Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

ग्रामीण भारत में कोरोना- 23: केरल में किसानों, कृषि मज़दूरों की सुरक्षा के लिए पेंशन, खाद्यान्न का समय पर वितरण

संस्थागत और सामाजिक विकेंद्रीकरण की विरासत के साथ-साथ राहत उपायों को लागू करने के लिए नोडल एजेंसी के रूप में पंचायत पर पड़े दबाव ने महामारी और लॉकडाउन,दोनों की चुनौतियों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया है।
ग्रामीण भारत
Image Courtesy: keralalabour.org

यह उस श्रृंखला की 23वीं रिपोर्ट है, जो ग्रामीण भारत के जन-जीवन पर COVID-19 से जुड़ी नीतियों के असर को सामने लाती है। सोसाइटी फॉर सोशल एंड इकोनॉमिक रिसर्च द्वारा तैयार की गयी इस श्रृंखला में उन अनेक जाने-माने जानकारों की रिपोर्ट शामिल हैं, जो भारत के अलग-अलग हिस्सों में गांव का अध्ययन का कर रहे हैं। इस रिपोर्ट में केरल-तमिलनाडु सीमा के पास पलक्कड़ ज़िले की एलेवंचेर्री ग्राम पंचायत में किसानों और खेतिहर मज़दूरों पर देशव्यापी लॉकडाउन के असर के बारे में बताया गया है। समय पर घोषणा और सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये पेंशन और खाद्यान्न के वितरण ने ग्रामीणों के बीच भुखमरी की आशंका को ख़त्म कर दिया है। लेकिन, अगर यह लॉकडाउन जल्द ही ख़त्म नहीं होता है, तो जो लोग किसी भी तरह की पेंशन की पात्रता नहीं रखते हैं, वे अब भी संकटग्रस्त हो सकते हैं।

एलेवंचेर्री  ग्राम पंचायत, केरल-तमिलनाडु सीमा के पास स्थित चित्तूर तालुक के पलक्कड़ ज़िले के नेनमरा ब्लॉक में आती है। यह पंचायत 32.18 वर्ग किमी (14 वार्डों में) में फैली हुई है और इसमें 4,120 परिवार (2011 की जनगणना के आंकड़े) रहते हैं। गांव की कुल आबादी 17,940 है, जिसमें 8,741 पुरुष और 9,199 महिलायें शामिल हैं; जनसंख्या घनत्व 528 प्रति वर्ग किमी और पुरुष-महिला अनुपात 1,077 है।

इस गांव की साक्षरता दर 76.38% है; 71.53% की साक्षरता दर के साथ चित्तूर तालुक केरल के सबसे कम साक्षर तालुकों में से एक है। 39 किलोमीटर लंबा केरल स्टेट हाईवे 58, जो वडक्कांचेरी को पोलाची से जोड़ता है, इस पंचायत से होकर गुज़रता है। गांव की प्रमुख फ़सलें चावल, अदरक, मूंगफली, सबज़ियां, रबड़, नारियल, करेला और मसूर हैं। यह पंचायत उस चुल्लियार बांध के पानी पर निर्भर है, जो गायत्री पूज़हा नहर से होकर बहती है। एलेवंचेर्री  इस सिंचाई परियोजना का अंतिम स्थल है। इस पंचायत को बांध के अलावा, लिफ़्ट सिंचाई और बोरवेल के ज़रिये भी पानी हासिल होता है। ज़्यादातर लोग पीने के पानी के लिए कुओं पर निर्भर हैं। कई स्थानीय पाड़ा शेखर समितियों (1980 के दशक में गठित कृषि समूह) के तहत लिफ़्ट सिंचाई का समन्वय किया जाता है। पंचायत की वेबसाइट के मुताबिक़, इस पंचायत में 40 तालाब हैं। पंचायत में एक कृषि भवन है, जो कृषि विभाग की एक इकाई है और यही बीज की आपूर्ति करता है और कृषि गतिविधियों का समन्वय भी करता है।

