कश्मीर: कम मांग और युवा पीढ़ी में कम रूचि के चलते लकड़ी पर नक्काशी के काम में गिरावट
नक्काशीदार अखरोट की लकड़ी का काम कश्मीर के सबसे प्रमुख शिल्पों में से एक है, जो इस क्षेत्र में दशकों से प्रचलित रहा है। वर्तमान में, कश्मीर उन कुछ इलाकों में से एक है जहाँ आज भी अखरोट उगाया जाता है। अखरोट की लकड़ी काफी मजबूत होने के साथ-साथ लंबे समय तक चलती है। महीन दानेदार होने और समतल बनावट भी होने के कारण इसमें बारीक और विस्तृत काम करने में काफी सहूलियत रहती है। इसमें सिर्फ पॉलिश की गई सतहों का उपयोग भी इसे देखने में काफी आकर्षक बना देता है।
कश्मीरी नक्काशी कारसाज विस्तृत एवं विलक्षण डिजाइनों को बनाने में बेहद ख़ुशी महसूस करते हैं। नक्काशीदार वस्तुओं पर अक्सर गुलाब, कमल, आँख की पुतली, अंगूरों के गुच्छे, नाशपाती और चिनार के पत्ते देखने को मिलते हैं। कानी और कशीदाकारी शालों में ड्रैगन थीम और डिजाइन लकड़ी की वस्तुओं पर गहरी-राहत भरी नक्काशी देखने को मिलती हैं। घाटी में हजारों लोग अपने जीवन-यापन के लिए पारंपरिक लकड़ी की नक्काशी पर निर्भर हैं। लेकिन लकड़ी की वस्तुओं के अनियंत्रित आयात की वजह से यह विशिष्ट विरासत अब गुमनामी के साथ खत्म होती जा रही है।
35 वर्षीय शेख इमरान एक वकील बनना चाहते थे। उनका परिवार कश्मीर की लकड़ी की नक्काशी की सदियों पुरानी पारंपरिक कला में शामिल रहा है। उनका सपना तब टूटकर बिखर गया जब उन्होंने देखा कि कश्मीर में लकड़ी की नक्काशी का काम अचानक से काफी कम हो गया है।
इमरान कहते हैं, “हमारे क्षेत्र में, आजकल लकड़ी पर नक्काशी का काम सबसे बुरी तरह से प्रभावित हुआ है।”
पूर्व में, कश्मीरी बढ़ई और कलाकार लकड़ी पर विलक्षण चित्रकारी छापने के लिए मशहूर थे, और घरों एवं पुराने भवनों को लकड़ी के दरवाजों से सजाया जाता था।
स्थानीय कलाकारों का ऐसा मानना है कि पहले, सिर्फ राज्य के भीतर ही नहीं बल्कि राज्य के बाहर से भी लकड़ी पर नक्काशी के उत्पादों की भारी मांग रहा करती थी। हालाँकि, अब चूँकि उपभाक्ताओं ने बाजार में उपलब्ध पहले से निर्मित चीजों को प्राथमिकता देना शुरू कर दिया है, इसलिए मांग अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच गई है।
इस कला से जुड़े हुए कारीगरों को इसका सबसे ज्यादा नुकसान झेलना पड़ा है।
इमरान ने न्यूज़क्लिक को बताया, “मेरा मानना है कि लकड़ी पर नक्काशी की कला में विकास की कमी के चलते इसका पतन हुआ है।”
जब कभी भी इमरान कानून के छात्रों को क़ानूनी वेशभूषा में देखते हैं, उनका दिल भर आता है। हालाँकि उन्होंने वकील बनने के लिए कानून में स्नातक की पढ़ाई की हुई है, लेकिन अब उन्हें अपनी लकड़ी की नक्काशी की दुकान पर बैठना पड़ता है, जिसे उनके पूर्वज पिछले 40 सालों से श्रीनगर के पारिमपोरा इलाके में चला रहे हैं।
इमरान ने न्यूज़क्लिक के साथ अपनी बातचीत में बताया कि कश्मीर में बेरोजगारी अपने चरम पर है, और जब इस क्षेत्र में जीएसटी को लागू किया गया तो उनका व्यवसाय इससे बुरी तरह से प्रभावित हुआ था।
उन्होंने बताया, “हमें दिल्ली, बैंगलोर, कलकत्ता आदि से ऑर्डर मिला करते थे। हाल के दिनों में, हमें बड़ी मुश्किल से ही ऐसे आर्डर मिलते हैं।
इमरान का मानना है कि पिछले चार वर्षों में अंतर्राष्ट्रीय शिपिंग का भी निजीकरण कर दिया गया है।
