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आज़ादी से लेकर अब तक का बैंकों का सफ़र

सितम्बर 8 से लेकर सितम्बर 12 तक हिमाचल प्रदेश के संभावना में इकॉनमी ऑफ ट्रैक नाम से देश के आर्थिक मिजाज पर एक वर्कशॉप का आयोजन हुआ। इस वर्कशॉप में बैंकिंग मामलों के जाने-माने जानकार थॉमस फ्रैंकों ने बैंकों के आजादी से लेकर अब तक के सफर के बारे में अपनी बात रखी। उन्हीं की बातचीत पर यह लेख पेश है।
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बिल्कुल सरल तरीके से समझें तो बैंक क्या है? बैंकों में हम पैसा जमा करते हैं। हमारे पैसे से ही बैंकों का कारोबार चलता है। बैंक हमारे पैसे को कहीं पर निवेश करते हैं। किसी को कर्ज देते हैं। जिस दर पर बैंकों के जरिए दूसरों को कर्ज दिया जाता है, वही बैंक की कमाई होती है। इसी कमाई में से बैंक लोगों के जमा किये हुए पैसे पर ब्याज देती है और अपना कारोबार चलाती है।

यह तो बैंकिंग सिस्टम की बुनियादी अवधारणा है। बैंकिंग सिस्टम में जब स्टेट का कंट्रोल नहीं होता है, राज्य की दखलंदाजी नहीं होती है, तब क्या होता है?  इसके ढेर सारे उदाहरण साल 1950 से लेकर साल 1967 तक मिलते हैं। इस दौरान बैंकिंग रेगुलेशन एक्ट में तकरीबन 10 बार बदलाव किया गया। मगर फिर भी बैंको का टूटना नहीं रुका। बैंक आम लोगों का पैसा जमा कर डूब जाते थे। साल 1951 में भारत में तकरीबन 567 बैंक थे। साल 1967 में इनकी संख्या कम होकर महज 91 रह गई। गांवों में तो बैंको का विस्तार ना के बराबर हुआ था।

बैंक संविधान में लिखें उस मकसद को पूरा नहीं कर रहे थे जो जन कल्याण से जुड़ा था, जिसके तहत भारत की सभी सार्वजनिक संस्थाएं इस तरह से काम करेंगी जिससे आर्थिक न्याय हो पाए। असामनता दूर हो।  बल्कि इसके उउलटहो रहा था।  इसलिए साल 1967 की आर. के. हजारी रिपोर्ट में यह निकलकर आया कि बैंकों के मालिक बड़े औद्योगिक घराने के हैं। बैंकों में जमा पैसा इन्हीं के पास जाता है। जब औद्योगिक घरानों का कारोबार डूबता है तो बैंक भी डूब जाते हैं। इसलिए जब तक बैंकों का राष्ट्रीयकरण नहीं होता है, तब तक न तो आर्थिक संकेन्द्रण रुक सकता है और न ही चंद लोगों के हाथों में कैद होता पूंजी का प्रवाह।

साल 1969 में बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। इसका मकसद था कि बैंकों का विस्तार दूर-दराज के इलाकों में हो। लोगों की बैंकों में रखे हुए बचत का सही जगहों पर निवेश हो। ऐसा न हो कि लोगों की गाढ़ी बचत का गैरकानूनी कामों में इस्तेमाल हो जाए।  ऐसे कामों में इस्तेमाल हो जाए जिनका जनहित से कोई जुड़ाव न हो। कर्जा केवल बड़े औधोगिक घरानों को ही न मिले बल्कि उन्हें भी मिले जो छोटे कारोबार में लगे हुए हैं। कृषि क्षेत्र में भी कर्ज दिया जाए। बैंकों का प्रबंधन प्रोफेशनल तरीके से किया जाए। बैंकों का कामकाज ऐसा न हो कि उस पर कुछ बड़े उद्योगपतियों का कंट्रोल हो जाए।

यहां यह भी समझने वाली बात है कि बैंकों का राष्ट्रीयकरण आसानी से नहीं हुआ। इसमें बहुत पचड़े थे। उस समय के उप प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई बैंकों के राष्ट्रीयकरण से सहमत नहीं थे।  इंदिरा गाँधी ने उनका इस्तीफ़ा लेकर बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था। अध्यादेश के जरिये आधी रात को 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ था। जनसंघ के दो सदस्यों ने बैंकों के राष्ट्रीयकरण का विरोध किया था। मामला कोर्ट में गया। उसके बाद अध्यादेश को खारिज कर दिया गया। संसद में डिबेट हुआ। उसके बाद बैंकों के राष्ट्रीयकरण का कानून बना। मजदूर संघ की तरफ से प्रस्ताव रखा गया कि बैंकों के प्रबंधन में मजदूरों का भी प्रतिनिधित्व भी शामिल हो।

बैंको के राष्ट्रीयकरण से क्या हासिल हुआ? 10 फीसदी अमीर लोगों की राष्ट्रीय आय में कुल हिस्सेदारी साल 1950 में 40 फीसदी के आसपास हुआ करती थी।  साल 1983 में यह हिस्सेदारी घटकर 30 फीसदी हो गयी। 50 फीसदी गरीब लोगों की कुल आय में हिस्सेदारी 19 प्रतिशत थी, साल 1983 में यह बढ़कर 24 प्रतिशत हो गयी। साल 1989 में देशभर में बैंकों के कुल 8262 ब्रांच थे। साल 1989 में यह बढ़कर 5,7699 हो गए। साल 1969 में तकरीबन 22 प्रतिशत बैंक ग्रामीण क्षेत्रों में थे। साल 1989 में ग्रामीण क्षेत्रों की बैंकों की संख्या बढ़कर 57 फीसदी हो गयी। साल 1969 में प्राथमिक क्षेत्रों (priority sector lending)  में बैंकों के लिए 14 प्रतिशत कर्ज देने की व्यवस्था की गयी थी। साल 1989 में बढ़कर यह तकरीबन 42 प्रतिशत हो गयी।

कहने का मतलब यह है कि राष्ट्रीयकरण की नीति अपनाने की वजह से दूर-दराज के इलाके तक बैंकों की पहुंच बनी। आर्थिक असमानता में कमी आयी। उन क्षेत्रों में भी कर्ज की व्यवस्था बनी जहाँ पर कर्ज नहीं दिया जाता था। कर्ज लेने की बपौती केवल बड़े उद्योगपतियों तक सिमटी नहीं रही बल्कि यह छोटी व्यापारियों तक भी फैली।

इसके बाद साल 1992 आया। भारत में उदारीकरण का दौर शुरु हुआ। कई क्षेत्रों में सरकार का मालिकाना हक कम किया जाने लगा। सरकार का कंट्रोल कम किया जाने लगा। साल 2014 में  P. J नायक कमिटी बनी। इस कमिटी की अनुशंसा थी कि बैंकों में  सरकार की अंशधारिता कम कर 33 प्रतिशत की जाए। बैंकों के मर्जर करने की बात की गयी। बैंकिंग क्षेत्र में विदेशी बैंकों को भी कारोबार करने की इजाजत दी जाए।  प्राइवेट बैंक की संख्या बढ़ाई जाए। प्रिऑरिटी सेक्टर लेंडिंग के लिए निर्धारित की जाने वाली कर्ज की सीमा को कम किया जाए। धीरे-धीरे समय के साथ इसे खत्म  दिया जाए। बैंक स्टाफ में कमी की जाए और ज्यादा से ज्यादा काम बैंक के बाहर करवाया जाए।

इसका असर क्या हुआ ? डेवलपमेंट फाइनेंसियल इंस्टीटूशन की संख्या कम हुई है। कुल बैंक ब्रांच में केवल 29 ब्रांच ग्रामीण क्षेत्र में हैं। कुल कर्ज का केवल 7.7 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में दिया जाता है। कृषि क्षेत्र को कर्ज देना धीरे-धीर कम हो रहा है। लघु और कुटीर उधोग को कर्ज मिलना धीरे-धीरे कम हो रहा है। साल 1972 से पहले 1 करोड़ से कम कर्ज वाले 98 प्रतिशत खाते थे। इनमें से 70 फीसदी खाते का कर्ज बकाया था। 4 करोड़ से कम कर्ज वाले अब 93 प्रतिशत खाते हैं। इनमें से 54 प्रतिशत का कर्ज बकाया है। 29 प्रतिशत से ज्यादा कर्ज 100 करोड़ से ऊपर हैं और ज्यादातर यही बकाया हैं।

प्राइवेट सेक्टर के बैंकों में विदेशी निवेश बढ़ गया है। एक्सिस बैंक में विदेशी निवेश बढ़कर तकरीबन 55 प्रतिशत हो गया है। HDFC बैंक में विदेशी निवेश बढ़कर 72 प्रतिशत हो गया है। रीजनल रूरल बैंक की तादाद साल 2010 के दशक में 96 थी। यह घट 43 हो गयी है। अगर क्षमता के हिसाब से देखें तो SBI के 42 करोड़ ग्राहक हैं। ICICI बैंक के 3 करोड़ ग्राहक हैं। यानी सरकारी बैंकों के ज्यादा ग्राहक हैं।

बैंकों के डायरेक्टर ऐसे लोग नहीं बनते जो सरकारी दखलंदाजी के बिना काम कर सके, जो पूंजीपतियों के चंगुल से बच सके, जिनके लिए बैंक पहली प्राथमिकता हो। बिजनेस कोरस्पोंडेंट की संख्या बैंक स्टाफ से ज्यादा बढ़ रही है। तकरीबन 15 लाख बैंक कोरेस्पोंडेंट है और करीब 10 लाख बैंक का स्टाफ है। बैंक कोरेस्पोंडेंट वे रिटेल एजेंट होते है, जो वहां पर काम करते हैं, जहाँ पर बैंक के ब्रांच और ATM नहीं होते। कहने का मतलब यह है कि अब बैंक स्टाफ में बढ़ोतरी नहीं हो रही बल्कि बैंक कोरेस्पोंडेंट में बढ़ोतरी हो रही है।

बैंक नौकरी के लिए परममानेन्ट कर्मचारी शामिल नहीं कर रहे हैं। बल्कि वैसे लोगों को शामिल कर रहे हैं जो कम कीमत पर काम कर लें। NPA बढ़ता जा रहा है, NPA की रिकवरी कम हो रही है। BAD BANK बनाया गया है ताकि बैंकों के बैलेंस शीट को साफ़ सुथरा दिखाया जा सके। बैंकों के पैसों का निवेश कहाँ किया जा रहा है, इसका अंदाजा पहले लग जाता था। पहले पारदर्शिता थी जिससे पता चलता था कि बैंकों का पैसा कहाँ निवेश किया गया। अब यह पारदर्शिता खत्म हो गयी है। अब अगर पूरी जानकारी निकालनी हो कि बैंकों का पैसा कहाँ जमा हो रहा है तो इसका पता लगाना मुश्किल है। कॉर्पोरेट लोन का निवेश कहाँ हो रहा है? इसकी जानकारी अब नहीं दी जाती है।

कुल मिला-जुलाकर कहा जाए तो बात अब यहां तक पहुंच गयी है कि बैंकों में रखी गयी हमारी गाढ़ी कमाई कहां जा रही है, इसका पता नहीं चलता। बैंकिंग का ढाँचा ऐसा बन गया है जिससे पैसे का पुल बन गया है कि जिनके पास रसूख है, वह आसानी से बैंक से पैसा ले सकते हैं और उसे जहाँ मर्जी वहां इन्वेस्ट कर लेते हैं।  जिसका असर बढे हुए NPA में दिखता है और घटते हुए जमा दर पर दिखता है। मतलब बैंकों ने वह रास्ता अपना लिया है, जो आम जनता की भलाई से दूर है।  

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