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कर्नाटक चुनाव 2023 : लिंगायत व दलित नाराज़, बीजेपी मुश्किल में

जद (एस) दक्षिण और मध्य कर्नाटक में गेम स्पॉयलर बन रही है, इसके बावजूद कांग्रेस को अपने दम पर बहुमत मिलने की संभावना है और बीजेपी के सत्ता में लौटने की उम्मीद कम है।
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फ़ोटो साभार: PTI

कर्नाटक के कोलार में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक वीएसएस शास्त्री ने न्यूज़क्लिक को चुनाव पूर्व परिदृश्य का संक्षिप्त वर्णन करते हुए कहा, " दक्षिणी राज्य कर्नाटक में, जहां मई 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं, न केवल पहले से ही सत्ता-विरोधी रुख (anti-incumbency) दिखाई दे रही है, बल्कि भाजपा सरकार के खिलाफ लोकप्रिय जनभावना एक लहर जैसा आयाम ग्रहण कर रही है।"

इस सत्ता विरोधी लहर को किन कारकों ने ट्रिगर किया है और इसके ठोस राजनीतिक और सामाजिक अभिव्यक्तियां और प्रभाव क्या हैं? इन सवालों के जवाब खोजने से पहले, हम यह जांच लें कि यह एंटी-इनकंबेंसी कितनी मजबूत है और चुनावी लिहाज से यह बीजेपी के खिलाफ वोट प्रतिशत में कितना बड़ा स्विंग या बदलाव लाएगी; और बहुमत हासिल करने के लिए कांग्रेस को अपने पक्ष में कितना स्विंग चाहिए।

2018 विधानसभा चुनाव और 2019 लोकसभा चुनाव में वोटिंग पैटर्न

पिछले पांच वर्षों में अर्जित भाजपा के चुनावी लाभ इस सत्ता-विरोधी लहर के मौजूदा जादू से धुल सकते हैं। दरअसल, कर्नाटक में 2018 के विधानसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न में एक अजीब विरोधाभास था। 36.35% वोट शेयर के साथ, बीजेपी ने 224 सदस्यीय कर्नाटक विधानसभा में 104 सीटें जीतीं थीं, हालांकि, 38.14% के उच्च वोट शेयर के साथ कांग्रेस केवल 80 सीटें जीत सकी थी। 113 के बहुमत तक नहीं पहुंचने के बावजूद, सबसे बड़ी पार्टी के रूप में, भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया गया और बाद में ऑपरेशन लोटस 2.0 के माध्यम से भाजपा ने बहुमत हासिल किया। यानी इसने कांग्रेस के उन 17 विधायकों को खरीद लिया, जिन्हें कांग्रेस से इस्तीफा देना पड़ा था। वे भाजपा में शामिल हो गए। उन्हें अध्यक्ष द्वारा अयोग्य घोषित किया गया था और सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी अयोग्यता को बरकरार रखा था, लेकिन उन्हें उपचुनाव लड़ने की अनुमति दी गई थी। उनमें से कई ने भाजपा के टिकट पर अपने निर्वाचन क्षेत्रों में उपचुनाव लड़ा और सत्ताधारी भाजपा द्वारा धन बल और प्रशासनिक मशीनरी के दुरुपयोग से उन्होंने जीत हासिल की।

येदियुरप्पा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में पहले दिन से ही वैधता का अभाव था। कई भ्रष्टाचार, घोटालों और कुशासन के आरोपों ने उनकी सरकार को हिला दिया। भाजपा राज्य सरकार की इस खराब छवि के बावजूद, कर्नाटक में 2019 के लोकसभा चुनावों में, मोदी फैक्टर की बदौलत, भाजपा के पक्ष में 8.38% वोटों का बड़ा उछाल आया। 51.38% मतों के साथ भाजपा के वोट शेयर में कांग्रेस से 20% की बढ़त थी और कर्नाटक की 28 लोकसभा सीटों में से 25 पर जीत हासिल की, जबकि कांग्रेस 31.88% मतों के साथ मुश्किल से एकमात्र सीट जीतने में सफल रही। जद (एस) और अभिनेत्री सुमलता, जो भाजपा समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार थीं, ने शेष दो सीटों पर जीत हासिल की।

2018 के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने 104 सीटों की जीत की तुलना में 2019 के लोकसभा चुनावों में 177 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त बनाई थी। क्या अब बीजेपी इस आंकड़े तक पहुंच पाएगी?

यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के पक्ष में 8.38% का स्विंग 2018 में भाजपा के पक्ष में इसी तरह के 16% वोटों के बाद आया था; यह 2013 के विधानसभा चुनावों में था जब कांग्रेस सत्ता में आई थी। इससे पता चलता है कि पिछले एक दशक में कर्नाटक में बीजेपी का वोट शेयर लगातार बढ़ रहा है; कई विश्लेषकों का मानना है कि बीजेपी का चुनावी विस्तार 2019 में चरम पर था और तब से गिरावट पर है।

आइए हम 2019 के बाद से भाजपा के पतन का ग्राफ देखें। 2019 में सफल प्रदर्शन के बावजूद भी भाजपा के भीतर मजबूत आंतरिक असंतोष विकसित हुआ और कई विधायकों ने नेतृत्व परिवर्तन की मांग की। अलोकप्रियता के डर से आरएसएस भी चाहता था कि येदियुरप्पा चले जाएं। येदियुरप्पा ने झुकने से इनकार कर दिया। केवल उनके बेटे के खिलाफ प्रवर्तन निदेशालय (Enforcement Directorate) की कार्रवाई की धमकी के तहत, मोदी-अमित शाह की जोड़ी येदियुरप्पा को इस्तीफा दिलाने में कामयाब रही। येदियुरप्पा का कोई लोकप्रिय विकल्प नहीं था। बोम्मई को मुख्यमंत्री पद के लिए एकमात्र इस कारण चुना गया था कि वह उसी लिंगायत समुदाय से थे, जिसके येदियुरप्पा थे, और जो भाजपा का मुख्य आधार स्तम्भ हुआ करते थे।


बोम्मई प्रभावी शासन (effective governance) की समस्या का समाधान नहीं कर सके। इसलिए, उन्होंने खुलेआम सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा लिया। हालांकि वह एक प्रगतिशील परिवार से थे, और उनके पिता लोहियावादी थे, उन्होंने योगी और हेमंत बिस्वा सरमा के साथ सबसे उग्र सांप्रदायिक मुख्यमंत्री के खिताब के लिए प्रतिस्पर्धा शुरू कर दी।

कर्नाटक को भगवा प्रयोगशाला में बदलना

संघ परिवार के लिए कर्नाटक उस अर्थ में एक भगवा प्रयोगशाला बन गया था कि वह उस राज्य में अपने आधार को और पुख्ता करना चाह रहा था जहां बीजेपी पहले से ही सत्ता में थी। उन्होंने सुशासन के मॉडल के साथ, किसान-हितैषी सरकार चलाकर और बेरोजगारी से निपटने के लिए एक सकारात्मक राज्य-स्तरीय मॉडल स्थापित करके अपनी पकड़ मजबूत करने की कोई कोशिश नहीं की। बल्कि, संघ परिवार का मुख्य जोर तो सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति को गहरा करना था, चाहे हिजाब के मुद्दे पर सत्ताधारी दल की भूमिका हो या फिर हलाल मांस विवाद, इत्यादि।

