पार्टी और सरकार को जेब में रख कर राजनीति करते केजरीवाल
आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की तरह ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, एमके स्टालिन, उद्धव ठाकरे, हेमंत सोरेन, जगनमोहन रेड्डी, के. चंद्रशेखर राव जैसे मुख्यमंत्री भी अपनी-अपनी पार्टी के खुद मुखत्यार हैं, लेकिन केजरीवाल का राजनीतिक अंदाज और शासन करने की शैली इन सबसे जुदा है। महत्वाकांक्षा और प्रचार प्रियता में भी इनमें से कोई मुख्यमंत्री उनके मुकाबले में दूर-दूर तक नहीं है।
पिछले सात साल से दिल्ली में आधे अधूरे अधिकारों से युक्त सरकार सरकार चला रहे अरविंद केजरीवाल की अखिल भारतीय महत्वाकांक्षाएं फिर आकार लेने लगी हैं। इसलिए उन्होंने मुफ्त बिजली-पानी, दिल्ली परिवहन निगम डीटीसी की बसों में महिलाओं के लिए मुफ्त सफर की सुविधा आदि के जरिए वोट की व्यवस्था कर अपनी सरकार को ऑटो पायलट मोड में डाल दिया है और वे दिल्ली से बाहर दूसरे राज्यों की राजनीति में व्यस्त हो गए हैं।
अगले वर्ष के शुरू में यानी कुछ ही महीनों बाद उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा और मणिपुर में तथा साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव होना है। इनमें से मणिपुर को छोड़ कर बाकी सभी राज्यों में आम आदमी पार्टी चुनाव के जरिए अपने पैर जमाने की तैयारी कर रही है। अरविंद केजरीवाल हर सप्ताह दो या तीन दिन इन्हीं राज्यों का दौरा कर रहे हैं। वे वहां जाकर मुफ्त बिजली और पानी देने का ऐलान कर रहे हैं। रोजगार को लेकर तो वे ऐसे-ऐसे वादे और दावे कर रहे हैं, जिसे सुन कर दिल्ली के लोग भी हैरान-परेशान हैं। वे सोच रहे हैं कि आखिर उनका क्या अपराध है जो दिल्ली में सात साल से सरकार चला रहे केजरीवाल दिल्ली में रोजगार की वैसी योजना नहीं लागू कर पा रहे हैं।
केजरीवाल अभी ज्यादा सक्रियता पंजाब और उत्तराखंड में दिखा रहे हैं। वैसे उन्होंने गुजरात और हिमाचल प्रदेश का दौरा भी किया है और उत्तर प्रदेश भी उनको जाना है। इसी बीच वे पिछले दिनों 10 दिन के लिए राजस्थान के एक विपश्यना केंद्र में भी रह आए हैं। अपने प्रदेश और अपनी सरकार के प्रति इतने बेफिक्र मुख्यमंत्री के तौर पर केजरीवाल के अलावा किसी मुख्यमंत्री का नाम याद नहीं आता।
केजरीवाल की पार्टी पंजाब विधानसभा में तो पहले से ही मुख्य विपक्षी दल है, वहां से पिछली लोकसभा में उसके तीन सदस्य थे और इस लोकसभा में भी एक सदस्य है, लिहाजा वहां तो निर्विवाद रूप से उसका चुनाव लड़ने का दावा बनता है। लेकिन उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और गोवा में उसका न तो कोई आधार और न ही कोई संगठन। इन तीनों प्रदेशों में उसके पास ऐसा कोई चेहरा भी नहीं है जिसको आगे कर वह चुनाव लड़ सके और मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सके। इसके बावजूद पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल दिल्ली में अपनी सरकार को 'ऑटो पायलट मोड’ में डाल कर इन राज्यों का दौरा कर रहे हैं और तरह-तरह के लोकलुभावन वादे कर ताल ठोक रहे हैं।
इन तीन राज्यों के अलावा अगले वर्ष के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी उतरने का ऐलान आम आदमी पार्टी की ओर से किया गया है। बिना किसी आधार या संगठन के इन राज्यों में आम आदमी पार्टी के चुनाव मैदान में उतरने का सीधा मकसद भाजपा को फायदा पहुंचाना दिख रहा है। उनके इस मकसद की एक झलक हाल ही में गुजरात के गांधीनगर में हुए नगर निगम चुनाव में भी देखने को मिली है, जहां उसे तो महज एक ही सीट हाथ लगी लेकिन उसकी वजह से भाजपा को लंबे समय बाद भारी-भरकम बहुमत मिल गया और कांग्रेस को महज दो सीटें ही मिल सकीं।
