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झारखंड परिणाम: ये सिर्फ़ मुख्यमंत्री रघुवर की हार नहीं, बीजेपी की 'अजेय' बताई जा रही चुनावी रणनीति की भी हार है

झारखंड में विधानसभा चुनाव की मतगणना जारी है। दोपहर बाद के रुझानों के बाद बीजेपी सत्ता से बाहर दिख रही है और जेएमएम की अगुआई वाले महागठबंधन के सरकार बनाने का रास्ता साफ़ होता दिख रहा है।
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साभार : प्रभात

खनिज उत्पादों के लिए मशहूर झारंखड में हुए विधानसभा चुनावों के परिणाम अब लगभग साफ हो गए हैं। पिछले 5 सालों से सत्ता पर काबिज बीजेपी सत्ता से बाहर होती दिख रही है। यह उलटफेर इतना बड़ा है कि नौ चरणों की गणना के बाद भाजपा के विद्रोही उम्मीदवार सरयू राय ने जमशेदपुर (पूर्व) सीट पर मुख्यमंत्री रघुवर दास को लगभग पांच हजार मतों से पीछे छोड़ दिया है।

पिछले दिनों हुए महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणामों की तरह झारखंड में भगवा पार्टी बहुमत से दूर हो गई है। अगर इन रूझानों का विश्लेषण किया जाय तो कई तरह के ट्रेंड उभरकर सामने आ रहे हैं।

सबसे पहली बात यह कि ये सिर्फ राज्य की सरकारों की हार नहीं है यह बीजेपी की चुनावी रणनीति की भी हार है। यह उस चुनावी रणनीति की हार है जिसे कुछ समय पहले तक अजेय बताया जा रहा है। पन्ना प्रमुख, सोशल मीडिया मैनेजमेंट, हिंदुत्व, स्थानीयता की जगह केंद्रीय मुद्दे, नरेंद्र मोदी को हर चुनाव में चेहरा बनाने का आइडिया लगातार फ्लाप हो रहा है।

बीजेपी ने इन सभी राज्यों में केंद्रीयकृत व्यवस्था में चुनाव लड़ा था। इन सभी राज्यों में पहले बीजेपी की सरकार थी और इन सभी जगहों पर स्थानीय वरिष्ठ नेताओं की जगह दिल्ली की पसंद के नेताओं को तवज्जो दिया गया था।

इन सभी जगहों पर चुनावी रणनीति में बीजेपी ने स्थानीय मुद्दों और स्थानीय नेताओं की जगह केंद्रीय मुद्दों और नरेंद्र मोदी के चेहरे पर ही फोकस रखा। और इन सभी जगहों पर अब बीजेपी सरकार से बाहर हो गई है। ऐसे में सबसे पहले यह उस चुनावी रणनीति की हार है जिसके बल पर अमित शाह को उनके समर्थक चाणक्य बताया करते थे।

अगर झारखंड की बात करें तो यहां बीजेपी की हार के कई दूसरे कारण भी हैं। सहयोगी दलों से गठबंधन तोड़कर अकेले लड़ने का दांव बीजेपी के लिए उल्टा पड़ा। इस बार बीजेपी ने आजसू से अपना गठबंधन तोड़कर चुनाव लड़ा। आपको बता दें कि पिछले 19 सालों यानी झारखंड का गठन होने के बाद से दोनों दल साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे थे। इतना ही नहीं बीजेपी ने एक अन्य सहयोगी पार्टी एलजेपी के भी गठबंधन का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। बाद में एलजेपी को अकेले चुनाव लड़ना पड़ा।

वहीं, इसके उलट विपक्ष ने एक महागठबंधन बनाकर चुनाव लड़ा। हालांकि उसमें बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम शामिल नहीं हुई थी लेकिन जेएमएम की अगुवाई में कांग्रेस और आरजेडी ने विपक्ष का एक मजबूत गठबधंन बनाया। और बीजेपी के अकेले सरकार बनाने के मंसूबों पर पानी फेर दिया। आपको बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव में तीनों ही दल अलग-अलग चुनाव लड़े थे लेकिन इस बार कांग्रेस ने महाराष्ट्र और हरियाणा से सबक सीखते हुए जेएमएम और आरजेडी के साथ महागठबंधन बनाया।

कांग्रेस को इसका फायदा भी मिला। दरअसल कांग्रेस ने अक्टूबर 2019 में ही झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व वाले झारखंड मुक्ति मोर्चा को बड़े भाई के तौर पर स्वीकार कर लिया था। कांग्रेस ने स्पष्ट कर दिया था कि उसे राज्य में हेमंत सोरेन को सीएम प्रत्‍याशी के तौर पर स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है।

साथ ही स्थानीय स्तर पर कांग्रेस के नेता भले ही चुनावी रण में मजबूती से जुटे हुए थे लेकिन केंद्रीय नेताओं ने कम ही हस्तक्षेप किया। राहुल और प्रियंका ने गिनीचुनी रैलियां की। इससे बीजेपी को चुनाव को मोदी बनाम राहुल बनाने में परेशानी हुई। चुनाव मोदी बनाम हेमंत सोरेन पर ही टिका रहा। निसंदेह इस विधानसभा चुनाव के हीरो हेमंत सोरेन हैं। पहली बार वह शिबू सोरेन के बेटे की छवि से बाहर निकलकर मुख्यमंत्री पद के दावेदार के रूप में चुनाव लड़ रहे थे और उन्होंने एक बड़ी सफलता अर्जित की है।

