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चुनाव के पहले बैंकों के विलफुल डिफॉल्टर पर रिजर्व बैंक मेहरबान क्यों?

6 लाख बैंक कर्मचारी का प्रतिनिधित्व करने वाले ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन (एआईबीओसी) और ऑल इंडिया बैंक एम्प्लॉइज एसोसिएशन (एआईबीईए) ने इस नीति का कड़ा विरोध करते हुए इसे वापस लेने की मांग की है।
RBI
फ़ोटो : PTI

8 जून 2023 को जारी एक सर्कुलर में रिजर्व बैंक ने अपनी मौजूदा नीति को आश्चर्यजनक ढंग से पलटते हुए व्यावसायिक बैंकों को निर्देश दिया कि वे जानबूझकर कर्ज न चुकाने वाले विलफुल डिफॉल्टर से भी बकाया राशि पर समझौता या कंप्रोमाइज सेटलमेंट कर सकते हैं और 12 महीने की अवधि के बाद उन्हें दोबारा कर्ज भी दे सकते हैं। जिस वक्त कई महत्वपूर्ण राज्यों सहित आम चुनाव कुछ महीने दूर ही रह गए हैं उस समय यह फैसला कई संदेहों को जन्म देता है।

रिजर्व बैंक के वर्गीकरण के अनुसार, विलफुल डिफॉल्ट या 'जानबूझकर की गई चूक' तब मानी जाती है यदि उधारकर्ता ऋणदाता को बकाया राशि का पुनर्भुगतान करने में चूक करता है, भले ही उसके पास कर्ज चुकाने की क्षमता हो। इरादतन चूक तब भी मानी जाती है जब उधारकर्ता ने ऋणदाता से लिए गए वित्त का उपयोग उस विशिष्ट उद्देश्य के लिए नहीं किया हो जिसके लिए कर्ज लिया गया था, और धन को चोरी से अन्य कामों में लगा दिया हो, या कर्ज से ली गई या इसके एवज में रेहन या बंधक रखी चल-अचल संपत्तियों का बैंक की जानकारी के बिना चुपके से निपटारा कर दिया हो। हालांकि ऐसे विलफुल डिफॉल्टर्स सभी स्तर के होते हैं लेकिन केवल 25 लाख रुपये से अधिक बकाया के बड़े मामले ही रिपोर्ट किए जाते हैं। साफ है कि जानबूझकर कर्ज न चुकाने के ये मामले देश के कॉर्पोरेट पूंजीपतियों व अन्य अमीरों के ही हैं।

7 जून, 2019 को आरबीआई ने अपने सर्कुलर में स्पष्ट किया था कि जिन उधारकर्ताओं ने धोखाधड़ी/दुर्भावना/जानबूझकर डिफ़ॉल्ट किया है, वे समझौते या कर्ज के पुनर्गठन के लिए अयोग्य होंगे और उनके खिलाफ आपराधिक कार्रवाई की जाएगी। अब नीति को पलटकर जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों के साथ भी समझौता निपटान करने का यह अचानक बदलाव बैंकिंग क्षेत्र के लिए एक झटके के रूप में आया है। इससे न केवल बैंकिंग क्षेत्र में जनता का विश्वास कम होगा, बल्कि जमाकर्ताओं का विश्वास भी कमजोर होगा।

दिसंबर 2022 में ऐसे विलफुल डिफॉल्टर की कुल संख्या 16,044 थी और इन पर बैंकिंग उद्योग की कुल 346,479 करोड़ बकाया राशि की देनदारी थी। आरबीआई के साथ पंजीकृत क्रेडिट सूचना कंपनी ट्रांसयूनियन सिबिल द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार पिछले दो वर्षों में विलफुल डिफॉल्ट श्रेणी में फंसी राशि दिसंबर 2020 में 245,767 करोड़ रुपये से 41% या एक लाख करोड़ रुपये से अधिक बढ़ गई है। दिसंबर 2021 तक 14,202 जानबूझकर डिफ़ॉल्ट खाते थे, जिनमें 285,474 करोड़ रुपये और दिसंबर 2020 में 12,907 खाते थे, जिनमें 245,767 करोड़ रुपये थे।