राज्य की औसत साक्षरता दर से भी यहां की साक्षरता दर निम्न है, लेकिन इसके बावजूद, एलेवंचेर्री गांव से राज्य के सरकारी कर्मचारियों में सबसे ज़्यादा भागीदारी है। इसकी वजह पंचायत में युवाओं को पढ़ाने के लिए चल रहे कुल साक्षरता आंदोलन के प्रशिक्षकों के एक समूह द्वारा स्थापित विज्ञान केंद्र की कामयाबी है। इस विज्ञान केन्द्र ने ऐसे ज़्यादा से ज़्यादा प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना की है और एक हज़ार से ज़्यादा युवाओं (गृहिणियों सहित) को सरकारी नौकरी पाने के क़ाबिल बनाया है। ऐतिहासिक रूप से, एलेवंचेर्री जातीय और सामंती शोषण की जगह रहा है, इसके साथ ही चित्तूर तालुक में चले कृषि श्रमिकों का प्रतिरोध स्थल भी रहा है। एझवा, नायर, मन्नाडियार और कुछ अनुसूचित जातियां यहां की प्रमुख खेतीहर जातियां हैं।

किसानों पर प्रभाव

एझावा समुदाय के 74 वर्षीय किसान शनमुखन अपनी पत्नी (64) और बेटे (35) के साथ रहते हैं। शनमुखन के पास 3.5 एकड़ ज़मीन है, जिस पर दो मौसमों में धान की खेती की जाती है। पहला मौसम मई के अंत से शुरू होता है और सितंबर तक ख़त्म हो जाता है। दूसरी फ़सल अक्टूबर से शुरू होती है और फ़रवरी-मार्च तक ख़त्म हो जाती है। इनके पास 80 प्रतिशत ज़मीन ऐसी है, जिस पर वे सब्ज़ियां उगाते हैं, और इन फ़सलों में लौकी, बैंगन, खीरा, अदरक, हल्दी और क़रीब 60 नारियल के पेड़ शामिल हैं।

चावल की उनकी दूसरी फ़सल की कटाई 27 फ़रवरी को पूरी हो चुकी थी, और इसे केरल नागरिक आपूर्ति निगम (Supplyco) द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य 26.95/ किलोग्राम पर ख़रीद लिया गया था। शनमुखन के मुताबिक, खुले बाज़ार में उन्हें चावल की क़ीमत केवल 18 रुपये प्रति किलो ही मिल पाता। ज़्यादातर किसानों ने बताया कि उत्तरी केरल में आयी 2019 की बाढ़ के बाद, पहाड़ों से नीचे धुलने वाली खनिज युक्त मिट्टी की वजह से फ़सल की ऊपज में 2,200 किलोग्राम प्रति एकड़ से 2,500-2,700 किलोग्राम प्रति एकड़ की वृद्धि हुई है। हालांकि, ख़रीद की सीमा पहले के अनुमानों के आधार पर 2,200 किलोग्राम रही, और ऐसा तभी हो पाया, जब किसानों ने यह मुद्दा उठाया कि मार्च 2020 तक इस सीमा को बढ़ाकर 2,500 किलोग्राम प्रति एकड़ कर दिया जाये।

केरल की राज्य सरकार ने धान की फ़सल की ख़रीद 2005 से ही केरल नागरिक आपूर्ति निगम (Supplyco) के ज़रिये की है। किसान अपनी फ़सल एजेंटों, यानी, कलड़ी और त्रिशूर के सप्लाईको से मान्यता प्राप्त मिलों में पहुंचाते हैं। फिर, एजेंट गुणवत्ता की जांच-परख करते हैं,और इसके बाद इन किसानों को धान रसीद शीट (पीआरएस) की एक प्रति दे दी जाती है। पीआरएस की एक प्रति सप्लाईको को भेज दी जाती है, जो सीधे किसान के खाते में धन हस्तांतरित कर देती है। जब किसान बैंक को पीआरएस दिखाता है, तो बैंक सप्लाईको द्वारा जमा किये गये पैसे के आधार पर किसान को ऋण जारी कर देता है।

