्व-कर लाभ में भी समग्र रूप से वृद्धि होती है, और यह दौर तब तक जारी रहता है जब तक कि पूर्व-कर लाभ एक ऐसी राशि तक नहीं बढ़ जाता है, जैसे कि मुनाफ़े पर 100 रुपये का टैक्स। और इस प्रकार यह पहले के मुक़ाबले कर-पश्चात मुनाफ़े को बिल्कुल अपरिवर्तित छोड़ देगा। और इसलिए लाभ पर टैक्स लगाने से, यह मुनाफ़े को कम करने के बजाय, कर-पश्चात मुनाफ़े को पूरी तरह से अपरिवर्तित बने रहने देता है।

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में आय की सिर्फ दो श्रेणियां हैं - मज़दूरी और मुनाफ़ा –जिसमें समस्त मज़दूरी का उपभोग कर लिया जाता है, के लिए निम्नलिखित सूत्र होना चाहिए:

टैक्स के बाद लाभ = पूंजीवादी उपभोग + पूंजीपतियों द्वारा निवेश + राजकोषीय घाटा - वर्तमान घाटा (भुगतान संतुलन पर) b.o.p. (A)।

यदि आय की अन्य श्रेणियां हैं, जैसे कि स्वरोज़गार के क्षेत्र में (जैसा कि वास्तव में भारत जैसे देश में हैं) तो इस सूत्र को संशोधित करना होगा; लेकिन इसके सामान्य निष्कर्ष मान्य हैं। एक बंद अर्थव्यवस्था (या शून्य वर्तमान शेष) को मानकर, हम पिछले कार्यकाल की उपेक्षा कर रहे होते हैं। किसी भी अवधि में पूंजीपतियों के द्वारा उपभोग और निवेश को जो कि पहले से लिए गए निर्णयों पर आधारित होती है, को एक दी गई राशि के रूप में माना जा सकता है।

इसलिए, यदि सरकार अपने बजट को संतुलित रखती है, जैसे कि यदि राजकोषीय घाटा शून्य है, तो सरकार चाहे कितना भी ख़र्च करे (यहाँ पर वह उतना ही ख़र्च करेगी, जितना उसने कर वसूला है), तो इस मामले में टैक्स के बाद का लाभ अपरिवर्तित रहता है। वे अपरिवर्तित रहते हैं, चाहे टैक्स किसी से भी वसूले जाएं। यदि उन्हें श्रमिकों पर लगाया जाता है, तो कर-पश्चात लाभ अपरिवर्तित रहते हैं, लेकिन कुल मांग और उत्पादन में कोई वृद्धि नहीं होती है (क्योंकि इस मामले में सरकार अब उतना ही टैक्स वसूलती है जितना श्रमिक त्यागते हैं) ।  और इसकी जगह यदि पूंजीपतियों पर टैक्स लगाया जाता है, तो उस मामले में भी कर-पश्चात लाभ अपरिवर्तित रहता है, लेकिन कुल मांग और उत्पादन में शुद्ध वृद्धि देखने को मिलती है।

यहाँ तक कि जब लाभ पर टैक्स वसूलकर सरकार भारी मात्रा में ख़र्च करती है और यदि कर-पश्चात लाभ की दर अपरिवर्तित बनी रहती है। इसका अर्थ यह है कि भले ही निवेश के फैसले कर-पश्चात लाभ द्वारा निर्धारित किये जाते हों, किन्तु पूँजीपतियों द्वारा निवेश के फैसलों पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। और यदि उनके निवेश के फैसले कर-पश्चात मुनाफ़े से नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था में उसकी क्षमता के उपयोग की मात्रा से संचालित हो रहे हों, तो चूंकि सरकार व्यय लाभ पर टैक्स लगाकर वित्तपोषित की जाती है, यह कुल मांग और उत्पादन में वृद्धि पैदा करने का काम करता है।  और इस प्रकार पहले से स्थापित उपकरणों की क्षमता उपयोग में वृद्दि के ज़रिये पूंजीपतियों के निवेश में इजाफ़ा होना चाहिए, जोकि अन्यथा नहीं हो रहा होता।

इसी प्रकार, मुनाफ़े पर टैक्स लगाने के बजाय यदि सरकारी व्यय को पूंजीपतियों की दौलत पर टैक्स लगाकर वित्तपोषित किया जाता है तो इस स्थिति में भी कर-पश्चात लाभ अपरिवर्तित बना रहेगा। जैसा कि ऊपर (A) से स्पष्ट है (चूंकि सरकारी व्यय उसी अनुपात में करों को लागू कर संतुलित है, इसलिए राजकोषीय घाटा अपरिवर्तित रहता है)। क्योंकि किसी दौलत पर ही वेल्थ टैक्स लगाया जाता है चाहे वह किसी भी रूप में क्यों न हो। क्योंकि यह इस प्रकार है जब किसी धन को रुपयों की शक्ल में तिजोरी में रखें तो इसमें कोई वृद्धि नहीं होती। लेकिन इसपर टैक्स का भुगतान उतनी ही मात्रा में करना होता जितना कि पूँजी स्टॉक के रूप में धन मौजूद है, जहाँ लाभ की दर भी अर्जित हो रही होती है।

इन परिस्थितियों में पूंजीपति वर्ग निश्चित तौर पर अपनी दौलत को धन के रूप में रखने के बजाय पूंजीगत स्टॉक के रूप में निवेश करना पसंद करेंगे, जो कि यदि बाकी अन्य चीजें वैसी ही रहे तो निवेश में वृद्धि के रूप में इसका असर दिखेगा, जो अन्यथा नहीं होता। इसलिये, ना ही धन-दौलत पर टैक्स के ज़रिये और न ही मुनाफ़े पर टैक्स वसूलकर यदि सरकार अपनी आय को ख़र्च करती है तो पूंजीपतियों द्वारा सिर्फ आर्थिक आधार पर आपत्ति की संभावना नहीं की जा सकती है।

