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केरल: 'फील द पेन कैंपेन' के बाद क्या पुरुषों को महिलाओं का दर्द समझ में आएगा?

पीरियड आज भी हमारे समाज में बड़ा टैबू है। इस विषय पर लोग खुलकर बात करने से हिचकिचाते हैं, जबकि ये शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्वास्थ्य मुद्दा भी है।
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'प्रतीकात्मक फ़ोटो' साभार: yahoo news

केरल में पीरियड्स पर जागरूकता के लिए 'फील द पेन कैंपेन' चलाया जा रहा है। ये कैंपेन समाज में और खासतौर पर पुरुषों के बीच पीरियड्स और इससे जुड़ी समस्याओं को सामने रखने का जरिए है, जिससे महिलाएं हर महीने गुजरती हैं। औरतों के पास पीरियड्स मे क्रैंप यानी पेट और पीठ में होने वाले दर्द को रोकने का विकल्प नहीं होता। उन्हें हर महीने इस दर्द से गुजरना होता है। उसके बाद हमारे देश में मुश्किल यह है कि वे अपना दर्द परिवार में खुलकर बता भी नहीं सकतीं। ऐसे ही दर्द को समझने और समझाने के लिए इस अनोखे कैंपेन की शुरुआत की गई है।

बता दें कि इससे पहले बीते साल दिसंबर में सेल्फी विद डॉटर फाउंडेशन द्वारा उत्तर भारत में पीरियड चार्ट की मुहिम शुरू की गई थी। इसके तहत ऑनलाइन लाडो पंचायत करवाई गईं। राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा में अलग-अलग दस फिज़िकल पंचायतें की गईं जबकि अधिकांश पंचायत ऑनलाइन की गईं। अलग-अलग स्थानों पर पीरियड चार्ट से जुड़े पोस्टर लगवाए गए, जो मनुवादी लोगों द्वारा हाथ के हाथ फाड़े भी जा रहे थे। पीरियड चार्ट मुहिम का उद्देश्य महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर सचेत करने के साथ ही इस पर निगरानी रखना भी था। पीरियड चार्ट को लेकर उत्तर भारत के कई राज्यों में लड़कियों और महिलाओं को जागरूक किया गया। लेकिन कई जगह इसका भारी विरोध देखने को मिला। लोगों ने महिलाओं, बेटियों पर अभद्र टिप्पणियां की और चार्ट को फाड़ दिया। हालांकि कई जगह ये प्रयास सफल भी रहा।

क्या है फील द पेन कैंपेन ?

फील द पेन कैंपेन अपने नाम की तरह ही औरतों के पीरियड्स के दर्द को समझने का एक माध्यम है। इस कैंपेन में कुल 1000 लोगों की एक टीम काम कर रही है, जो स्‍कूल, कॉलेज, शॉपिंग मॉल्स और सार्वजनिक जगहों पर जगह-जगह जाकर लोगों के बीच पीरियड्स को लेकर जागरूक करने की कोशिश कर रही है। इस कैंपेन में आर्टिफिशियल पीरियड स्टिमुलेटर के जरिए पुरुषों को उस तकलीफ का अनुभव कराने की कोशिश की जा रही है, जिसे हम पीरियड पेन कहते हैं। इस प्रयोग में हिस्सा लेने वाले पुरुषों को पहले एक कुर्सी पर बिठाया गया। फिर पीरियड स्टिमुलेटर के जरिए आर्टिफिशियल ढंग से उस फिजिकल पेन को क्रिएट करने की कोशिश की गई, जो पीरियड क्रैम्प्स के दौरान महिलाओं को होता है। उस कुर्सी पर बैठे पुरुष पहला झटका लगते ही दर्द से कराह उठे। वे 10 सेकेंड तक भी उस कुर्सी पर बिना हिले आराम से बैठ नहीं पाए और चिल्‍लाने लगे। जबकि इस प्रयोग में शामिल महिलाएं तकलीफ होने के बावजूद बैठी रहीं। इस कैंपेन के तहत लड़कियों और महिलाओं को एक लाख मेन्‍स्‍ट्रुअल कप फ्री बांटे गए हैं।

मालूम हो कि प्यूबर्टी के बाद लड़कियों को हर महीने 4-6 दिन पीरियड्स होते हैं, जो मीनोपॉज होने तक (45 से 55 साल की उम्र तक) चलते रहते हैं। कुछ महिलाओं के लिए पीरियड का अनुभव असहनीय दर्द से भरा होता है। इस दौरान औरतें कई परेशानियों से गुज़रती हैं, जैसे चिड़चिड़ापन, कमजोरी, थकान और शरीर में दर्द और कुछ अन्य लक्षण होते हैं। ऐसे में बहुत जरूरी है कि घर-दफ्तर के अन्य सदस्य इस पीड़ा को समझें।

कैंपेन की जरूरत क्यों पड़ी?