कन्नड़ के एक प्रसिद्ध स्तंभकार दिवाकर ने न्यूज़क्लिक को बताया: "मस्जिदों और गिरजाघरों में लाउडस्पीकरों के उपयोग पर रोक लगाकर सत्ता पर काबिज भगवा पार्टी अल्पसंख्यकों पर भारी पड़ी और खुले सार्वजनिक स्थानों पर उनके द्वारा पूजा पर प्रतिबंध लगा दिया। उन्होंने क्रिसमस कैरल (Christmas Carols) पर भी प्रतिबंध लगा दिया। कर्नाटक अब छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों और यहां तक कि ओडिशा और झारखंड जैसे राज्यों से भी आगे है, जहां धर्मांतरण और लव जिहाद का हौवा खड़ा करके ईसाइयों और गिरजाघरों पर हमले किए गए। बाबा बुदनगिरी जैसे कुछ अन्य राजनीतिक रूप से प्रायोजित सांप्रदायिक मुद्दे भी सामने आए थे। क्या ये वास्तव में सफल हुए हैं? क्या उन्होंने सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को इतना गहरा किया है कि वह एक स्थिर हिंदुत्व वोट-बैंक को मजबूत कर सके? दिवाकर ने कहा, "चुनाव की पूर्व संध्या पर, मौजूदा स्थिति स्पष्ट करती है कि इन सभी भगवा प्रयोगशाला वाले प्रयोगों ने, शायद तटीय कर्नाटक के कुछ इलाकों को छोड़कर,अपेक्षित परिणाम नहीं दिए हैं।"

वास्तव में, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के ये सभी प्रयास राज्य में शोचनीय कोविड-19 कुप्रबंध पर लोगों के गुस्से को भटकाने के हताश प्रयास थे। जबकि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कर्नाटक में सबसे तेज था, कर्नाटक एक ऐसा राज्य भी है जहां सांप्रदायिक राजनीतिक ध्रुवीकरण के प्रभाव की अवधि सबसे कम साबित हुई। स्पष्ट रूप से यह इसलिए, कि किसानों के गुस्से और बेरोजगारी को लेकर युवाओं के असंतोष और मूल्य वृद्धि के खिलाफ आम जन आक्रोश ने स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक भावनाओं को दबा दिया। सर्वोपरि, शासन में अपने दयनीय प्रदर्शन के साथ, "40% वाली सरकार" के रूप में एक अद्वितीय गौरव अर्जित करने वाली भाजपा सरकार ने अपने भाग्य को सील कर दिया। यह टैग राज्य में ठेकेदारों के संघ द्वारा एक घोटाले के बाद दिया गया था, जिसमें भाजपा मंत्री के. ईश्वरप्पा ने कथित रूप से रिश्वत के रूप में 40%लिया था, और यह बात आम लोगों के दिमाग में घर कर गई।"

2019 में कर्नाटक में जिस मोदी फैक्टर ने क्लिक किया, वह मुख्य रूप से मुफ्त गैस कनेक्शन, मुद्रा ऋण और किसानों को नकद ट्रांसफर आदि था। किसानों को कैश ट्रांसफर को छोड़कर, अन्य सभी रियायतें (sops) लगभग बंद हो गई हैं। केवल मुफ्त खाद्यान्न योजना नई है। लेकिन इसकी 2023 में वैसी प्रमुखता नहीं होगी, जैसी 2019 में मोदी की अन्य रियायतों में थी।

चुनाव की पूर्वबेला में सामाजिक प्रवाह

कर्नाटक 2023 के चुनावों की पूर्वबेला में एक सामाजिक प्रवाह दिख रहा है। एक शक्तिशाली सत्ता-विरोधी लहर के साथ-साथ संभावित सामाजिक-राजनीतिक बदलाव की दृष्टि से एक मजबूत संकेत यह है कि टिकट के इच्छुक लिंगायत भाजपा में जाने की तुलना में कांग्रेस मुख्यालय के दरवाजे पर अधिक संख्या में दस्तक दे रहे हैं। राज्य की 14% आबादी वाले लिंगायतों के पास भाजपा से नाराज होने के पर्याप्त कारण हैं। दिसंबर 2022 में, लिंगायतों के बीच प्रमुख उप-जाति, लाखों पंचमशाली लिंगायत राज्य में लागू की जा रही बेहद जटिल कंपार्टमेंटल आरक्षण प्रणाली में अपने उप-कोटा में वृद्धि की मांग को लेकर सड़कों पर उतरे। इससे पहले लिंगायत मठ के कुछ प्रमुख संतों ने समुदाय के लिए एक अलग धार्मिक स्टेटस की मांग करते हुए रैली की और दावा किया कि लिंगायत हिंदू धर्म से संबंधित नहीं थे। अब जब लिंगायत "स्ट्रोंगमैन" येदियुरप्पा भी बाहर हैं, भाजपा लिंगायत वोटों के मामले को हल्के में नहीं ले सकती।