समझौते का अर्थ है बातचीत के जरिए किए गया निपटान जहां उधारकर्ता अपनी ओर से बकाया से कम एकमुश्त राशि की पेशकश करता है और बैंक अपने बकाया के पूर्ण और अंतिम निपटान में कुल देय राशि से कम राशि स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाता है। इस निपटान में निश्चित रूप से एकमुश्त राशि के बदले बैंक कर्ज की बकाया राशि के एक हिस्से को बट्टे खाते में डालने या माफ करने को तैयार होता है।

6लाख बैंक कर्मचारी का प्रतिनिधित्व करने वाले ऑल इंडिया बैंक ऑफिसर्स कॉन्फेडरेशन (एआईबीओसी) और ऑल इंडिया बैंक एम्प्लॉइज एसोसिएशन (एआईबीईए) ने इस नीति का कड़ा विरोध करते हुए इसे वापस लेने की मांग की है। उनके अनुसार आरबीआई की यह 'समझौता निपटान और तकनीकी बट्टे खाते में डालने की रूपरेखा' “एक हानिकारक कदम है जो बैंकिंग प्रणाली की विश्वसनीयता को खत्म कर सकता है और जानबूझकर चूककर्ताओं से प्रभावी ढंग से निपटने के प्रयासों को कमजोर करेगा। यह न केवल बेईमान उधारकर्ताओं को पुरस्कृत करता है बल्कि उन ईमानदार उधारकर्ताओं को एक नकारात्मक संदेश भी भेजता है जो अपने वित्तीय दायित्वों को पूरा करने का प्रयास करते हैं। हमारा दृढ़ विश्वास है कि धोखाधड़ी या जानबूझकर डिफॉल्टर के रूप में वर्गीकृत खातों के लिए समझौता निपटान की अनुमति देना न्याय और जवाबदेही के सिद्धांतों का अपमान है।" एआईबीओसी के पूर्व महासचिव टी फ्रैंको के मुताबिक मोदी सरकार के तहत बैंकिंग धोखाधड़ी 17 गुना बढ़कर 2005-14 में 34,993 करोड़ रुपये से 2015-23 में 5.89 लाख करोड़ रुपये हो गई है।

बैंक ऋण भुगतान चूक पर रिजर्व बैंक के विचार पेंडुलम की तरह एक छोर से दूसरे छोर तक झूलते नजर आते हैं। इसकी शुरुआत 2016 में आरबीआई द्वारा एनपीए और धोखाधड़ी खातों के सख्त वर्गीकरण के निर्देश के साथ हुई। आरबीआई ने तब निर्देश दिया कि उधारकर्ताओं को जानबूझकर चूककर्ता और धोखेबाज घोषित करने से पहले सुनवाई का मौका भी नहीं दिया जाना चाहिए। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा, जिसने कहा कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को दरकिनार नहीं किया जा सकता। लगता है कि तब रिजर्व बैंक औपचारिक सुनवाई से बचना चाहता था क्योंकि इससे ऋण देने में बैंकों द्वारा की गईं गड़बड़ियां उजागर हो जातीं। ये मामला अभी भी कोर्ट में है। 20 जून को बॉम्बे हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के एक समूह को उनके ऋण को बिना सुनवाई के धोखाधड़ी घोषित करने पर अंतरिम राहत दे दी है। किंतु अब अगली सुनवाई में अदालत को बताया जाएगा कि पेंडुलम उलटा घूम गया है! बैंकों को अब 'जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों' और धोखाधड़ी वाले खातों से बकाया पैसे को 'समझौता निपटान' या 'तकनीकी रूप से बट्टे खाते में डालने' की अनुमति दे दी गई है। इतना ही नहीं, ऐसे फ्रॉड करने वालों पर परोपकार के तौर पर बैंक केवल 12 महीने की ‘कूलिंग अवधि’ के बाद उन्हीं डिफॉल्टरों को फिर से ऋण दे सकते हैं!

