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झारखंड : जन संगठनों को 'संदिग्ध' घोषित करने पर गुस्सा, आंदोलन की चेतावनी

पुलिस द्वारा नामजद सभी सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से पुलिस के रवैये के ख़िलाफ़ कड़ा विरोध दर्ज कर रहे हैं।
JHarkhand

झारखंड राज्य गठन के समय से ही राज्य पुलिस की भूमिका को लेकर अक्सर सवाल उठते रहे हैं। आलम तो ये है कि कई बार उसे “राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग” से लेकर राज्य के हाई कोर्ट और सीबीआई तक के तीखे सवालों का सामना करना पड़ा है जिसका हालिया उदाहरण है, 2015 में प्रदेश के लातेहार जिला में हुए चर्चित बकोरिया पुलिस मुठभेड़ कांड। इसमें पुलिस की संदिग्ध भूमिका को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए झारखंड हाई कोर्ट ने काफी गंभीरता से संज्ञान लिया। राज्य पुलिस से संतोषजनक जवाब नहीं मिलने पर पूरे मामले की नए सिरे से सीबीआई द्वारा जांच करने का आदेश दिया। ख़बरों के अनुसार जांच के दौरान सीबीआई द्वारा पुलिस का झूठ पकड़ने का मामला सार्वजनिक हुआ था।

दो दिन पूर्व ही झारखंड पुलिस ने फिर एक ऐसा कारनामा किया है जिसे लेकर जन मुद्दों पर सक्रिय रहनेवाले प्रदेश के सारे सामाजिक जन संगठन और एक्टिविस्ट बेहद नाराज हैं। 21 सितंबर को उक्त सभी सामाजिक जन संगठनों के प्रतिनिधिमंडल ने राज्य पुलिस के स्पेशल ब्रांच के आईजी से मुलाक़ात की। राज्य के डीजीपी से मिलने की मांग पर डीजीपी ने आईजी को नियुक्त किया था। उस प्रतिनिधि मंडल ने पुलिस महानिदेशक को संबोधित मांग पत्र सौंपा जिसमें मामले का पूरा विवरण है। साथ ही, इस मामले को लेकर मीडिया में आई ख़बरों का खंडन व स्पष्टीकरण की मांग भी की।
मांग पत्र में कहा गया है कि 20 सितंबर को राजधानी से प्रकाशित होने वाले एक अखबार और न्यूज़ पोर्टल में “64 संगठनों की होगी जांच, प्रतिबंधित भाकपा माओवादी से संबंध होने का संदेह” की हेडिंग से खबर प्रकाशित की गई। खबर में यह भी बताया गया था कि झारखंड पुलिस की ओर से स्पेशल ब्रांच को इन 64 संगठनों की जांच करने का आदेश दिया गया है। हालांकि इस न्यूज़ रिपोर्ट में ख़बर के सूत्र का हवाला नहीं दिया गया है लेकिन पिछले कुछ दिनों से स्पेशल ब्रांच के पुलिस अधीक्षकों व उपाधीक्षकों को भेजा गया विभागीय पत्र का एक हिस्सा व इन संगठनों की सूची सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है। जिसमें इन संगठनों को भाकपा माओवादी के अग्रसंगठन होने का संदेह किया गया है।

पुलिस को दिए गए मांग-पत्र के माध्यम से सभी जन संगठनों (जो इसके हस्ताक्षरी हैं) ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यह भी कहा है कि वे अचंभित और व्यथित हैं। क्योंकि इन सामाजिक जन संगठनों द्वारा दशकों से निरंतर प्रदेश के वंचित आदिवासी, दलित, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों व वंचित समुदायों के संवैधानिक अधिकारों के लिए संघर्ष किया जाता रहा है। साथ ही जल, जंगल, ज़मीन के सवालों, विस्थापन के विरुद्ध, सांप्रदायिक हिंसा के विरुद्ध सौहार्द के लिए, मनरेगा-खाद्य सुरक्षा-पेंशन इत्यादि गरीबों के सामाजिक-आर्थिक सवालों, प्रवासी मजदूरों की समस्या, आदिवासी स्वशासन व्यवस्था इत्यादि मुद्दों के साथ-साथ मानवाधिकार उल्लंघन, मॉब लिंचिंग, फर्जी गिरफ्तारी-एनकाउंटर जैसे सवालों पर आवाज़ उठाते रहे हैं।

ये संगठन पीड़ितों व ज़रूरतमंदों को उनका हक़-इंसाफ दिलाने के लिए सामाजिक व कानूनी सहयोग देने का काम करते रहे हैं। आमजन से जुड़े तमाम मुद्दों व मामलों को सार्वजनिक करना, मीडिया के माध्यम से आवाज़ उठाना, सरकार व प्रशासन के संज्ञान के लिए उनसे वार्ता करना जैसे कार्य हमेशा किये जाते रहे हैं। उक्त सभी जन गतिवधियां हमेशा शांतिपूर्ण ढंग से और लोकतांत्रिक तरीके से की गई हैं। इन संगठनों द्वारा उठाये गए कई मुद्दों पर मुख्यमंत्री से लेकर सरकार और प्रशासन ने संज्ञान लिया है।

