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ख़बरों के आगे-पीछे: क्या अब ‘राइट ऑफ’ के सहारे बैंक की स्थिति होगी मज़बूत?

राइट ऑफ के ज़रिए बैंको को मज़बूत करने के दावे समेत, मैहर रेप मामला, दिल्ली में CM से ज़्यादा LG को वरीयता और भाजपा-अकाली जुड़ाव में बाधा पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
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फ़ोटो साभार : Newslaundry

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले दिनों रोज़गार मेले में युवाओं को नियुक्ति पत्र बांटते हुए उन्होंने फोन बैंकिंग फ्रॉड का एक नया शोशा छोड़ा। उन्होंने कहा कि नौ साल पहले जो सरकार थी, उसके करीबी लोग फोन करते थे और किसी को कर्ज मिला जाता था। बाद में वह कर्ज डूब जाता था। मोदी ने दावा किया कि उनकी सरकार में बैंकिंग सेक्टर में बहुत सुधार हुआ है। उन्होंने कहा कि दुनिया के सबसे मजबूत बैंकिंग सेक्टर में अब भारत भी शामिल हो गया है। असल में प्रधानमंत्री के इस दावे की हकीकत यह है कि इस सरकार में बैंकिंग सिस्टम को मजबूत करने का नया तरीका निकाला गया है। पहला तरीका तो यह है कि पिछले सारे बकाए को भूल जाओ। इस नीति के तहत सभी बैंकों ने बैड लोन को राइट ऑफ कर दिया यानी बट्टेखाते में डाल दिया। सरकारी आंकड़े के मुताबिक वित्त वर्ष 2022-23 में 2.09 लाख करोड़ रूपये का कर्ज बट्टेखाते में डाला गया। अगर पिछले नौ साल की बात करें तो करीब 13.50 लाख करोड़ रूपये का कर्ज बट्टेखाते में डाल दिया गया। राइट ऑफ करने का मतलब कर्ज माफ करना नहीं होता है लेकिन इसका अर्थ इसी से मिलता-जुलता होता है। बैंक मान कर चलते हैं कि यह रकम डूब गई। इसीलिए ऐसे कर्ज की वसूली सिर्फ 18 फीसदी हो रही है। यानी बट्टेखाते में डाले गए 82 फीसदी कर्ज डूब रहे हैं। इसके बाद दूसरा तरीका यह निकाला गया कि बैंकिंग की हर सेवा पर शुल्क लगा दिया जाए। पैसे जमा कराने से लेकर निकालने तक की सारी बैंकिंग सेवा पर शुल्क लगा दिया गया है, जिससे बैंक हज़ारों करोड़ रूपये आम ग्राहकों से वसूल रहे हैं। यहां तक कि खाते में न्यूनतम राशि नहीं रखने वालों से भी हज़ारों करोड़ रूपये वसूले गए हैं।

मैहर रेप मामले में अब क्या करेंगे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह?

ऐसी हैवानियत पर हैवान को भी शर्म आ जाए, लेकिन लगता है कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री और गृह मंत्री को इससे ज़रा भी फर्क नहीं पड़ता। महिलाओं और बच्चियों के प्रति बलात्कार जैसे वीभत्स अपराध देश के हर सूबे में होते हैं और हो रहे हैं, उनका पैशाचिक रूप भाजपा की डबल इंजन की सरकार वाले राज्यों में भी देखा गया है। कठुआ, उन्नाव, हाथरस, सीधी आदि घटनाएं इसकी गवाही देती हैं। मणिपुर के जख्म अभी ताजे ही हैं कि अब मध्यप्रदेश में प्रसिद्ध देवी शारदा मैया की नगरी मैहर का मामला सामने आया है जहाँ एक 12साल की नाबालिग बच्ची के साथ सामूहिक दुष्कर्म को अंजाम दिया गया। गनीमत रही कि बच्ची मरी नहीं और फ़िलहाल रीवा के अस्पताल में उसका इलाज चल रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी ने मणिपुर की घटना को राजस्थान एवं छत्तीसगढ़ की घटनाओं के समकक्ष रखकर मणिपुर की दरिंदगी का बचाव किया ही है। मध्यप्रदेश में भी भाजपा की डबल इंजन सरकार है। इसी मध्यप्रदेश में एक आदिवासी युवक के सिर पर पेशाब करने वाले अपराधी के अपराध का प्रायश्चित खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने पीड़ित के पांव धोकर और उसे साढ़े छह लाख रुपये की सरकारी सहायता देकर किया था। अपनी पार्टी से जुड़े अपराधी के पक्के घर का छज्जा भर तुड़वाने की औपचारिकता बरतकर मुख्यमंत्री ने सुर्खियां बटोरी थीं। देखना होगा कि अब इस मैहर कांड के मामले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह क्या करते हैं?