उन्होंने बताया, “वर्षों पहले, ग्राहक को 4,500 रूपये में हाथ से बने डिजाइन वाले लकड़ी के दरवाजे मिल जाया करते थे। आज वही लकड़ी-पर नक्काशीदार दरवाजे को लगभग 8,500 रूपये में बेचा जा रहा है। आम लोगों के लिए इसे खरीद पाना संभव नहीं रह गया है। इसके चलते इसमें भारी गिरावट देखने को मिल रही है।”
लकड़ी की नक्काशी के कारोबार से जुड़े, 46 वर्षीय, मेहराज-उद्दीन सोफ़ी ने बताया कि यह कला अब अपने ‘विलुप्त’ होने की कगार पर खड़ी है। उनका कहना था कि विदेशी लकड़ी से बने लकड़ी के सामान के आयात के कारण, स्थानीय स्तर पर लकड़ी की नक्काशीदार वस्तुओं की मांग में भारी कमी आ गई है, जो कि स्थानीय वस्तुओं की तुलना में सस्ती भी पड़ती हैं।
धारा 370 को निरस्त किये जाने से पहले, ग्राहकों को 700-800 क्यूबिक फीट की घुमावदार लकड़ी बेची जा रही थी। इसकी लागत अब दोगुनी होकर 1,200 रूपये हो गई है, जिसे खरीद पाना अब स्थानीय लोगों की सामर्थ्य से बाहर हो चुका है।
इन आयातित लकड़ी की वस्तुओं की मशीनों के द्वारा छपाई की जाती है, और बारीकी से तैयार किये गये स्थानीय उत्पादों की तुलना में ये सस्ते हैं।
इमरान जैसे सैकड़ों अन्य लोग हैं जिन्होंने अपने सपनों को एक तरफ रख, कला और लकड़ी की नक्काशी को अगली पीढ़ी तक ले जाने के लिए अपने परिवारों की विरासत का पालन करने का काम किया है।
हालाँकि, सोफ़ी इस बारे में गंभीर चिंता जताते हुए कहते हैं कि उनके बच्चों को इस कला में कोई दिलचस्पी नहीं है। कई कारीगरों के बच्चे अपनी दुकानों में लकड़ी पर नक्काशी करने के काम से कतराते हैं।
“इस परंपरा को जीवित रखने के लिए इसे समर्थन देने और जरुरी कार्यबल की आवश्यकता है। स्थानीय बढ़ई और नवोदित कारीगरों में लकड़ी की नक्काशी को लेकर कोई चिंता नहीं दिखाई देती है; जिसके चलते यह व्यापार और ज्यादा प्रभावित हुआ है और इसके पतन की एक वजह यह भी है।”
सोफ़ी उन दिनों को याद करते हैं जब उनके पास 30-40 बाहर के आदमी हुआ करते थे जो उनके साथ साल भर काम किया करते थे। हालात अब पहले से काफी बदल चुके हैं। उनके सभी सहयोगियों ने नाता तोड़ लिया है और अलग-अलग काम धंधों को शुरू कर दिया है।
सोफ़ी ने कहा कि वे भी अब कश्मीर में लकड़ी पर नक्काशी के काम की गैर-लाभकारी स्थिति को देखते कोई नया काम शुरू करना चाहते हैं।
एक अन्य कारीगर, 47 वर्षीय अब्दुल मजीद डार पिछले 27 वर्षों से बडगाम में लकड़ी पर नक्काशी की अपनी दुकान चला रहे हैं। उनका आरोप था कि कश्मीर में बाहरी लोगों ने लकड़ी की नक्काशी का धंधा शुरू कर दिया है। जम्मू-कश्मीर का वन विभाग कश्मीर के नागरिकों को सिर्फ लकड़ी की नक्काशी की दुकानें चलाने का लाइसेंस जारी करता है।
डार ने न्यूज़क्लिक को बताया, “मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि वे कश्मीर में अपनी दुकानें कैसे खोल रहे हैं। लकड़ी की नक्काशी की दुकान चलाने के लिए किसी को भी लकड़ी, अखरोट के पेड़ों की लकड़ियाँ, और अन्य उत्पादों की जरूरत पड़ती है। ये गैर-स्थानीय लोग यहाँ पर गैरकानूनी तरीके से इन दुकानों को चला रहे हैं, जिससे बड़े पैमाने पर स्थानीय लोगों का व्यापार प्रभावित हो रहा है।”
डार ने कहा कि अपनी वस्तुओं को प्रदर्शित करने के लिए उन्हें एक मंच की कमी महसूस हो रही है। लेकिन उन्हें ख़ुशी है कि हस्तशिल्प विभाग ने उनसे संपर्क किया है।
उन्होंने कहा, “हमें भरोसा है कि श्रीनगर को यूनेस्को का दर्जा अखरोट की लकड़ी पर नक्काशी की लुप्तप्राय होती कला को पुनर्जीवित करने में मददगार साबित होगा।”