हालांकि ऐसा नहीं है कि केजरीवाल की इस रणनीति से उनकी पूरी पार्टी ही सहमत हो। पार्टी के संस्थापकों में शुमार उनके ही कुछ वरिष्ठ सहयोगी भी मानते हैं कि जिन राज्यों में पार्टी का आधार नहीं है, वहां चुनाव लड़ने से सीधे-सीधे भाजपा को ही फायदा होगा। लेकिन ऐसा मानने वाले यह भी जानते हैं कि केजरीवाल से असहमति जताना बेहद जोखिम भरा है, इसलिए वे चुप रहते हैं।
केजरीवाल का सरकार चलाने का अंदाज भले ही दूसरे मुख्यमंत्री से अलग हो, मगर पार्टी पार्टी चलाने के मामले में उनमें और अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं में रत्तीभर का फर्क नहीं है। जिस तरह देश की तमाम क्षेत्रीय या प्रादेशिक पार्टियों में उनके संस्थापक नेता ही हमेशा अध्यक्ष रहते हैं और उनके सक्रिय राजनीति से अलग हो जाने या उनकी मृत्यु के बाद अध्यक्ष पद कारोबारी संस्थान की मिल्कियत की तरह उनके बेटे या बेटी को हस्तांतरित हो जाता है, उसी तरह आम आदमी पार्टी में भी पहले दिन से ही अरविंद केजरीवाल संयोजक बने हुए हैं और संभवतया आजीवन बने रहेंगे। पिछले दिनों उन्हें तीसरी बार पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक चुना गया है।
गौरतलब है कि अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी, मायावती की बहुजन समाज पार्टी, लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल, शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी), तमिलनाडु की द्रविड मुनैत्र कडगम (डीएमके), के. चंद्रशेखर राव की तेलंगाना राष्ट्र समिति, हेमंत सोरेन का झारखंड मुक्ति मोर्चा, चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी, जगनमोहन रेड्डी की वाईएसआर कांग्रेस, फारुक अब्दुल्ला की नेशनल कांफ्रेन्स, महबूबा मुफ्ती की पीपुल्स डेमोके्रटिक पार्टी (पीडीपी) तथा पूर्वोत्तर राज्य की कई क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी ही हैं, जिनमें वर्षों से एक ही व्यक्ति पार्टी का मुखिया है और उसके अलावा कोई मुखिया बनने की सोच भी नहीं सकता। ये पार्टियां जब सत्ता में होती हैं तो सरकार का नेतृत्व का नेतृत्व भी पार्टी का मुखिया उनके परिवार का ही कोई सदस्य करता है। आम आदमी पार्टी को भी ऐसी ही पार्टियों में शुमार किया जा सकता है।
नई और पारदर्शी राजनीति करने के दावे के साथ आम आदमी पार्टी की स्थापना 2012 में हुई थी। तब से अब तक केजरीवाल ही पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक बने हुए हैं और इस बार पार्टी ने उन्हें अगले पांच साल के लिए लगातार तीसरी बार संयोजक चुन लिया है। उन्हें पहली बार तीन साल के लिए विधिवत पार्टी का राष्ट्रीय संयोजक 2013 में चुना गया था। अप्रैल 2016 में वे दूसरी बार राष्ट्रीय संयोजक चुने गए। अप्रैल 2019 में उनका कार्यकाल खत्म हो गया था लेकिन उस साल लोकसभा चुनाव और फिर 2020 में दिल्ली विधानसभा चुनाव को देखते हुए 2020 तक उनका कार्यकाल बढा दिया गया। फिर 2020 में भी कोरोना महामारी के कारण पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक नहीं हो सकी और केजरीवाल ही पार्टी के संयोजक बने रहे।