ये वे प्राथमिक प्रस्ताव हैं जिन्हें कई दशक पहले जाने-माने पोलिश मार्क्सवादी अर्थशास्त्री मिशेल कलेच्की द्वारा स्पष्ट किया गया था। लेकिन ऐसा लगता है कि इन्हें अभी भी "मुख्यधारा" के अर्थशास्त्र द्वारा समझा नहीं गया है। यह अक्सर इस दावे से उत्पन्न होता है, जिसे अक्सर आगे प्रस्तावित किया जाता है  कि पूंजीपतियों के ऊपर टैक्स थोपने का निर्णय आम तौर पर निजी निवेश को हतोत्साहित करता है। वास्तव में इस दावे को हाल ही में द फाइनेंशियल टाइम्स ऑफ़ लंदन (जो ब्रिटिश वित्तीय पूंजी के विचारों का प्रतिनिधित्व करता है) द्वारा आगे बढ़ाया गया है, जो अपनी बात को साबित करने के लिए ब्रिटिश लेबर पार्टी के घोषणापत्र को दर्शाता है जो जेरेमी कॉर्बिन के नेतृत्व में संसदीय चुनाव लड़ने जा रही है। द फाइनेंशियल टाइम्स के अनुसार, "व्यापार पर हमले का अर्थ, संपत्ति सृजन पर हमला करना है"।

इसी प्रकार के विचार वित्तीय पूँजी द्वारा तब भी रखे गए थे जब जॉन मेनार्ड कीन्स, जिन्होंने "मांग के प्रबंधन" में राज्य के हस्तक्षेप की वकालत की थी।  तब जब वे 1930 के दशक में अपने विचारों की व्याख्या कर रहे थे, तो उस समय भी असल में, वित्तीय पूंजी ने कीन्स के सुझावों का विरोध किया था, भले ही कीन्स का जोर समाजवाद के खतरे से पूंजीवाद को बचाने से संबंधित था। हालाँकि कीन्स का मानना था कि वित्तीय पूँजी द्वारा उनके विचारों से विरोध का कारण उसकी अज्ञानता से उछला; और जब एक बार उनके विचारों के प्रवाह को समझ लिया जायेगा तो उनका यह विरोध स्वतः समाप्त हो जाएगा। लेकिन ऐसा स्पष्ट रूप से नहीं हुआ है, जो यह बताता है कि इस विरोध के पीछे समझ के अलावा भी कुछ और बात है।

1943 के अपने एक लेख में कलेच्की ने फिर से एक बार सिर पर कील ठोंकने का काम किया था जब उन्होंने बताया कि राज्य के हस्तक्षेप के सवाल पर पूंजीपतियों के विरोध का कारण किसी वैध आर्थिक वजहों से नहीं, बल्कि उसके "वर्गीय स्वाभाव" के चलते होता है। यह "वर्गीय स्वाभाव" उन्हें समझाता है कि सरकार द्वारा, पूंजीपतियों को और अधिक रियायतें देने के ज़रिये और उन्हें और अधिक निवेश के लिए प्रोत्साहित करने के (जैसा कि नरेंद्र मोदी की सरकार भी कर रही है) क़दम उठाने के बजाय सकल मांग में वृद्धि जारी रखने के लिए और वृहद मात्रा में राज्य द्वारा व्यय के माध्यम से रोज़गार में वृद्धि की नीतियाँ असल में पूँजीवाद की सामाजिक वैधता को कमज़ोर बनाने का काम करती हैं।

यह कोई मजबूत आर्थिक तर्क नहीं है, लेकिन अपने वर्गीय स्वभाव के चलते, जो पूंजीपतियों को ऐसे आयोजनों के विरोध के लिए प्रेरित करती रहती हैं, जैसा कि जेरेमी कॉर्बिन आगे रख रहे हैं। यदि कॉर्बिन के अगले ब्रिटिश प्रधानमंत्री बनने की स्थिति में निजी निवेश समाप्त होने लगेगा, तो इसकी वजह अर्थशास्त्र में नहीं होगी,  बल्कि यह "वर्गीय स्वभाव" होगा, जिसने "निवेश पर चोट" के रूप में उनके विरोध को प्रेरित किया होगा।

यह सच है कि एक खुली अर्थव्यवस्था होने के नाते ब्रिटेन में  कॉर्बिन की योजनाओं के कारण उसे भुगतान संतुलन के मामले में कुछ दुष्परिणामों को झेलना पड़ सकता है,  जिनकी जांच की जानी चाहिए। लेकिन द फाइनेंशियल टाइम्स की आलोचना भुगतान संतुलन के तर्कों पर आधारित न होकर "धन सृजन" के लिए उत्पन्न होने वाले खतरों पर आधारित है। ये खतरे पूँजीपतियों द्वारा जानबूझकर विरोध खड़ा करने की वजह से उत्पन्न होते हैं, न कि अर्थशास्त्र में स्वयं के अजेंडे के रूप में ।

जब पूंजीपतियों द्वारा इस तरह से जानबूझकर विरोध खड़े किये जाते हैं तो कॉर्बिन को निवेश को बनाये रखने के लिए सार्वजनिक क्षेत्र पर निर्भर होने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। उनकी योजना जो आरंभ में  "कल्याणकारी पूंजीवाद" तक ही सीमित है, को फिर खामखाह पूंजीपतियों के इस विरोध के चलते कल्याणकारी पूंजीवाद की संकल्पना से परे जाकर सोचने पर मजबूर करेगा।

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Why Corbyn’s Agenda Does Not Translate to ‘Attack on Wealth Creation’

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest