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बैंक कर्मचारियों के प्रस्तावित हड़ताल के मायने

हड़तालों की यह श्रृंखला अंततः सभी बैंक कर्मचारियों की 2 दिवसीय अखिल भारतीय हड़ताल के साथ समाप्त होगी।
bank strike
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

बैंक कर्मचारियों के सबसे बड़े संघ, अखिल भारतीय बैंक कर्मचारी संघ (AIBEA) द्वारा घोषित प्रस्तावित हड़ताल एक बेहद पेचीदा रहस्य बन गया  है।  AIBEA ने 4 दिसंबर 2023 और 20 जनवरी 2024 के बीच 13 दिनों की क्रमिक हड़ताल की घोषणा की है। सबसे पहले, अलग अलग बैंकों- सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (PSBs) और निजी बैंकों, दोनों  में अखिल भारतीय हड़ताल होगी। तब अलग-अलग राज्यों में सभी बैंकों के कर्मचारी संयुक्त रूप से हड़ताल पर जायेंगे। हड़तालों की यह श्रृंखला अंततः सभी बैंक कर्मचारियों की 2 दिवसीय अखिल भारतीय हड़ताल के साथ समाप्त होगी।

प्रथम दृष्टया हड़ताल की रणनीति प्रभावशाली लगती है। ऐसा प्रतीत होता है कि क्रमबद्ध हड़ताल का उद्देश्य अलग अलग बैंकों में अधिकतम कर्मचारियों को जुटाना और धीरे-धीरे अखिल भारतीय हड़ताल के लिए गति तैयार करना है।

हड़ताल की योजना से जुड़ी कुछ पहेलियां

इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हड़ताल की योजना कितनी प्रभावशाली है। करीब से देखने पर AIBEA की हड़ताल की रणनीति से जुड़े कुछ अस्पष्ट रहस्य सामने आते हैं।

सबसे पहले,  AIBEA ने एक व्यक्तिगत संघ के रूप में इस हड़ताल का आह्वान किया है। वेतन संशोधन और अन्य मांगों पर बैंक कर्मचारियों के आंदोलन का नेतृत्व यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (UFBU) कर रहा है, जो बैंक कर्मचारियों और अधिकारियों के 9 यूनियनों और संघों का एक संयुक्त मंच है, अर्थात AIBEA, AIBOC, NCBE, AIBOA, BEFI, INBEF, INBOC, NOBW और NOBO ।  इनमें प्रमुख हैं AIBEA-AIBOC, BEFI-AIBOA और INBEF-INBOC, जो क्रमशः CPI, CPI(M) और कांग्रेस से जुड़े हैं। इन सभी यूनियनों के बीच कार्रवाई में बेहतर एकता थी और उनके बीच कोई तीव्र मतभेद दिखाई नहीं दे रहे थे।

लेकिन अचानक AIBEA ने संयुक्त मंच को छोड़कर खुद ही इस हड़ताल का आह्वान कर दिया है। क्या उन्होंने अन्य यूनियनों को इस हड़ताल की योजना का प्रस्ताव दिया था और क्या वे असहमत थे और यदि हां तो क्यों? इन यूनियनों के मूल राजनीतिक दल, अर्थात सीपीआई और सीपीआई (एम), वामपंथी एकता का संकल्प लेते हैं। उनके प्रभाव में आने वाली यूनियनों के अलग रास्ते पर जाने के बारे में उन्होंने क्या रुख अपनाया है? इन सवालों पर न तो संघ नेतृत्व और न ही राजनीतिक दल अपने सदस्यों के प्रति जवाबदेह दिखते हैं। अन्य यूनियनों ने भी AIBEA की इस एकतरफा हड़ताल योजना पर अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है।

दूसरे, बैंक नियोक्ताओं के संगठन इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (IBA) के साथ पहले हुआ वेतन समझौता अक्टूबर 2022 में समाप्त (lapse) हो गया। 1 नवंबर 2022 से, पिछले एक साल से वेतन संशोधन लंबित है। यूनाइटेड फोरम ऑफ बैंक यूनियंस (UFBU) तब से वेतन संशोधन और नए वेतन समझौते के लिए आंदोलन कर रहा हैं। उन्होंने 30-31 जनवरी 2023 को हड़ताल की घोषणा भी की । लेकिन उन्होंने किन कारणों से उस हड़ताल को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया, यह उन्हें ही बेहतर पता है। वेतन पुनरीक्षण वार्ता बाद में चलती रही है। IBA ने सकल वेतन में 6% वृद्धि की पेशकश के साथ शुरुआत की, धीरे-धीरे अपनी पेशकश को सकल वेतन में 15% वृद्धि तक बढ़ा दिया।

बैंक यूनियनों ने 25 फीसदी बढ़ोतरी की मांग के साथ शुरुआत की। अनौपचारिक स्रोतों में ऐसी अटकलें थीं कि बैंक यूनियनें प्रबंधन द्वारा 5-दिवसीय सप्ताह पर सहमति के बदले 15% बढ़ोतरी पर सहमत थीं। लेकिन कुछ अज्ञात कारणों से वेतन पुनरीक्षण वार्ता में गतिरोध आ गया। किसी समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किये गये हैं। और, दिलचस्प बात यह है कि अब UFBU को छोड़कर, AIBEA ने एकतरफा हड़ताल योजना की घोषणा कर दी है। लेकिन वेतन संशोधन इस हड़ताल की मांगों में से एक नहीं है। यह हड़ताल केवल दो मांगों तक सीमित है: 1) आउटसोर्सिंग ख़त्म करना; और 2) काम की मात्रा में वृद्धि के अनुरूप अधिक भर्ती और कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि। यह भी समझ से परे है।

आउटसोर्सिंग और कार्यभार के मुद्दे

यह सच है, आउटसोर्सिंग और कार्यभार बैंक कर्मचारियों के प्रमुख मुद्दे हैं। आउटसोर्सिंग दो प्रकार की होती है। एक यह है कि गैर-मुख्य (non-core) गतिविधियां जैसे निगरानी और वार्ड कर्मचारियों का काम, सफाई का काम, चपरासी जैसे उप-कर्मचारियों का काम आदि को आउटसोर्स किया जा रहा है। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि मुख्य (core) गतिविधियों को भी आउटसोर्स किया जा रहा है। निजी संविदा कर्मियों, जिन्हें "बैंक मित्र" कहा जाता है, इनसे नियमित बैंक कर्मचारियों का काम कराया जाता है। बैंक प्रबंधन निजी ठेकेदारों को मुख्य बैंक गतिविधियां सौंपता है जैसे बैंक खाते खोलना, छोटे मूल्य के बैंक जमा और निकासी का संग्रह और भुगतान, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में खाताधारकों से ऐसी जमा और निकासी के लिए कागजी काम करना, आवेदन तैयार करना और जन धन खातों, मुद्रा ऋण इत्यादि और अन्य सरकारी कल्याणकारी योजनाओं आदि के लिए अन्य कागजी काम करना और वे यह काम "बैंक मित्रों" से कराते हैं।

ये बैंक मित्र बैंकों के प्रत्यक्ष कर्मचारी नहीं हैं। बैंक इन कार्यों को ठेकेदारों को सौंपते हैं और ये ठेकेदार इन बैंक मित्रों की भर्ती करते हैं और उनके माध्यम से मुख्य गतिविधियां करवाते हैं। औसतन, वे 2000 रुपये से 5000 रुपये के बीच कितना भी कमा लेते हैं क्योंकि विभिन्न प्रकार के काम के लिए वेतन में भिन्नता होती है जिसके लिए उन्हें भर्ती किया जाता है और विभिन्न बैंक अलग-अलग राशि का भुगतान करते हैं। केवल कुछ मामलों में, बैंक मित्रों को क्लर्क के रूप में काम करने के लिए भर्ती किया जाता है; बैंक ठेकेदारों को प्रति व्यक्ति 20,000 रुपये का भुगतान करते हैं और ये ठेकेदार चुनिंदा बैंक मित्रों को 12,000 रुपये का भुगतान करते हैं।

बैंकों में बैंक मित्र के रूप में महिमामंडित संविदा कर्मियों की यह व्यवस्था कितनी व्यापक है? पीएसबी 3 लाख बैंक मित्रों की सेवाओं का उपयोग करते हैं और भारत में निजी क्षेत्र के बैंक 27 लाख बैंक मित्रों की सेवाओं का उपयोग करते हैं! लगभग 20% शाखाएं नियमित लिपिक कर्मचारियों के बिना केवल बैंक मित्रों का उपयोग करके कार्य करती हैं। यह परिधीय  (peripheral) कार्य की आउटसोर्सिंग से कहीं अधिक है; यह संविदाकरण और निजीकरण या कोर बैंकिंग गतिविधियों के बराबर है। बेहतर होता यदि AIBEA ने अनुबंध श्रम रोजगार की इस बैंक मित्र प्रणाली को समाप्त करवाने का आह्वान किया होता।

देवीदास तुलजापुरकर, जो AIBEA के महाराष्ट्र राज्य बैंक कर्मचारी महासंघ के महासचिव रह चुके हैं और जो श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करने वाले बैंक ऑफ महाराष्ट्र में बोर्ड सदस्य रह चुके हैं, उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि इन बैंक मित्रों के पास बैंक की सभी जानकारी सहित खाताधारकों की संवेदनशील जानकारी तक पहुंच है  और वे नकद लेनदेन निपटाते हैं और यह धोखाधड़ी के लिए संभावित ज़रिया बनता है। वास्तव में, जैसा कि तलजापुरकर बताते हैं , बैंक मित्रों द्वारा धोखाधड़ी के कई मामले सामने आए हैं, जिनमें से एक बैंक ऑफ बड़ौदा का मामला उल्लेखनीय है, जहां ग्रामीणों ने बैंक मित्रों की धोखाधड़ी गतिविधियों के कारण अपनी पूरे जीवन की बचत खो दी।

बैंक कर्मचारियों पर लगातार बढ़ रहा काम का बोझ

साथ ही बैंक कर्मचारियों पर काम का बोझ भी काफी बढ़ गया है। नोटबंदी के काम का सारा अतिरिक्त बोझ उन्हें ही उठाना पड़ा था। फिर, उन्हें 50 करोड़ जनधन खाते खोलने थे और उन्हें कायम भी रखना था। इसके अलावा, केंद्र सरकार सभी कल्याणकारी योजनाओं का पैसा राज्य सरकारों और राज्य सरकारों के राजस्व विभागों के माध्यम से स्थानांतरित नहीं कर रही है। प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण के तहत मुद्रा ऋण, अटल पेंशन योजना, वृद्धावस्था, विधवा और विकलांग पेंशन आदि सीधे लाभार्थियों के खाते में जमा किए जाते हैं और यह काम बैंक कर्मचारियों को करना होता है। यहां तक कि राज्यों और बीडीओ के माध्यम से मनरेगा मजदूरी जैसी धनराशि का भुगतान भी बैंकों के माध्यम से ही किया जाता है। 80 से ज्यादा योजनाओं के तहत डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) के तहत करीब 90 करोड़ लोगों के खाते में पैसे ट्रांसफर किए गए हैं।

इसके अलावा वे जीएसटी का काम भी करते हैं। सरकार का दावा है कि डायरेक्ट कैश ट्रांसफर स्कीम से सब्सिडी लीकेज  की 27 अरब डॉलर की रकम बच गई, लेकिन जिन कर्मचारियों ने इतना पैसा बचाने की कोशिश की, उन्हें काम के बोझ के अलावा कुछ नहीं मिला। पूरा बोझ बैंक कर्मचारियों द्वारा वहन किया जाता है, उन्हें एक रुपया भी अतिरिक्त भुगतान नहीं किया जाता है।

इसके अलावा, डिजिटल युग में कर्मचारियों के लिए काम को अगले दिन के लिए टालना संभव नहीं होता। इसलिए, कई लोग बिना ओवरटाइम भुगतान के लंबे समय तक काम करते हैं। डिजिटल युग का भारी कार्यभार एक ऐसी चीज़ है जिससे कोई बच नहीं सकता।

एनपीए में कमी के पीछे का रहस्य

इससे पहले, IBA ने एनपीए बहुत अधिक होने का बहाना बनाकर वेतन में बढ़ोतरी से इनकार कर दिया था। अब उनका दावा है कि एनपीए में भारी कमी आई है, लेकिन वे वेतन समझौते में अभी भी देरी कर रहे हैं। परंतु, कई लोग इस फर्जी दावे के पीछे के रहस्य से वाकिफ नहीं हैं। दरअसल, बैंक लोन डिफॉल्टर्स को नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल (NCLT) में ले जाना चाहते थे और उनके खिलाफ इन्सॉल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड के तहत दिवालियापन की कार्यवाही शुरू करना चाहते थे और उनकी संपत्तियों की नीलामी करके कुछ पैसे वसूल करना चाहते थे, लेकिन, अजीब बात है कि यह योजना फ्लॉप हो गयी-, आंशिक तौर पर राजनीतिक रूप से निर्देशित आरबीआई द्वारा उत्पन्न बाधाओं के कारण जहां तक संभव हो बकाया वसूलने के बजाय, सरकार ने इनमें से कई ऋणों को माफ करने का विकल्प चुना। बैंकिंग भाषा में वे इसे "हेयर-कटिंग" कहते हैं।

आरबीआई के मुताबिक, पिछले पांच साल में 10.57 लाख करोड़ रुपये के बैड लोन माफ किए गए हैं। कॉरपोरेट घराने इसके मुख्य लाभार्थी हैं। एक उदाहरण यह है कि सत्तारूढ़ प्रतिष्ठान के करीबी पतंजलि समूह से संबंधित रुचि सोया द्वारा लिए गए 2212 करोड़ रुपये के ऋण को माफ कर दिया गया है।

इसके अलावा, परिभाषा के अनुसार, यदि किसी ऋण का ब्याज या मूलधन 90 दिन या तीन महीने और उससे अधिक की अवधि के लिए अतिदेय रहता है, तो ऋण खाते को गैर-निष्पादित परिसंपत्ति (NPA) के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। बैंक प्रबंधन डिफॉल्टरों को केवल कुछ सांकेतिक ब्याज राशि का भुगतान करने और खाते को एनपीए श्रेणी से बाहर रखने के लिए मनाएगा। इसे "सदाबहार" (“ever-greening”) कहा जाता है। इस तरह एनपीए के बड़े हिस्से में भी कमी देखी गई है। बट्टे खाते में डालने के साथ-साथ कृत्रिम रूप से ऋणों को लगातार बढ़ाने का भी बैंक यूनियनें विरोध करती रही हैं। पर यह मांग दिसंबर-जनवरी की हड़तालों में भी शामिल नहीं है।

इसलिए प्रस्तावित दिसंबर-जनवरी की हड़ताल केवल एक आंशिक काम-चलाऊ उपाय हो सकती है। बैंक कर्मचारियों के प्रमुख मुद्दे बहुत व्यापक हैं और उनमें विनिवेश और रणनीतिक बिक्री के माध्यम से पीएसबी का पूर्ण निजीकरण शामिल है। इसलिए बैंकिंग उद्योग और बैंक कर्मचारियों को बचाने के आंदोलन को और तेज करने की जरूरत है।

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