शनमुखन को अपनी धान की फ़सल के लिए पीआरएस की रसीद तो मिल  गयी है, लेकिन उन्होंने अभी तक यह सत्यापित नहीं किया है कि ये पैसे उनके खाते में स्थानांतरित कर दिये गये हैं या नहीं। सहकारी बैंकों के खाताधारी किसानों को दो या तीन दिनों में पैसे मिल जाते हैं, लेकिन इन पैसों को पाने में उन लोगों को ज़्यादा वक्त लगता है,जिनके खाते दूसरे वाणिज्यिक बैंकों में होते हैं। आमतौर पर कृषि विभाग का एक अधिकारी, जो चार या पांच पंचायतों का प्रभारी होता है, वह ख़रीद की मात्रा का निरीक्षण, सुनिश्चित और अनुमोदन करने आता है। लॉकडाउन की वजह से  कुछ किसानों को लेकर इस प्रक्रिया में देरी हुई है। कृष्णकुट्टी धान पैदा करने वाली 10 एकड़ भूमि के मालिक हैं और उसी ज़मीन पर खेती करते हैं, उन जैसे किसानों के लिए इस तरह की देरी भारी पड़ सकती थी। हालांकि इस मुद्दे को अखिल भारतीय किसान सभा की स्थानीय इकाई के ज़रिये उठाया गया था, जिसके बाद कृषि विभाग ने एक आदेश जारी कर कहा था कि पाड़ा शेखर समितियों के सचिव वस्तुओं  की ख़रीद को लेकर मंज़ूरी दे सकते हैं, और यही कारण है कि यह प्रक्रिया चार से पांच दिनों में ही पूरी कर ली गयी।

शनमुखन फ़सल रोपण के लिए श्रमिक एजेंटों के ज़रिये उत्तर और उत्तर पूर्व भारत के प्रवासी मज़दूरों को अपने खेतों में लगाते हैं। तीन या चार श्रमिकों के समूह को भोजन और एक तरफ़ के सफ़र का ख़र्च देने के साथ-साथ प्रति एकड़ 4,000 से 4,500 रुपये का भुगतान किया जाता है। निराई और निरंतर नहीं चलने वाले कार्यों को पूरा करने के लिए स्थानीय श्रमिकों को लगाया जाता है, या तमिलनाडु के महिला कृषि श्रमिकों को एजेंटों के ज़रिये काम पर रखा जाता है। कुछ किसानों ने एजेंटों से बचने के लिए श्रमिकों के साथ सीधे-सीधे जुड़ने शुरू कर दिये हैं। खेती के मौसम के दौरान प्रवासी श्रमिक कुछ दिनों के लिए पंचायत में ही रहते हैं। उनमें से कुछ साल के बाक़ी दिनों में दैनिक मज़दूरी करने के लिए पास स्थित कोझिकोड जैसे शहरों में कार्य करते हैं। कुछ सूचना देने वालों ने कहा कि प्रवासी मज़दूर बिहार, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल से आते हैं। इस पंचायत में तीन ईंट भट्टे भी हैं,जिनमें उत्तर भारतीय और कुछ तमिल मज़दूरों को रोजगार हासिल हैं। बताया जाता है कि ये प्रवासी यहां ज़्यादा समय तक रहते हैं।

एलेवंचेर्री की आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि श्रम में लगा हुआ है। बातचीत करने वालों में से दो लोगों के मुताबिक़, इस पंचायत में लगभग 4,000 कृषि मज़दूर हैं,जिनमें से दो-तिहाई मध्यम आयु वर्ग के और बुज़ुर्ग महिलायें हैं। रोपाई को छोड़कर कृषि क्षेत्र के सभी क्षेत्रों में मशीनों के इस्तेमाल में तेज़ी आयी है। जुताई के लिए ट्रैक्टरों का किराया प्रति घंटे 700 से 800 रुपये के बीच है, जबकि फ़सल की कटाई करने की बेल्ट वाली मशीन (पहले धान के मौसम में गीले खेतों के लिए इस्तेमाल की जाने वाली मशीन) के लिए यह किराया लगभग 2,400 रुपये है, और फ़सल की कटाई करने की टायरों वाली वाली मशीन (दूसरे धान के मौसम में सूखे खेतों के लिए उपयोग की जाने वाली मशीन) का इस्तेमाल के लिए यह किराया क़रीब 1,900 रुपये है।