उक्त परिप्रेक्ष्य में इन सामाजिक संगठनों पर भाकपा माओवादी से जुड़े होने का आरोप लगाना, इस प्रदेश के सभी आदिवासी, दलित, पिछड़ों, अल्पसंख्यकों और वंचित समुदायों के जन अधिकारों की अवधारणा पर ही सवाल करने जैसा है। ऐसा प्रतीत होता है कि राज्य पुलिस नहीं चाहती कि लोग अधिकारों के लिए संवैधानिक संघर्ष करें एवं अधिकारों के उल्लंघन के विरुद्ध शांतिपूर्ण लोकतांत्रिक विरोध दर्ज करें। लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने वाले संगठनों में दमन का माहौल पैदा करने की मंशा झलकती है। यह लोकतंत्र को सीमित कर देने की दिशा में उठाया गया क़दम प्रतीत होता है। जो पुलिस की मंशा पर भी गंभीर सवाल खड़ा करता है। बिना किसी सबूत के ऐसे सभी संगठनों पर भाकपा माओवादी का अग्रसंगठन होने का संदेह करना अत्यंत चिंतनीय है। मूल सवाल है कि इस सूची को बनाने का तथ्याधार क्या है।

मांग पत्र पर हस्ताक्षर करने वाले सभी संगठनों ने एक स्वर से पुलिस महानिदेशक से मांग की है कि मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित इस खबर की पुष्टि की जाए। अगर राज्य पुलिस द्वारा ऐसी सूची बनायी गयी व जन अधिकारों पर संवैधानिक दायरे में शांतिपूर्ण ढंग से संघर्षरत जन संगठनों पर इस प्रकार का आरोप लगाया जा रहा है तो राज्य पुलिस तुरंत इस सूची को खारिज़ करे। संबंधित स्थानीय पुलिस पदाधिकारियों को सूचित करे एवं लोकतंत्र बहाल करने में अपनी भूमिका निभाए।

प्रतिनिधि मंडल से आईजी ने कहा है कि इससे संबंधित “स्पष्टीकरण” एक सप्ताह में प्रकाशित किया जाएगा। सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधिमंडल द्वारा मांग-पत्र की प्रतिलिपि मुख्यमंत्री के प्रधान सचिव और राज्य के गृह सचिव को भी दी गई है।

झारखंड पुलिस द्वारा “संदेहास्पद” संगठनों की सूची में वामपंथी राष्ट्रीय युवा संगठन ‘इंकलाबी नौजवान सभा’ (RYA) का भी नाम शामिल किये जाने का संगठन ने तीखा विरोध किया है। 21 सितंबर को ही RYA के झारखंड प्रदेश अध्यक्ष और सचिव ने प्रेस वार्ता कर चेतावनी दी है कि यह उनके संगठन को बदनाम करने के साथ-साथ राज्य के युवाओं के आंदोलन को कमज़ोर करने की साजिश है। इसके ख़िलाफ़ राज्य भर में आंदोलन तेज़ किया जाएगा।

युवा नेताओं ने प्रेस वार्ता के माध्यम से पुलिस द्वारा लगाए गए आरोपों की कड़ी भर्त्सना करते हुए राज्य के मुख्यमंत्री, गृह सचिव व पुलिस डीजीपी को संगठन की ओर से पत्र भी प्रेषित किया है।

उक्त पूरे प्रकरण का पटाक्षेप किस रूप में होगा यह स्पष्ट होना बाकी है लेकिन सच है कि विगत दिनों झारखंड पुलिस की गलत कार्यशैली के ऐसे कई गंभीर और संगीन मामले सामने आए हैं जिसके ख़िलाफ़ विधानसभा के सदन से लेकर प्रदेश की सड़कों पर महीनों ज़ोरदार आंदोलनों का सिलसिला चला है।

प्रदेश की पिछली भाजपा सरकार के शासन काल में ही दर्जनों सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत खूंटी जिला के कई आदिवासी गावों के सैकड़ों बेगुनाह लोगों पर फर्जी केस कर “राजद्रोह” का मुकदमा थोप दिया गया था। बाद में जब हेमंत सोरेन की सरकार बनी तो उसने कैबिनेट फैसले से उन सभी फर्जी मुकदमों को निरस्त्र कर प्रभावितों को राहत दी।

उधर, पुलिस द्वारा नामजद सभी सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधि मीडिया व सोशल मीडिया के माध्यम से पुलिस के रवैये के खिलाफ कड़ा विरोध करते हुए पूछ रहे हैं कि “लिस्ट तैयार करने का सच क्या है” तथा “सबूत दिखाओ”। कुछ संगठनों ने तो झारखंड पुलिस के खिलाफ कोर्ट में मानहानि का मुकदमा करने की भी बात की है। कुल मिलाकर मामला काफी तूल पकड़ता दिख रहा है।

(लेखक झारखंड के स्वतंत्र पत्रकार हैं।) 

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