दूसरा प्रमुख उच्च जाति समुदाय वोक्कालिगा है। पहले, वे मुख्य रूप से जद (एस) और देवेगौड़ा के पीछे थे। लेकिन जद (एस) का वोट शेयर 2013 में लगभग 18% से धीरे-धीरे घटकर 2019 में 10% से कम हो गया। डीके शिवकुमार के केपीसीसी (KPCC)अध्यक्ष के रूप में उभरने के साथ-साथ, कांग्रेस, जिसकी वोक्कालिगा समुदाय के बीच, एसएम कृष्णा के चलते हमेशा दोयम उपस्थिति थी, जद (एस) को कड़ी टक्कर देगी और इस बार अधिक वोक्कालिगा वोट आकर्षित करेगी क्योंकि शिवकुमार वोक्कालिगा समुदाय से हैं। एक कथित मनी लॉन्ड्रिंग मामले में सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय (ED) द्वारा शिवकुमार पर बार-बार की गई छापेमारी और गिरफ्तारी ने लिंगायत बोम्मई के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ समुदाय के बीच गुस्सा भी पैदा किया है। वोक्कालिगा इसे समुदाय के खिलाफ विच-हंट के रूप में देखते हैं।

हालांकि, सिद्धारमैया कुरुबा समुदाय से आने वाले एक प्रमुख ओबीसी नेता थे, लेकिन 2019 और 2018 में अधिकांश ओबीसी बीजेपी के साथ थे। 2023 के चुनावों में, सिद्धारमैया ओबीसी के बीच अधिक अपील के साथ उभर रहे हैं। भाजपा कांग्रेस में डीके शिवकुमार और सिद्धारमैया के बीच प्रतिद्वंद्विता की उम्मीद कर रही है, लेकिन दोनों कांग्रेस की जीत की उम्मीद कर रहे हैं, इसलिए अपने खेमे में विधायकों की संख्या बढ़ाने के इच्छुक हैं और चुनाव से पहले शोडाउन से बच रहे हैं।

दलितों का भाजपा से अलगाव

दलितों के एक वर्ग ने 2018 और 2019 में भी भाजपा को वोट दिया था। फादर मनोहर चंद्र प्रसाद, जो कर्नाटक में दलित संगठनों के समन्वय के सलाहकार हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया कि कई दलित भाजपा से तंग आ चुके हैं और कांग्रेस में वापस लौट रहे हैं। फादर प्रसाद, जो एक सक्रिय पादरी हैं, ने कहा: “मोदी बार-बार कर्नाटक का दौरा करते हैं, लेकिन शायद ही बड़ी भीड़ को आकर्षित कर पाते हैं, जबकि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में बड़ी संख्या में दलितों सहित लाखों लोग शामिल हुए। बीजेपी ने हिंदुत्व कार्ड को ओवरप्ले किया और बसावेशरा और अन्य जाति-विरोधी सुधारों की एक मजबूत विरासत वाले कर्नाटक में इसका उल्टा असर हुआ। जैसे ही आरएसएस और बीजेपी ने उच्च जाति के नेतृत्व को मजबूत किया, दलित अलग-थलग पड़ गए। उन्होंने ऑपरेशन कमला को जमीनी स्तर तक फैलाया और दलितों के बीच स्थानीय शक्ति समूहों का समर्थन खरीदने के लिए बहुत पैसा खर्च किया। लेकिन दलितों की मेहनतकश जनता उनके वर्ग-जाति चरित्र के कारण उनके साथ अधिक समय तक नहीं टिक सकी।