शनमुखन अपनी ज़मीन की सिंचाई के लिए ख़ास तौर पर नहर के पानी का इस्तेमाल करते हैं। चूंकि वह एक अनुभवी किसान हैं और क्योंकि उनका खेत सिंचाई नहर के समाप्ति स्थल पर स्थित है, इसलिए वह ज़िला कलेक्टर की अध्यक्षता में चूलियार बांध से पानी छोड़ने की निगरानी के लिए बनी एक समिति के सलाहकार सदस्य भी हैं।  मुख्य रूप से अपने साग-भाजी के बाग़ में पानी देने के लिए उनके पास एक नलकूप है और अपने चावल के खेतों के लिए नहर से पानी के पूरक के तौर पर भी वह इस बोरवेल का इस्तेमाल करते हैं। वह उस थुम्बिदी करिप्पई पाड़ा शेखरा समिति (स्थानीय कृषक समूह) के सदस्य भी हैं,जो कृषि की देखरेख करती है और क़रीब 250 एकड़ में सिंचाई का इंतज़ाम करती है। 2018 और 2019 की बाढ़ के दौरान इस लिफ्ट सिंचाई प्रणाली को बहुत नुकसान पहुंचा था। इस कृषक समूह ने 2019 की बाढ़ के बाद मरम्मत कार्यों के लिए सरकार के सामने 60,000 रुपये का बिल पेश किया था और सरकार ने 43,000 रुपये का मुआवज़ा दिया था।

उन्होंने सहकारी बैंक से 1,60,000 रुपये का फ़सल ऋण और केनरा बैंक से 60,000 रुपये का गोल्ड ऋण लिया हुआ है। उन्होंने सहकारी बैंक से 1,00,000 रुपये का ब्याज मुक्त ऋण भी लिया है। एक सूचना देने वाले ने बताया कि इस पंचायत के 650 से ज़्यादा किसानों को ब्याज मुक्त ऋण के रूप में कुल 4.68 करोड़ रुपये का ऋण मुहैया कराया गया है। मौजूदा ऋण का नवीनीकरण पंचायत के ग्राम अधिकारी और कृषि अधिकारी के अनुमोदन से किया जा सकता है। चूंकि ये अधिकारी लॉकडाउन की वजह से निरीक्षण करने में सक्षम नहीं हैं, इसलिए सरकार ने सहकारी बैंकों को प्रस्ताव पारित करने और सभी मौजूदा ऋणों के नवीनीकरण का निर्देश दे दिया है। 

राज्य सरकार की किसान पेंशन के हिस्से के रूप में, ज़्यादतर किसानों की तरह, शनमुखन को भी दो किस्तों में 8,500 रुपये मिले हैं। उनकी पत्नी को भी उनके जन धन खाते में 500 रुपये मिले हैं। इस मौद्रिक राहत के अलावा, परिवार को 15 किलो चावल भी मिला है, लेकिन अभी तक राज्य सरकार द्वारा घोषित ग्रौसरी किट नहीं मिला है।