पीरियड आज भी हमारे समाज में बड़ा टैबू है। इस विषय पर हम खुलकर कभी बात भी नहीं करते, अपनी परेशानियां और तकलीफें साझा करना तो बहुत दूर की बात है। इस कैंपेन का मकसद इस प्राकृतिक तकलीफ की तुलना करना या पुरुषों को भी वैसी ही तकलीफ देना नहीं है। इसका मकसद ये है कि हमारा समाज और खासतौर पर पुरुष स्त्रियों के इस तकलीफदेह अनुभव के प्रति थोड़े ज्यादा संवेदनशील हों।साथ ही इसके जरिए लोगों में पीरियड को लेकर जागरूकता पैदा की जा सके।

इस कैंपेन का आइडिया तैयार करने वाली सांद्रा सैनी मीडिया से कहती हैं कि विदेशों में ऐसे प्रयोग पहले भी हो चुके हैं। यूट्यूब पर ऐसे कई वीडियो मौजूद हैं, जिसमें आर्टिफिशियल ढंग से मशीनों के जरिए पुरुषों ने पीरियड पेन को अनुभव करने की कोशिश की, लेकिन वे 10 सेकेंड भी इस तकलीफ को झेल नहीं पाए। मुझे लगा कि क्यों न ये प्रयोग भारत में करके भी देखा जाए कि यहां के पुरुषों की क्या प्रतिक्रिया होती है।

सांद्रा बताती हैं कि उस कुर्सी पर बैठे पुरुष 45-50 के लेवल तक पहुंचते-पहुंचते ही बेकाबू हो जाते हैं। वह दर्द उनके लिए इतना असहनीय हो जाता है कि वे दर्द से कराहने लगते हैं और मशीन को तुरंत बंद करने के लिए कहते हैं। एक-दो पुरुष ही ऐसे थे, जो 60 के लेवल तक दर्द को बर्दाश्त कर पाए।

मासिक धर्म एक महत्वपूर्ण लेकिन सबसे ज्यादा नजरअंदाज किए जाने वाला मुद्दा

गौरतलब है कि आज भी देश में महिलाओं का मासिक धर्म एक महत्वपूर्ण लेकिन सबसे ज्यादा नजरअंदाज किए जाने वाले मुद्दों में से एक है। पीरियड्स और इससे संबंधित मुद्दों पर चुप्पी के पीछे हमारे सामाजिक मानदंड हैं, जो इसे अवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखते हैं। विज्ञान के इतनी प्रगति के बाद भी हमारे समाज में पीरियड्स अभी भी एक संवेदनशील विषय है जिसके बारे में खुलकर बात नहीं की जा सकती। देश के दूर-दराज इलाकों में पीरियड प्रोडक्ट्स की उपलब्धता तो दूर, कई बार व्यक्ति के पीरियड्स शुरू होते ही उसे ‘अशुद्ध या गन्दा’ मानते हुए घर के बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। यह गौर करने वाली बात है कि क्यों एक साधारण जैविक प्रक्रिया पीढ़ी दर पीढ़ी पितृसत्तात्मक और रूढ़िवादी सोच में जकड़ी चली आ रही है। पीरियड्स से जुड़ी हमारी अवधारणा इतनी अवैज्ञानिक है कि न सिर्फ आम लोग बल्कि कई बार डॉक्टर खुद पीरियड्स के दर्द और असहजता को सामान्य और बच्चे पैदा करने को इसका हल बताते हैं।

वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ ही मेंस्ट्रुएशन नीतियों पर काफी हद तक निर्भर करता है कि पीरियड्स को हमारा समाज किस तरह अपनाता है, भारत में मेंस्ट्रुएशन से जुड़ी कई नीतियां बनाई जा चुकी हैं। भारत में आज भी पीरियड्स एक मानवाधिकार और सामाजिक मुद्दा नहीं बन पाया है। यूनाइटेड नेशन्स ह्यूमन राइट्स के विशेषज्ञों के अनुसार मेंस्ट्रुएशन के जुड़े पूर्वाग्रह से पैदा होने वाली शर्म और रूढ़ि मानवाधिकारों को प्रभावित करती है। इसमें समाज में समानता, स्वास्थ्य, आवास, पानी, स्वच्छता, शिक्षा, रोजगार, किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता, काम करने की सुरक्षित जगह या बिना किसी भेदभाव के सांस्कृतिक और सार्वजनिक जीवन में भाग लेने जैसे अधिकार शामिल हैं।

बहरहाल, मेंस्ट्रुएशन के सार्वजनिक नीति का हिस्सा बनने के एक दशक बाद भी देश में विशेषकर ग्रामीण इलाकों में किशोरियां और महिलाएं सेनेटरी पैड्स का इस्तेमाल नहीं करती नाही पीरियड्स के दौरान साफ पानी या शौचालय की उनकी बुनियादी ज़रूरत पूरी होती है। अक्सर किशोरियों को पीरियड्स की जानकारी नहीं होती। आम तौर पर, पीरियड्स पर जानकारी की एक मात्र स्रोत माँ या घर की कोई महिला होती है जिससे पीरियड्स को लेकर पीढ़ी दर पीढ़ी अवैज्ञानिक सोच आगे बढ़ती जाती है। ऐसे में हम सबको ये समझने की जरूरत है कि पीरियड्स सिर्फ शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं सामाजिक, आर्थिक और मानसिक स्वास्थ्य मुद्दा भी है। पीरियड्स में बुनियादी जरूरतों के पूरा होने और अवैज्ञानिक सोच को बदलने से बेहतर समाज और सार्वजनिक स्वास्थ्य की नींव रखी जा सकेगी। इसलिए मेंस्ट्रुएशन नीतियां भी व्यापक और हर समुदाय और लिंग को ध्यान में रखकर बनाने की जरूरत है।

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