इसी तरह बीजेपी को दूसरा नुकसान सरयू राय जैसे नेताओं के पार्टी छोड़ने और अर्जुन मुंडा जैसे दूसरे वरिष्ठ नेताओं के शांत बैठने का भी रहा है। सरयू राय अभी मुख्यमंत्री रघुवर दास से आगे तो चल ही रहे हैं। जानकारों का कहना था सरयू राय का बाहर जाना पूरे कोल्हान क्षेत्र में बीजेपी को नुकसान पहुंचाएगा।

तो वहीं, अर्जुन मुंडा के ज्यादा सक्रिय न रहने से पार्टी के पास आदिवासी चेहरे की कमी हो गई। आपको बता दें कि झारखंड में 26.3 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है और 28 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। महागठबंधन ने जेएमएम के आदिवासी नेता हेमंत सोरेन को सीएम पद का उम्‍मीदवार बनाया वहीं बीजेपी की ओर से गैर आदिवासी समुदाय से आने वाले रघुवर दास दोबारा सीएम पद के उम्मीदवार रहे।

झारखंड के आदिवासी समुदाय में रघुवर दास की नीतियों को लेकर आदिवासियों में काफी गुस्‍सा था। आदिवासियों का मानना था कि रघुवर दास ने अपने 5 साल के कार्यकाल के दौरान आदिवासी विरोधी नीतियां बनाईं। खूंटी की यात्रा के दौरान रघुवर दास के ऊपर आदिवासियों ने जूते और चप्‍पल फेंके थे। बीजेपी का एक बड़ा तबका अर्जुन मुंडा को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने की मांग कर रहा था लेकिन केंद्रीय नेतृत्व के आशीर्वाद से रघुवर को दोबारा मौका मिला। बीजेपी का यह दांव उल्टा ही पड़ा है।

इसके अलावा भ्रष्टाचार, किसानों की समस्या, भूमि अधिग्रहण कानून, बेरोजगारी, आदिवासियों के अधिकार, मॉब लिंचिंग, भूख से मौत के कथित मामले, महंगाई, रोजगार, पत्थलगड़ी जैसे राज्य के वास्तविक मुद्दों को एड्रेस न करने की नीति ने भी बीजेपी को नुकसान पहुंचाया। "अबकी बार 65 पार" के अतिआत्मविश्वासी नारे के नशे में चूर बीजेपी के नेता इन मुद्दों को चुनाव के दौरान मुद्दा मानने से इनकार करते रहे। पूरी पार्टी भूख से मौत और लिंचिंग के मामले को सही तरीके से एड्रेस करने के बजाय इनका मज़ाक बनाती रही। चुनाव में भले ही ये मसले बड़े पैमाने पर वोट दिलाने में कामयाब नहीं रहे लेकिन वोट काटने में इनकी भूमिका जरूर रही।

इन वास्तविक समस्याओं के उलट बीजेपी के नेता से लेकर कार्यकर्ता व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ज्ञान ही जनता और मीडिया में बतियाते रहे। इसमें धारा 370, राम मंदिर, हिंदुत्व, सर्जिकल स्ट्राइक जैसी बातें प्रमुख रही। वहीं इसके उल्ट झारखंड मुक्ति मोर्चा ने अपने घोषणापत्र से लेकर अपने चुनावी प्रचार को स्थानीयता के मुद्दे पर ही केंद्रित रखा। पार्टी ने अपने घोषणा पत्र में वादा किया है कि सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों को 75 प्रतिशत आरक्षण देंगे। साथ ही 25 करोड़ रुपए के सरकारी टेंडर सिर्फ स्थानीय लोगों को दिए जाएंगे।

इसके अलावा कुछ अन्य घोषणाओं में किसानों की कर्ज माफी व भूमि अधिकार कानून का भी वादा है। साथ ही महिलाओं को सरकारी नौकरी में 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। सरकार बनने के दो साल के अंदर 5 लाख झारखंडी युवकों को नौकरी दी जाएगी। बेरोजगारी भत्ता भी दिया जाएगा। 5 साल तक उपयोग में नहीं लाए गए अधिग्रहित भूमि को रैयतों को वापस की जाएगी। आंगनबाड़ी सेविका, सहायिका एवं पारा शिक्षकों के लिए सेवा, शर्त एवं वेतनमान का निर्धारण किया जाना शामिल है।

हेमंत सोरेन भी लगातार आदिवासी अधिकार और स्थानीय मुद्दों को अपने चुनावी भाषणों में उठाते रहे। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ताबड़तोड़ रैलियों के बाद बीजेपी नेता लगातार यह कोशिश करते रहे कि चुनाव स्थानीयता के मुद्दे से हटकर बयानों और केंद्रीय मुद्दों पर शिफ्ट हो जाए लेकिन हेमंत सोरेन एक चतुर राजनीतिज्ञ की तरह स्थानीय मसलों पर ही टिके रहे।

अंत में संशोधित नागरिकता कानून (CAA) और प्रस्तावित एनआरसी भी बीजेपी की नैया पार नहीं लगा पाई। चुनाव के आखिरी चरण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई रैलियों में इसका जिक्र किया लेकिन वोटों का धुव्रीकरण नहीं हो पाया। कुछ जानकारों के मुताबिक इस पूरे प्रकरण ने बीजेपी को नुकसान ही पहुंचाया।

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