पिछले साल, श्रीनगर को यूनेस्को की 2021 की शिल्प एवं लोक कला की प्रतिष्ठित सूची में जोड़ा गया था। लकड़ी पर नक्काशी करने वाले कारीगरों को भरोसा है कि इससे लुप्तप्राय होती कला को पुनर्जीवित करने में मदद मिल सकती है।
इस गिरावट का हवाला देते हुए, डार ने आगे कहा कि लकड़ी की नक्काशी करने वाले कारीगरों को घाटी भर में स्थानीय लोगों से पर्याप्त मात्रा में अखरोट के उत्पाद नहीं मिल पा रहे हैं।
जम्मू-कश्मीर निर्दिष्ट वृक्ष संरक्षण अधिनियम, 1969 के अनुसार, अखरोट के पेड़ों की कटाई पर पूर्ण रोक लगा दी गई थी। डार का कहना है कि अखरोट के पेड़ को मुख्य रूप से कश्मीर में लकड़ी की नक्काशी करने में इस्तेमाल किया जाता है, और उनकी अत्यधिक मांग बनी रहती है। अखरोट के पेड़ को काटने पर लगी पाबंदी का सीधा असर उनकी आजीविका पर पड़ता है।
डार ने आगे बताया, “1969 के अधिनियम के कारण, कोई व्यक्ति न तो अखरोट के पेड़ को काट सकता है और न ही कांट-छांट कर सकता है। राजस्व अधिकारियों से इजाजत मिलने के बाद ही लोग इसे काट सकते हैं। औउर इस सारी प्रकिया में काफी समय खर्च होता है। इस वजह से भी लकड़ी की नक्काशी का काम घट गया है।”
कश्मीर बागवानी विभाग ने कश्मीर घाटी में अखरोट के पेड़ों को काटने पर लगी रोक को हटाने की सिफारिश की है। यह सुझाव 1969 में प्रतिबंध लागू किये जाने के पांच दशक बाद की गई है।
ऐसा अनुमान है कि 700 ईरानी शिल्पकार कश्मीर में आये थे और उन्होंने कश्मीरी लोगों को कालीन, अखरोट की लकड़ी पर नक्काशी, कागज बनाने की मशीन और कई अन्य हस्तशिल्प बनाना सिखाया जिसे आज भी किया जाता है।
स्थानीय लोगों का मानना है कि शाही हमदान 14 वीं शताब्दी में तीन दफा कश्मीर में इस्लाम की शिक्षाओं के प्रसार के एक नेक लक्ष्य के साथ आये थे। इस्लाम के प्रसार के अलावा, उनके अनुयायी कश्मीर में लकड़ी पर नक्काशी की अवधारणा को भी साथ लेकर आये।
नाम न छापे जाने की शर्त पर हथकरघा विभाग के एक अधिकारी ने न्यूज़क्लिक को बताया कि इस बात की संभावना काफी प्रबल है कि मांग में बदलाव और बाजार की जरूरतों में बदलाव के कारण कश्मीर अपनी पारंपरिक कला को हमेशा के लिए खो सकता है। उन्होंने कहा कि कारीगरों को अब इस व्यापार को पुनर्जीवित करने के लिए नए और आकर्षक डिजाइनों को विकसित करना होगा, जिससे कि विदेशी पर्यटक भी इसके प्रति आकर्षित हो सकें।
अधिकारी ने कहा, “मेरा अनुमान है कि लकड़ी पर नक्काशी एक 600 साल पुरानी पारंपरिक कला है। इसने कुछ समय तक काम कीया क्योंकि यह पुरानी शैली के उत्पादों तक सीमित थी। और पर्यटकों से लेकर स्थानीय लोगों तक, वे इसे लेने को प्राथमिकता नहीं देते हैं। वक्त का यही तकाजा है कि पुराने डिजाइनों के स्थान पर नए-नए डिजाइनों से बदल दिया जाये। कई कला के उस्तादों का इस बीच निधन हो गया जो इस मृतप्राय कला को पुनर्जीवित करने के लिए दिन-रात मेहनत कर रहे थे। लेकिन नई पीढ़ी इसकी प्रसिद्धि को पुनर्जीवित करने के लिए तैयार नहीं है।”
इरशाद हुसैन और मुबाशिर नाइक श्रीनगर, कश्मीर में रहकर स्वतंत्र पत्रकारिता से सम्बद्ध हैं। इरशाद हुसैन @irshad55hussain और मुबाशिर नाइक @sule_khaak. हैंडल से ट्वीट करते हैं।
अंग्रेजी में मूल रूप से लिखे लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें
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