अड़सठ वर्षीय वासुदेवन राज्य के कृषि विभाग में कृषि निदर्शक (agricultural demonstrator) हुआ करते थे। उन्होंने सेवानिवृत्ति से पहले एक राजपत्रित कर्मचारी के रूप में सात वर्षों तक सेवा की थी। उनके पास धान की खेती वाली तीन एकड़ ज़मीन और सब्ज़ियों, नारियल और चारे की घास पैदा करने वाली डेढ़ एकड़ ज़मीन हैं। वह चार गायों के साथ डेयरी भी चलाते हैं और अपने तालाब में मछली पालन का काम भी करते हैं। लॉकडाउन की वजह से वासुदेवन को अपनी मछली के लिए चारा ढूंढने में मुश्किल आ रही है। हालांकि गायों के लिए घास उनके बग़ीचे से ही उपलब्ध हो जाती है, फिर भी उन्हें अपनी गायों में से एक का गर्भाधान करने में देरी करनी पड़ी है। वह बताते हैं कि पशु चिकित्सा विभाग को गायों के गर्भाधान के लिए कुछ क़दम उठाने की ज़रूरत है। वासुदेवन सहित ज़्यादातर किसानों को तमिलनाडु के अन्नामलाई और पोलाची से मुर्ग़ी और बकरी के खाद मंगाने में भी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है; इस खाद की क़ीमत प्रति 10 बैग 90 रुपये से 140 रुपये के बीच है। चूंकि लॉकडाउन की वजह से राज्य की सीमाएं बंद रहती हैं, इसलिए इस खाद की आवाजाही लगभग पूरी तरह से बंद है।

हालांकि छोटे किसान पारिवारिक श्रम का इस्तेमाल करते हुए सब्ज़ियों की फ़सल पैदा कर सकते हैं, लेकिन गोपी जैसे अपेक्षाकृत बड़े किसानों को मज़दूरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है, जिन्होंने आम के लिए पांच एकड़ जमीन और धान के लिए 12 एकड़ ज़मीन लीज पर ली थी। धान की फ़सल और उसकी खरीद सुचारू रूप से हो पायी है, लेकिन आम की फ़सल की ख़रीद समय पर पूरी नहीं हो सकी और इससे उन्हें 3 लाख रुपये का नुकसान हो गया। हालांकि सरकार ने अपनी सब्ज़ी और फल संवर्धन परिषद केरलम (VFPCK) के ज़रिये उनकी फ़सल के एक हिस्से को ख़रीदकर उनकी मदद करने की कोशिश ज़रूर की है।

सभी किसानों द्वारा उठाया जा रहा एक मुद्दा यह है कि जीर्ण-शीर्ण हो चुके छोटे चैनलों की तुरंत मरम्मत कराये जाने की ज़रूरत है, क्योंकि कमांड एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (CADA) के तहत निर्मित इन्हीं चैनलों से धान के खेतों की सिंचाई की जाती है। किसानों का मानना है कि इससे उनकी सिंचाई लागत काफ़ी कम हो जायेगी। कुछ किसानों ने पिछले वर्ष मिलने वाली सब्सिडी और बोनस के वितरण नहीं होने का मुद्दा भी उठाया है। किसानों को सब्सिडी और बोनस के तौर पर क़रीब 7,500 रुपये प्रति एकड़ मिलने वाले हैं। उनका आरोप है कि कुछ स्थानीय प्रशासनिक कुप्रबंधन की वजह से ये राशि राज्य के खजाने में वापसी हो गयी थी। एक किसान ने बताया कि उस राशि को हाल ही में सहकारी बैंक में फिर से स्थानांतरित कर दिया गया है और उम्मीद है कि जल्द ही इसका वितरण कर दिया जायेगा।

कृषि प्रयोगशालाओं पर प्रभाव

जैसा कि ऊपर इस बात का ज़िक्र किया जा चुका है कि एलेवंचेर्री  में किसान रोपाई के अलावा ग़ैर-मशीनी कार्यों के लिए स्थानीय कृषि श्रम का इस्तेमाल करते हैं। बढ़ते मशीनीकरण और खरपतवारनाशी के इस्तेमाल ने हाथ से किये जाने वाले श्रम की मांग को कम कर दिया है। खेतिहर मज़दूरों ने बातचीत में बताया कि आम तौर पर खेतों में काम करने वाले मज़दूर संकट का सामना कर रहे हैं। महिलायें स्थानीय कृषि श्रम का लगभग 60-70% हिस्सा हैं, लेकिन उन्हें महज 300 और 350 रुपये ही मज़दूरी के रूप में मिलते हैं, जबकि पुरुषों को उनके काम की प्रकृति के आधार पर, 400 रुपये से लेकर 700 रुपये के बीच मिलते हैं। इसके अलावा, महिलायें ही हैं, जो मनरेगा के तहत काम करती हैं, और उन्हें हर रोज़ 290 रुपये मिलते हैं। मनरेगा के तहत कोई भी पुरुष कार्यरत नहीं है।