दिल्ली के सीएम से बात नहीं करती केंद्र सरकार!

किसी भी राज्य में जब कोई आपदा आती है तो उसकी जानकारी लेने के लिए वहां के मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री या गृह मंत्री की ओर से फोन किया जाता है, लेकिन दिल्ली में ऐसी स्थिति पैदा होने पर वहां के मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री या गृह मंत्री बात नहीं करते हैं। दिल्ली में चुनी हुई सरकार है और उसका चुना हुआ मुख्यमंत्री है लेकिन उनसे बात करने के बजाय केंद्र सरकार उप राज्यपाल से बात करती है। इसका मतलब है कि केंद्र सरकार का शीर्ष नेतृत्व दिल्ली के उप राज्यपाल को ही सरकार मानने के कानून यानी जीएनसीटीडी एक्ट का शब्दश: पालन कर रहा है। दिल्ली की बाढ़ के मामले में यही देखने को मिला है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी विदेश यात्रा से लौटे तो उन्होंने उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना को फोन करके दिल्ली के हालात की जानकारी ली। फिर वापस दिल्ली में यमुना का पानी बढ़ने लगा तो गृह मंत्री अमित शाह ने दिल्ली के उप राज्यपाल को फोन करके हालात की जानकारी ली और राहत व बचाव के लिए तैयार रहने का निर्देश दिया। जिस दिन अमित शाह ने विनय कुमार सक्सेना से बात की, उसी दिन उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल से भी बात की क्योंकि वहां भी जूनागढ़ में बाढ़ आई है। इस तरह से मोदी और शाह ने साफ कर दिया है कि वे केजरीवाल को दिल्ली का कुछ नहीं मानते हैं। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार मुख्यमंत्रियों की कोई बैठक बुलाती है तो उसमें केजरीवाल को बुलाती है या नहीं?

आंध्र प्रदेश में सहयोगी नहीं चुन पा रही है भाजपा?

आंध्र प्रदेश में अपना सहयोगी चुनने को लेकर भाजपा के सामने दुविधा बनी हुई है। तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) को एनडीए में शामिल कराना है लेकिन वोट और जगन मोहन रेड्डी की संवेदनशीलता का भी ध्यान रखना है। संसद के चालू सत्र में सरकार को जगन मोहन की पार्टी के समर्थन की ज़रूरत है इसलिए टीडीपी पर फैसला अभी टला है। लेकिन साथ ही यह चिंता भी है कि 10 फीसदी के करीब कम्मा वोट के लिए क्या भाजपा चंद्रबाबू नायडू को फिर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर स्वीकार करे या 30 फीसदी के करीब वोट वाले कापू समुदाय के किसी नेता को आगे करे? गौरतलब है कि जन सेना के नेता पवन कल्याण कापू समुदाय से आते हैं, जिसका करीब 30 फीसदी वोट है। इसी वोट के दम पर पवन कल्याण के भाई और तेलुगू फिल्मों के सुपरस्टार चिरंजीवी राजनीति में उतरे थे। उन्होंने अपनी पार्टी बनाई थी लेकिन बहुत ज़्यादा कामयाबी नहीं मिली तो वे बाद में कांग्रेस में शामिल हो गए थे। अभी पवन कल्याण भाजपा के साथ हैं। वे भी चाहते हैं कि चंद्रबाबू नायडू की पार्टी को एनडीए मे लाया जाए। अगर मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद नहीं हो और कापू व कम्मा दोनों एक साथ आ जाएं तो जगन मोहन के लिए मुश्किल हो सकती है। इसे समझ कर जगन मोहन अब कापू समुदाय के एक पुराने दिग्गज नेता एम. पद्नाभन को फिर से सक्रिय करा रहे हैं। वे गोदावरी जिले से आते हैं।

बिहार में कांग्रेस के सामने टूट का खतरा!