बैंकिंग प्रणाली, मुख्य रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, से पूरी बेशर्मी से बार-बार होने वाली भारी धोखाधड़ी सर्वविदित है। इसका नतीजा अनिवार्य रूप से बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट ऋण माफ़ी होता है, जिसका बोझ अंततः सभी भारतीयों को सरकारी खजाने के माध्यम से बैंक बेलआउट के रूप में उठाना पड़ता है। हालाँकि हालांकि कुछ व्यवसाय उधारकर्ता की गलती के बिना विफल हो सकते हैं, पर सबसे ज्यादा कर्ज भुगतान चूक हमेशा बैंकरों और उधारकर्ताओं के बीच मिलीभगत के कारण होती है। इनमें से कुछ को इरादतन चूककर्ताओं के रूप में वर्गीकृत किया गया है जो ऋण चुकाने में सक्षम हैं, लेकिन अनिच्छुक हैं। इसके बहुत सारे बड़े-बड़े उदाहरण हैं।

भ्रष्ट व्यवस्था का फायदा उठाने वाले ऐसे जालसाज कॉर्पोरेट उधारकर्ताओं के प्रति आरबीआई के सहानुभूतिपूर्ण नए रुख का मतलब है कि सार्वजनिक बैंकों द्वारा असाधारण रूप से बड़ी रकम नियमित रूप से बट्टे खाते में डाली जाती रहेगी। ऐसा केवल आम नागरिकों के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सामाजिक ढांचे (जैसे ग्रामीण भारत में बहुत आवश्यक पानी और बिजली परियोजनाओं) की कीमत पर ही हो सकता है। सार्वजनिक बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए ही यह सरकार अब तक 2.76 लाख करोड़ रुपये दे चुकी है।

हालांकि मोदी सरकार ने पूर्व कांग्रेस सरकार पर भ्रष्टाचार का इल्जाम लगाते हुए कर्ज वसूली के पक्के इंतजाम की बात कही थी, मगर सर्वविदित है कि इस सरकार द्वारा लाए गए दिवाला और दिवालियापन कानून (आईबीसी) के साथ पूरा खिलवाड़ किया जाता रहा है। वहाँ 80%-95% ऋण माफ़ी अब नियमित हो गई है और औसत वसूली 30% तक ही रह गई है। अनिल अंबानी समूह की रिलायंस कैपिटल और वीडियोकॉन समूह जैसे बड़े डिफॉल्टरों के लिए प्राप्त बोलियां संपत्ति के आंके गए कागजी मूल्य से काफी कम थीं। इन हाई-प्रोफाइल समूहों पर बैंकों का क्रमशः 40,000 करोड़ रुपये और 71,000 करोड़ रुपये बकाया है। दिसंबर 2022 में, निर्मला सीतारमण ने राज्यसभा को बताया था कि पिछले पांच वित्तीय वर्षों (वित्तीय वर्ष 2017-18 से 2021-22 तक) में वाणिज्यिक बैंकों द्वारा राइट ऑफ या ऋण माफ़ी 10.09 लाख करोड़ रुपये रही है।