उनहत्तर साल के पूर्व कृषि मज़दूर कुमारन अपनी पत्नी राधा (62), एक बेटे (32) और बहू के साथ रहते हैं। जहां तक उन्हें याद आता है कि कुमारन और उनकी पत्नी खेतिहर मज़दूर ही रहे हैं। उनका एक बेटा पुलिस कांस्टेबल है,जो छह साल पहले भर्ती हुआ था। अपनी उम्र की वजह से कुमारन ने एक मज़दूर के तौर पर काम करना छोड़ दिया है और उन्हें अब सरकार से खेतीहर मज़दूर वाली पेंशन मिलती है। राधा भी अब कृषि कार्य ज़्यादा नहीं कर पाती हैं, लेकिन वह मनरेगा के तहत काम करती हैं। कुमारन को COVID-19 राहत के हिस्से के रूप में जल्दी-जल्दी मिलने वाले दो किश्तों में 8,500 रुपये मिले हैं। हालांकि, उनकी पत्नी पेंशन की पात्र नहीं है, क्योंकि जब तक वह 60 वर्ष की उम्र तक पहुंच पातीं, तब तक उनके बेटे को सरकारी नौकरी मिल गयी थी। कुमारन के मुताबिक़, कृषि कार्य का मिलना मुश्किल हो गया है और मशीनीकरण ने मज़दूरों के श्रम की ज़रूरत की जगह ले ली है। कटाई में हाथ से किये जाने वाले श्रम का इस्तेमाल अब केवल ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों के मालिकों या उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिन्हें समय पर कटाई के लिए कटाई की मशीनें नहीं मिल पाती हैं।

कुछ खेतिहर मज़दूर अपने घर के आस-पास की ज़मीन पर सब्जी की खेती भी करते हैं। सुब्रमण्यम, एक 50 वर्षीय कृषि मजदूर हैं और अपने घर के आसपास की 20 प्रतिशत ज़मीन पर केले उगाते हैं। वह स्थानीय स्तर पर उर्वरक और खाद जुटाने में कामयाब रहे हैं। वह अपनी फ़सल उस इको-स्टाफ़ को बेच सकते हैं, जो एलेवंचेर्री पंचायत द्वारा सब्जियों की ख़रीद के लिए चल रहा एक कार्यक्रम है। वह ओणम के दौरान आंशिक रूप से उच्च मांग को पूरा करने के लिए छोटे पैमाने पर घर के बगीचों में ही सब्ज़ियां पैदा करने को बढ़ावा देने के लिए राज्य सरकार द्वारा शुरू की गयी नयी योजना से लाभ उठाने की उम्मीद कर रहे हैं। पंचायत ने इस मक़सद के लिए 32 लाख रुपये आवंटित किये हैं। हालांकि, सुब्रमण्यम इस बात को लेकर चिंतित हैं कि यदि लॉकडाउन जारी रहा, तो वे अगले फ़सल के मौसम में काम हासिल नहीं कर पायेंगे। उन्हें सरकार से 15 किलो चावल और एक ग्रौसरी किट मिले हैं।

जिन खेतिहर मज़दूरों से हमने बात की, उन सबका यही कहना था कि पंचायत में राहत कार्य शानदार तरीक़े से चलाये जा रहे हैं। सामुदायिक रसोई हर दिन बन रही है और इससे कई लोगों को खाना मिल रहा है। इसके अलावा, उन्होंने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, पंचायत और आशा (मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता) कार्यकर्ताओं के बीच के समन्वय की सराहना की, और कहा कि वे हमेशा इलाक़े में ही रहते हैं, यह सुनिश्चित करते हैं कि लॉकडाउन का पालन किया जा रहा है या नहीं, और बुज़ुर्गों की सेहत के बारे में जानकारी लेने के लिए घर-घर के दौरे कर रहे हैं।