कर्नाटक में मुस्लिम राजनीति

अल्पसंख्यक मुसलमान बड़े पैमाने पर कांग्रेस को वोट देते थे। जद (एस) के गढ़ में जीतने वाले उम्मीदवारों के लिए केवल एक छोटा वर्ग वोट करता था। लेकिन जमीनी रिपोर्ट से संकेत मिलता है कि AIMIM और SDPI आने वाले विधानसभा चुनावों में 100-100 सीटों पर चुनाव लड़ने की योजना बना रहे हैं। AIMIM का हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र के तेलुगू भाषी क्षेत्रों में मुसलमानों के बीच कुछ छोटे प्रभाव क्षेत्र हैं जबकि SDPI तटीय जिलों में अपेक्षाकृत मजबूत है। चूंकि SDPI, PFI के उग्रवाद से जुड़ा हुआ है, जिस पर बजरंद दल, आरएसएस और भाजपा के आधा दर्जन से अधिक उग्रवादी हिंदू नेताओं की मौत के लिए जिम्मेदार होने का आरोप लगाया जा रहा है, इसका युवाओं के बीच कुछ प्रभाव है। लेकिन ये दोनों संगठन मुस्लिम वोटों का एक छोटा हिस्सा ही छीन सकते हैं।

छोटे दल भाजपा को ही नुकसान पहुंचाएंगे

कुछ साल पहले आप (AAP) के लिए जो उत्साह देखा गया था, वह अब गायब हो गया है। के. चंद्रशेखर राव की नवगठित बीआरएस (BRS) ने जद (एस) के साथ गठबंधन किया है और यह तेलंगाना से लगे तेलुगू भाषी सीमावर्ती क्षेत्रों में कुछ वोट हासिल कर सकती है। लेकिन ये मुख्य रूप से बीदर, गुलबर्गा, रायचूर और बेल्लारी में बीजेपी, खासकर रेड्डीज़ के वोट छीनेंगे। बेल्लारी के जनार्दन रेड्डी के नेतृत्व वाले खनन माफिया ने भाजपा से नाता तोड़ लिया है और अपनी पार्टी बनाई है। यह बेल्लारी और उसके आसपास के कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकता है। बैंगलोर के निर्वाचन क्षेत्रों में प्रवासी तमिल और तेलुगू मजदूर कांग्रेस को वोट देंगे और बैंगलोर में वे एक निर्णायक चुनावी ताकत हैं।

सत्ता में रहते हुए भाजपा किसी भी कल्पनाशील विकासात्मक कार्यक्रम के साथ नहीं आ सकी जो लोगों की भावना को जीत सके। मोदी पहले से ही "रेवड़ी" (मुफ्त उपहार) के खिलाफ उपदेश दे रहे हैं, इसलिए कर्नाटक भाजपा के हाथ आकर्षक व लोकलुभावन “फ्रीबीज़” देने के मामले में बंधे हैं।

2018 के चुनावों में, कांग्रेस ने 3000 से कम मतों के अंतर से 13 सीटें जीतीं। भाजपा अपने धन बल से वोट खरीदकर ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में परिणाम बदलने की कोशिश करेगी। वीएसएस शास्त्री के अनुसार, ‘गोइंग रेट’ 500 रुपये प्रति वोट है और कुछ महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों में यह दोगुना या चौगुना भी हो सकता है। जैसा कि कर्नाटक का परिणाम 2024 के मतदान को प्रभावित करने में एक महत्वपूर्ण कारक साबित हो सकता है, शास्त्री आने वाले चुनावों में धन बल की बड़ी भूमिका देखते हैं।

एक समग्र बैलेंसशीट तैयार करने पर, हम कह सकते हैं कि कांग्रेस के पास स्पष्ट बढ़त है। जद (एस) दक्षिण और मध्य कर्नाटक में गेम स्पॉयलर बन रही है, इसके बावजूद कांग्रेस को अपने दम पर बहुमत मिलने की संभावना है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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