भाजपा के ऑपरेशन लोटस का शिकार अब बिहार में कांग्रेस हो सकती है। कांग्रेस को 2019 में कर्नाटक और 2020 में मध्य प्रदेश में टूट का सामना करना पड़ा था। दोनों जगह कांग्रेस की सरकार थी लेकिन विधायक दल में हुई टूट के चलते उसकी सरकारें गिर गई थी और भाजपा ने अपनी सरकार बना ली थी। उधर 2021 में मेघालय में तृणमूल कांग्रेस ने कांग्रेस को तोड़ा था। लेकिन उसके बाद किसी भी राज्य में कांग्रेस को तोड़ने का अभियान सफल नहीं हुआ। चाहे वह अभियान भाजपा का रहा हो या किसी अन्य पार्टी का। राजस्थान में 2020 में ही लगा था कि पार्टी टूट जाएगी लेकिन अशोक गहलोत ने पार्टी और सरकार दोनों बचा ली थी। झारखंड में कांग्रेस को तोड़ने की लंबे समय से जारी कोशिश कामयाब नहीं हो पाई है और महाराष्ट्र में भी उसके टूटने की अटकलें कई महीनों से चल रही है। इसी तरह अब चर्चा है कि बिहार में कांग्रेस पार्टी टूट सकती है। यह चर्चा खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के एक बयान से शुरू हुई। मुख्यमंत्री ने विधानसभा के मानसून सत्र के पहले दिन महागठबंधन के विधायकों की बैठक में कांग्रेस विधायक दल के नेता अजीत शर्मा को निशाना बना कर उनसे पूछा कि क्या वे भाजपा में जाने की सोच रहे हैं। बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री को इस बारे में पक्की सूचना है कि कांग्रेस के कुछ विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। इनकी संख्या को लेकर कंफ्यूजन है। यह संख्या 11 से 13 बताई जा रही है। कांग्रेस के एक जानकार नेता का कहना है कि अभी दो-तिहाई संख्या पूरी नहीं हो रही है। यानी 13 विधायक पूरे नहीं हो रहे हैं। बताया जा रहा है कि कांग्रेस के साथ-साथ जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल के नेता भी कांग्रेस को टूटने से बचाने में लगे हैं।

मुंबई में कौन करेगा 'इंडिया’ की मेज़बानी?

भाजपा के खिलाफ बने विपक्षी गठबंधन 'इंडिया’ की अगली बैठक मुंबई में होने वाली है। चूंकि 11 अगस्त तक संसद का सत्र है और उसके बाद सारे नेता अपने-अपने क्षेत्र में स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों में व्यस्त रहेंगे। सो, 15 अगस्त के बाद किसी दिन बैठक होगी। मुंबई की बैठक को लेकर सबसे अहम सवाल यह है कि वहां बैठक की मेज़बानी कौन करेगा? पटना में 23 जून को पहली बैठक हुई थी तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मेज़बान थे और सारे निमंत्रण उनकी ओर से भेजे गए थे। जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं ने सभी विपक्षी नेताओं की अगवानी की थी और नीतीश की अध्यक्षता में बैठक हुई थी। दूसरी बैठक कांग्रेस शासित कर्नाटक में हुई और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे मेज़बान थे। उन्होंने बैठक की अध्यक्षता की थी। अब अगली बैठक मुंबई में होने वाली है, जहां भाजपा, शिव सेना और एनसीपी का गठबंधन है। वहां बैठक की मेज़बानी और अध्यक्षता कौन करेगा? स्वाभाविक रूप से तो शरद पवार सबसे वरिष्ठ नेता हैं और इस नाते बैठक उनकी अध्यक्षता में ही होना चाहिए। लेकिन अगर उनकी पार्टी को लेकर संशय बना रहा तब क्या होगा? उनके भतीजे अजित पवार एनसीपी के विधायकों को लेकर भाजपा, शिव सेना की सरकार में शामिल हो गए हैं। उसके बाद से वे लगातार शरद पवार से मिल भी रहे हैं। इसीलिए उनको लेकर संशय बना हुआ है। अगर यह मैसेज बना रहता है कि उनकी सहमति से अजित पवार भाजपा सरकार के साथ है तो इससे पूरे गठबंधन पर सवाल उठेगा और अगर यह साबित होता है कि अजित पवार ने अपने दम पर पार्टी तोड़ी है तो शरद पवार की अथॉरिटी पर सवाल खड़ा होगा। इसीलिए मेज़बानी और अध्यक्षता का सवाल अहम बना हुआ है।