यह सर्कुलर आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास के उस सार्वजनिक भाषण के कुछ ही दिनों बाद ही जारी किया गया है, जिसमें बैंकों द्वारा बही-खातों में जारी हेराफेरी को रेखांकित किया गया था। गवर्नर ने धोखाधड़ी वाले विशिष्ट तरीकों को चिन्हित किया था जिनके जरिए बैंक कारोबार में फर्जी तरक्की दिखाने के लिए खातों में हेराफेरी करते रहते हैं। उन्होंने उल्लेख किया था: 1) ऋण बिक्री और बायबैक के लिए दो ऋणदाताओं को एक साथ लाना; 2) बुरे ऋणों को छिपाने के लिए अच्छे उधारकर्ताओं को फंसे हुए उधारकर्ताओं के साथ सौदे करने के लिए राजी करना; और 3) ऋणों को नवीनीकृत करने के लिए खातों को कृत्रिम ढंग से व्यवस्थित करना और पुनर्भुगतान क्षमताओं का गलत आकलन दिखाना। इसके बावजूद आरबीआई बैंकों को जानबूझकर कर्ज न चुकाने वालों, जिनमें से कई विदेश भाग गए हैं, के साथ समझौता करने के लिए अधिक अधिकार दे रहा है!

महत्वपूर्ण बात यह है कि जानबूझकर किये गये डिफॉल्ट की कुल राशि का 85% यानी 292,865 करोड़ रुपये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का है। दिवालियापन कानून को ठीक करने के बजाय आरबीआई का यह नया सर्कुलर इन बैंकों में बड़ी मिलीभगत का द्वार खोल सकता है। इससे बैंक बोर्डों को 'समझौता निपटान' पर निर्णय लेने और दिवालियापन प्रक्रिया को पूरी तरह से दरकिनार करने की अनुमति मिल सकती है। याद रहे, बैंक बेलआउट पाने वाले सार्वजनिक बैंकों के बोर्ड राजनीतिक नियुक्तियों से भरे हुए हैं। राजनीतिक पहुंच वाले चार्टर्ड अकाउंटेंट और वकीलों को भी बैंक बोर्डों में स्वतंत्र निदेशक के रूप में नियुक्त किया गया है। वे ही अब समझौते पर निर्णय लेंगे।

बैंक डिफॉल्टरों के साथ इतनी उदारता का समय कई कारणों से अत्यधिक संदिग्ध है। देश आम चुनाव की ओर बढ़ रहा है जब उद्योग का समर्थन कई मायनों में महत्वपूर्ण हो जाता है - गुप्त इलेक्टरल बॉन्ड याद रखें। समझौता निपटान से कई भगोड़े डिफॉल्टरों को राहत मिलेगी, जैसे स्टर्लिंग बायोटेक समूह के संदेसरा (जो नाइजीरिया में एक संपन्न तेल व्यवसाय चला रहे हैं) या जतिन मेहता और सूरज डायमंड्स का परिवार (टैक्स हेवन के नागरिक के रूप में लंदन में महंगे मुकदमे लड़ रहे हैं)। हो सकता है कि बैंक विजय माल्या, नीरव मोदी और मेहुल चोकसी के खिलाफ भी मामले वापस ले लें और समझौता कर लें। ये सभी इस समय विदेश में शान से रहते हैं। फिर बहुत से इनसे छोटे कर्जदार भी हैं जो बैंकों द्वारा कर्ज पर समझौते के बदले शासक पार्टी की मदद कर सकते हैं।

आरबीआई सर्कुलर में उल्लेख किया गया है कि डिफॉल्टरों के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई जारी रहेगी, लेकिन यह अर्थहीन है। हालांकि सरकारी प्रवक्ता इस बात पर अड़े रहेंगे कि 'तकनीकी राइट-ऑफ' के बाद भी वसूली के लिए सख्ती जारी रहेगी, वित्त मंत्री ने खुद ही राज्यसभा को बताया है कि ऐसे ऋणों में से केवल 13% की ही वसूली होती है। याद रहे, हमारी जांच एजेंसियां गिरफ्तारियों के प्रचार के लिए जानी जाती हैं, सजा दिलाने के लिए नहीं! 10-20 साल बाद पता चलेगा कि इन डिफॉल्टरों ने ऐसे कई समझौतों और ‘कूलिंग अवधियों’ के बाद बार-बार कर्ज लिया होगा!

(लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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