खेतिहर मज़दूरों द्वारा उठायी गयी एक प्रमुख मांग उस “थोझिल सेना” (श्रम सेना) में तेज़ी लाने और उसके विस्तार करने की है, जिसे हाल ही में सरकार द्वारा गठित की गयी थी। थोझिल सेना का गठन का मक़सद कृषि विभाग द्वारा कृषि यंत्रों को संचालित करने के लिए श्रमिकों को प्रशिक्षित करना है। एलेवंचेर्री में, हाल ही में एक थोझिल सेना का गठन किया गया था, लेकिन इसमें केवल एक सौ पंजीकृत सदस्य ही शामिल हो पाये हैं। जिन लोगों से बातचीत हुई, उन्होंने उम्मीद जताई कि सरकार थोझिल सेना का विस्तार ज़रूर करेगी। शनमुखन और सुब्रमण्यम जैसे खेतिहर मज़दूरों को भी इस बात की उम्मीद है कि सरकार उनके ऋणों को पूरी तरह से या आंशिक रूप से माफ करने पर विचार करेगी।

राहत उपाय

राज्य सरकार द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर लॉकडाउन की घोषणा के दो दिन पहले 20,000 करोड़ रुपये के राहत पैकेज की घोषणा की थी। इस पैकेज में सात महीने की पेंशन और विभिन्न कल्याण बोर्डों के तहत आने वाले लगभग 55 लाख लाभार्थियों में से प्रत्येक को 8,500 रुपये वितरित की जाने वाली रक़म शामिल है। हमने जिन लोगों से बातें की, और उनमें से जिन-जिन की आयु 60 साल से ज़्यादा है, उन सभी किसानों और खेतिहर मज़दूरों को राज्य सरकार से उनके किसान पेंशन की दो किस्तें प्राप्त हो गयी हैं, जो कुल मिलाकर 8,500 रुपये (2,400 रुपये और 6,100 रुपये) की राशि बनती है। जबकि बातचीत में शामिल सभी लोगों को पीडीएस से 15 किलो खाद्यान्न मिला हुआ है, चाय और साबुन सहित लगभग 16 वस्तुओं वाली ग्रौसरी किट इस समय भी वितरित किये जा रहे हैं।

इस समय, कुटुम्बश्री (स्थानीय स्वयं सहायता समूह) और पंचायत द्वारा 150 से अधिक लोगों के भोजन योगदान को मिलाकर चलने वाली एक सामुदायिक रसोई है, जिसमें लगभग 100 लोगों को मुफ़्त भोजन दिया जाता है। बेसहारों, प्रवासी मज़दूरों, आदिवासी बुज़ुर्गों, पीड़ितों, वे बुज़ुर्ग,जो खाना नहीं बना सकते और वे बच्चे, जिनके घरों में खाना बनाने वाला कोई नहीं हैं,ऐसे लोगों को सामुदायिक रसोई खाना मुहैया कराती है। किसानों और अन्य नागरिक समाज से बने संगठनों के योगदान के ज़रिये अनाज, सब्ज़ियां और दूसरे वस्तु उपलब्ध कराये जाते हैं।

मिसाल के तौर पर शंकर नारायणन नाम के एक किसान ने अपने खेत से 52 नारियल और 25 किलो लौकी का योगदान दिया। इन व्यक्तिगत योगदानों के अलावा, डेमोक्रेटिक यूथ फ़ेडरेशन ऑफ इंडिया (डीवाईएफ़आई) जैसे युवा संगठन और स्वयंसेवक समूह भी सामग्री एकत्र करने और स्वयंसेवकों को राहत उपायों को पूरा करने में मदद पहुंचाने में शामिल हैं। एलेवंचेर्री में दो नीति (राज्य सरकार के तहत चलाये जाने वाले सहकारी फार्मास्युटिकल आउटलेट) स्टोर भी में चल रहे हैं, उल्लेखनीय है कि ये स्टोर पूरे वर्ष सब्सिडी वाली जेनेरिक दवायें मुहैया कराते हैं।