भाजपा-अकाली जुड़ाव में बाधा

शिरोमणि अकाली दल के एनडीए में शामिल होने को लेकर अभी संशय बना हुआ है। वह भाजपा का बहुत पुराना सहयोगी रहा है। नरेंद्र मोदी की दूसरी सरकार में भी अकाली दल से हरसिमरत कौर बादल मंत्री थी। लेकिन तीन विवादित कृषि कानूनों के विरोध में उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। पिछले कुछ समय से दोनों पार्टियों के फिर साथ आने की बात हो रही थी। खबर यह भी थी कि कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए पार्टी के नए प्रदेश अध्यक्ष सुनील जाखड़ और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के ज़रिए सीट बंटवारे पर बात हो रही है। लेकिन अब बताया जा रहा है कि अकाली दल के नेता नाराज़ हैं और बातचीत टूट गई है। असल में 20 जुलाई को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में हुई एनडीए की बैठक मे अकाली दल से अलग हुए गुट के नेता सुखदेव सिंह ढींढसा शामिल हुए थे। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में उन्हें प्रकाश सिंह बादल की विरासत का असली उत्तराधिकारी बताया था। ढींढसा को इस तरह महत्व दिए जाने से सुखबीर बादल नाराज़ है। इस वजह से तालमेल की बात टूट गई है। हालांकि यह भी पूर्णविराम नहीं है, हो सकता है कि आने वाले दिनों में बातचीत फिर शुरू हो, क्योंकि दोनों पार्टियों को पता है कि अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में तालमेल होता है तो उन्हें रोकने के लिए दोनों के साथ मिल कर लड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।

पवार की तरह सोनिया भी राज्यसभा जाएंगी?

पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी भी एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार का अनुसरण कर सकती हैं। शरद पवार लंबे समय तक बारामती लोकसभा सीट से चुनाव जीतते रहे थे। लेकिन जब उनकी सेहत बिगड़ी तो उन्होंने लोकसभा सीट अपनी बेटी के लिए छोड़ दी और खुद राज्यसभा में चले गए। अब वे राज्यसभा में हैं और लोकसभा में उनकी बेटी सुप्रिया सुले बारामती का प्रतिनिधित्व करती हैं। इसी तरह से कहा जा रहा है कि सोनिया गांधी अपने परिवार की पारंपरिक रायबरेली लोकसभा सीट छोड़ देंगी और राज्यसभा में जाएंगी। गौरतलब है कि उनकी भी सेहत अच्छी नहीं है और लंबे समय से वे अपने चुनाव क्षेत्र में नहीं गई हैं। बताया जा रहा है कि जैसे शरद पवार ने बारामती सीट सुप्रिया सुले के लिए छोड़ी थी वैसे ही सोनिया गांधी रायबरेली सीट प्रियंका के लिए छोड़ेंगी। वहां से अगला लोकसभा चुनाव प्रियका गांधी वाड्रा लड़ सकती हैं। प्रियंका के चुनाव लड़ने का असर कुछ और सीटों पर पड़ेगा। हालांकि पार्टी का एक खेमा चाहता है कि उन्हें चुनाव नहीं लड़ना चाहिए क्योंकि उन्हें पूरे देश में प्रचार करना है। बहरहाल, वह फैसला कांग्रेस को करना है। इस बीच यह खबर है कि सोनिया गांधी अगले साल राज्यसभा के दोवार्षिक चुनावों में कर्नाटक से राज्यसभा में जा सकती हैं।

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