गौरतलब है कि आम आदमी पार्टी में अध्यक्ष का पद नहीं हैं, इसमें राष्ट्रीय संयोजक ही पार्टी का सर्वोच्च पदाधिकारी या यूं कहें कि सुप्रीमो होता है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने बाकी क्षेत्रीय पार्टियों के मुखियाओं की तरह पहले से ही तय कर लिया था कि हमेशा वे ही पार्टी के सुप्रीमो रहेंगे। उन्होंने शुरुआत तो बड़े ही लोकतांत्रिक तरीके से की थी। इतने लोकतांत्रिक तरीके से कि 2013 के दिल्ली विधानसभा के चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों का चयन भी उनके क्षेत्र के मतदाताओं की राय लेकर किया था।
हालांकि यह फार्मूला सभी सीटों पर नहीं अपनाया गया था, फिर भी यह एक अभिनव प्रयोग था। लेकिन बहुत जल्दी ही न सिर्फ इस प्रयोग की मृत्यु हो गई, बल्कि पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र को भी पूरी तरह कूड़ेदान में डाल दिया। आम आदमी पार्टी का जब संविधान बना था तो उसमें यह प्रावधान था कि राष्ट्रीय संयोजक का कार्यकाल तीन साल का होगा और कोई भी व्यक्ति लगातार दो बार से ज्यादा संयोजक नहीं चुना जाएगा। ऐसा ही नियम भारतीय जनता पार्टी में भी है और उसने अब तक मोटे तौर पर इसका पालन किया है।
इस प्रावधान के तहत अरविंद केजरीवाल लगातार दो बार पार्टी के संयोजक निर्विरोध चुने गए। लेकिन तीसरी बार चुने जाने के लिए उन्होंने पार्टी के संविधान में संशोधन करवा कर दो बार से ज्यादा नहीं चुने जाने की बंदिश ही हटवा दी। इतना ही नहीं, उन्होंने संयोजक का कार्यकाल भी तीन साल से बढ़ा कर पांच साल करवा लिया। उनका ऐसा करना इस बात को जाहिर करता है कि वे पार्टी की बागडोर किसी और के हाथ में नहीं जाने देना चाहते हैं। उनको पार्टी अपने हाथ से निकल जाने डर इस बात के बावजूद है कि पार्टी के तमाम बडे और संस्थापक नेताओं को वे पार्टी से बाहर कर चुके हैं और कई नेता उनकी तानाशाही मनोवृत्ति को भांप कर खुद ही पार्टी छोड़ गए।
अब जबकि पार्टी में केजरीवाल को चुनौती देने वाला कोई नहीं है, इसके बावजूद वे असुरक्षा की भावना से इतने ज्यादा ग्रस्त हैं कि वे न सिर्फ पार्टी का सर्वोच्च पद अपने पास रखे हुए हैं बल्कि उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय सचिव और कोषाध्यक्ष पद के लिए भी पार्टी में किसी अन्य व्यक्ति पर भरोसा नहीं हैं। इन दोनों पदों पर भी वे शुरू से ही अपने बेहद विश्वस्त और सजातीय नेताओं को ही बनाए हुए हैं। इस बार भी उन्होंने अपने साथ ही पंकज गुप्ता को राष्ट्रीय सचिव और राज्यसभा सदस्य एनडी गुप्ता को फिर से कोषाध्यक्ष चुनवा लिया। पार्टी की राष्ट्रीय परिषद ने जिस 34 सदस्यीय कार्यकारी निकाय का चुनाव किया है, उसमें भी सभी सदस्य केजरीवाल की पसंद के ही हैं।
दिलचस्प बात यह भी है केजरीवाल ने यह सब करवाने के साथ ही पार्टी की राष्ट्रीय परिषद को संबोधित करते हुए पार्टी के कार्यकर्ताओं को पार्टी में पद या चुनाव लड़ने के लिए टिकट मिलने की इच्छा नहीं रखने की नसीहत भी दी। उन्होंने कहा, ''यदि आप मेरे पास पद या टिकट मांगने आते हैं तो इसका मतलब है कि आप इसके लायक नहीं हैं और आपको मांगना पड़ रहा है। आपको इस तरह काम करना चाहिए कि मुझे आपसे पद संभालने या चुनाव लड़ने के लिए कहना पड़े।’’
बहरहाल कुल मिलाकर अरविंद केजरीवाल अपनी पार्टी में निर्विवाद रूप से निर्विकल्प हैं। उनके नेतृत्व को चुनौती देने या भविष्य में उनकी जगह पार्टी का नेतृत्व संभालने की कोशिश करने वाला तो क्या इस बारे में सोचने वाला भी दूर-दूर तक कोई नहीं है। अपनी इस स्थिति से निश्चिंत केजरीवाल अब दिल्ली से बाहर राजनीति कर रहे हैं।
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