हालांकि लॉकडाउन की घोषणा होने के समय पंचायत में कोई भी प्रवासी कृषि मज़दूर तो नहीं था, लेकिन,उनमें से ईंट भट्ठों में काम करने वाले आधे मज़दूर अपने गांव भी वापस नहीं जा सकते थे। इनमें से ज़्यादातर मज़दूरों को सरकारी निर्देश के तहत उनके ठेकेदारों द्वारा सुविधायें और भोजन उपलब्ध कराया जाता है और कुछ को पंचायत द्वारा चलाये जा रहे सामुदायिक रसोईघर से भोजन मुहैया कराया जाता है।

कहने की ज़रूरत नहीं कि लॉकडाउन ने एलेवंचेर्री पंचायत में कृषि समुदाय के बीच उनके भविष्य को लेकर आशंका पैदा कर दी है। हालांकि, सरकार ने उन चुनौतियों को हल करने के लिए हस्तक्षेप किया है, जो फ़सल के निरीक्षण और ख़रीद के सिलसिले में पैदा हुई हैं। हमारी बातचीत में शामिल लोगों ने बताया कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के ज़रिये समय पर की गयी घोषणा और पेंशन और खाद्यान्न के वितरण ने लोगों के बीच भुखमरी की आशंका को ख़त्म कर दिया है। लेकिन, अगर लॉकडाउन जल्द ही ख़त्म नहीं होता है,तो जो लोग किसी भी तरह के पेंशन के पात्र नहीं हैं, उनके लिए संकट पैदा हो सकता है। हमारी बातचीत में शामिल क़रीब-क़रीब सबका यही कहना था कि COVID-19 राहत उपायों के संचालन में पंचायत का प्रदर्शन और आशा कार्यकर्ताओं और पीएचसी कर्मचारियों की भूमिका सराहनीय रही है। जानकारी देने वालों में ज़्यादातर वे छोटे किसान थे, जिन्होंने सामुदायिक रसोई में सब्ज़ियों और अनाज का बड़े पैमाने पर योगदान दिया है, जो कि स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी और एकजुटता का सुबूत है।

कृषि आबादी को समय पर और पर्याप्त राहत प्रदान करने के सिलसिले में केरल सरकार द्वारा किये गये हस्तक्षेप अपनी व्यापकता और इरादे में बेहद ठोस हैं। संस्थागत और सामाजिक विकेंद्रीकरण की विरासत के साथ-साथ राहत उपायों को लागू करने के लिए नोडल एजेंसी के रूप में पंचायत पर पड़े दबाव ने महामारी और लॉकडाउन, दोनों की चुनौतियों को काफ़ी हद तक दूर कर दिया है।

केरल धीरे-धीरे अपने लॉकडाउन में ढील देने और उत्पादक गतिविधियों को वापस शुरू करने की योजना जिस तरह से बना रहा है, ऐसे में यह बेहद अहम हो जाता है कि चल रहे राहत कार्य जारी रहें। इसके साथ ही CADA नहरों की मरम्मत और सब्सिडी के वितरण जैसी बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याओं को जल्द ही हल किये जाने की ज़रूरत है। थोझिल सेना और सब्ज़ी बागानों को बढ़ावा देने जैसी पहल में तेज़ी लाने और कृषि आबादी के बीच आत्मविश्वास पैदा करने और उनकी उम्मीद को और व्यापक करने की ज़रूरत है।

[यह रिपोर्ट 18 और 21 अप्रैल, 2020 के बीच 10 किसानों, जिनमें से ज़्यादातर छोटे और मध्यम स्तर के किसान थे और तीन कृषि श्रमिकों के साथ टेलीफोन पर की गयी बातचीत पर आधारित है।]

राहुल एन, तिरुवनंतपुरम स्थित मैनेजमेंट इंस्टिट्युट इन गवर्नमेंट में एसोसिएट प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यरत हैं। रंजीत पीएम एक स्वतंत्र शोधकर्ता हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करके पढ़ा जा सकता है।

COVID-19 in Rural India-XXIII: Timely Disbursal of Pensions, Foodgrains Come to Rescue of Farmers, Agri Labourers in Kerala

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest