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ख़बरों के आगे-पीछे: अतीक़-अशरफ़ हत्याकांड; सरकार और मीडिया के अपराधीकरण की नई मिसाल?

अतीक़-अशरफ़ हत्याकांड समेत, भाजपा और वंशवाद, राहुल पर ग़ुलाम के आरोप, कर्नाटक का दलबदल और टाइम मैगज़ीन की 100 प्रभावशाली लोगों की सूची में प्रधानमंत्री मोदी का नाम न होना, इन सब पर अपने साप्ताहिक कॉलम में चर्चा कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार अनिल जैन।
Atiq-Ashraf
फ़ोटो साभार : PTI

हमारे देश में राजनीति का अपराधीकरण और अपराध का राजनीतिकरण तो बहुत पुरानी परिघटना है। इस परिघटना का विकसित रूप है- अपराध का सरकारीकरण और सरकारों का अपराधीकरण। उत्तर प्रदेश इसका सबसे बडा मॉडल है जो नेतृत्वकारी भूमिका निभा रहा है और जहां एनकाउंटर, बुलडोज़र और अपराधियों को सरकारी संरक्षण के आगे क़ानून और संविधान बेबस है। कुख्यात माफिया डॉन अतीक अहमद और उसके भाई की पुलिस सुरक्षा में हत्या होना इस परिघटना की ताज़ा मिसाल है, जिसमें मीडिया का अपराधीकरण होते हुए भी देखा जा सकता है। अतीक अहमद को गुजरात की साबरमती जेल से प्रयागराज लाने और प्रयागराज से वापस साबरमती ले जाने का खेल तो पहले से ही चल रहा था, जिसमें पहले कथित तौर पर फ़र्ज़ी एनकाउंटर जुड़ा और फिर पुलिस की कड़ी सुरक्षा में हत्या की घटना भी जुड़ गई। 20 दिन में दूसरी बार अतीक को साबरमती से प्रयागराज लाया गया था। पहले मार्च के आख़िरी हफ़्ते में जब राहुल गांधी को सज़ा हुई थी और सदस्यता गई थी उस समय चार दिन तक यह ड्रामा चला था। पहली बार सड़क के रास्ते 25 घंटे में अतीक अहमद को साबरमती से प्रयागराज ले जाया गया था। पूरे रास्ते दर्जनों न्यूज़ चैनलों की गाड़ियां पुलिस के काफ़िले के साथ चल रही थीं और मिनट-टू मिनट की रिपोर्टिंग हो रही थी। टीवी चैनलों ने अतीक अहमद के पेशाब करने तक की रिपोर्टिंग की थी। अदालत में पेशी के बाद उसी दिन शाम को फिर से अतीक को साबरमती ले जाया गया। फिर 12 अप्रैल को उसे दोबारा साबरमती से प्रयागराज लाया गया। इस बार भी वही ड्रामा हुआ। साबरमती से प्रयागराज के बीच रास्ते में गाड़ी खराब हो गई तो राजस्थान के एक थाने में अतीक को ढाई घंटे बैठाया गया। टीवी चैनलों ने पल-पल की रिपोर्टिंग की। फ़र्ज़ी मुठभेड़ के कई आरोपों के बीच दिन भर यह कहानी मीडिया में चलती है कि विकास दुबे की तरह अतीक की गाड़ी भी पलट सकती है और उसका भी एनकाउंटर हो सकता है। उस समय अतीक का तो एनकाउंटर नहीं हुआ लेकिन उसके बेटे सहित दो लोगों को उत्तर प्रदेश पुलिस ने एनकाउंटर में मार गिराया। टीवी चैनलों को दूसरे मुद्दों से ध्यान हटाने और अपनी टीआरपी बढ़ाने के लिए एक नया ड्रामा मिल गया। टीवी चैनलों ने पुलिस की बताई कहानी के मुताबिक़ एनकाउंटर की रिपोर्टिंग तो जश्न मनाने के अंदाज में की ही, साथ ही अतीक के मारे गए बेटे को दफनाने की रिपोर्टिंग के सिलसिले में यह तक बताया कि उसकी क्रब कितने फीट गहरी, कितनी लंबी और चौड़ी खोदी गई। इस सबके बाद शनिवार की देर रात पुलिस की सुरक्षा में अतीक और उसके भाई को तीन लोगों ने गोलियों से भून दिया। अतीक को मारने वाले पत्रकार बन कर आए थे, यह कोई चौंकाने वाली बात नहीं है, क्योंकि सरकार के ढिंढोरची की भूमिका निभा रहा मीडिया "सुपारी शूटर" भी है। फर्क सिर्फ़ इतना है कि पत्रकार बन कर अतीक की हत्या करने वालों के हाथों में पिस्तौल रहती है और इन 'पत्रकारों' के हाथ में कैमरा या कलम। पिस्तौल वाले हाथ एक या दो लोगों को मारते हैं, जबकि कलम और कैमरा वाले पूरे समाज को।

आप को राष्ट्रीय पार्टी बनाने में कुछ ज़्यादा जल्दबाज़ी?

आम आदमी पार्टी चाहती थी कि उसे कर्नाटक विधानसभा के चुनाव से पहले ही राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल जाए। इसके लिए उसकी ओर से कर्नाटक हाई कोर्ट में याचिका दाखिल की गई थी। आमतौर पर ऐसे मामलों में अदालत संबंधित पक्षों को नोटिस जारी कर जवाब तलब करती है और जवाब देने के लिए कुछ वक्त देती है। लेकिन इस मामले में अदालत ने तुरत-फुरत सुनवाई कर चुनाव आयोग को कोई नोटिस जारी किए बगैर ही उसे सीधे निर्देश जारी कर दिया कि वह आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा देने पर 13 अप्रैल तक फैसला सुनाए। चुनाव आयोग ने भी गजब की फुर्ती दिखाई और 10 अप्रैल को ही आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा देने का ऐलान कर दिया। गौरतलब है कि 13 अप्रैल को ही कर्नाटक चुनाव के लिए अधिसूचना जारी होनी थी और उसी दिन से नामांकन शुरू होना था। सो, अधिसूचना जारी होने से पहले आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी के तौर पर मान्यता मिल गई। आम आदमी पार्टी के नेता खुल कर कह रहे थे कि उनकी पार्टी को अगर राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिल जाता है तो कर्नाटक के चुनाव में उसे बहुत फायदा होगा। सब जानते हैं कि अरविंद केजरीवाल गुजरात की तरह कर्नाटक में भी कांग्रेस को हराने के लिए कड़ी मेंहनत कर रहे हैं। इसलिए राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा हासिल करने को लेकर उनकी बेचैनी तो समझ में आती है, लेकिन हाई कोर्ट और चुनाव आयोग ने इस मामले में जैसी फुर्ती दिखाई, वह हैरान करने वाली है।

वंशवाद से भाजपा की यह कैसी लड़ाई?

वंशवाद से लड़ने का भाजपा ने एक अनोखा तरीका ईजाद किया है। इसके तहत वह अपनी पार्टी के बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों को तो आगे बढ़ाती ही है, साथ ही कांग्रेस और दूसरी पार्टियों से बड़े नेताओं के बेटे-बेटियों का आयात भी करती है और उनको भी आगे बढ़ाती है। उसके लिए वंशवाद सिर्फ़ भाजपा विरोधी पार्टियों में है। अगर उन पार्टियों के वंशवादी राजनीति के चेहरे अगर भाजपा में आ जाएं तो फिर वे वंशवादी नहीं रह जाते हैं। जैसे कांग्रेस के दिग्गज एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के प्रपौत्र सीआर केशवन अब वंशवादी नहीं रहे क्योंकि वे भाजपा में शामिल हो गए हैं। इससे पहले भी कांग्रेस के तमाम पूर्व राजा-महाराजा और बड़े नेताओं के बेटे, बेटी, पत्नी आदि को भाजपा ने सहर्ष अपनी पार्टी में शामिल किया है और उन्हें बड़ा पद भी दिया है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे एनटी रामाराव की बेटी डी. पुरंदेश्वरी भाजपा की राष्ट्रीय महामंत्री हैं और कर्नाटक के मुख्यमंत्री रहे एसआर बोम्मई के बेटे बसवराज बोम्मई भाजपा सरकार के मुख्यमंत्री हैं। माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र में मंत्री हैं तो जितेंद्र प्रसाद के बेटे जितिन प्रसाद उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह पूरे परिवार के साथ भाजपा में शामिल हो गए हैं। अगले चुनाव में उनकी पत्नी या बेटा भाजपा से चुनाव लड़े तो हैरानी नहीं होगी। इसके अलावा भाजपा के अपने और सहयोगी पार्टियों के नेताओं के बेटे-बेटियों की लंबी सूची है, जो किसी न किसी पद पर हैं।

किन अवांछित कारोबारियों से मिलते हैं राहुल?

कांग्रेस छोड़ चुके ग़ुलाम नबी आज़ाद का यह आरोप बहुत गंभीर है कि राहुल गांधी विदेश जाते हैं तो अवांछित कारोबारियों से मिलते हैं। इस आरोप को लेकर भाजपा ने राहुल से पूछा है कि वे बताएं कि जब वे विदेश जाते हैं तो किन कारोबारियों से मिलते हैं। हालांकि उन्होंने नाम किसी का नहीं लिया है, लेकिन अगर भाजपा ने राहुल पर हमला करने के लिए उनकी बात का संज्ञान लिया है तो सरकार और केंद्रीय जांच एजेंसियों को भी इसका संज्ञान लेकर आज़ाद से पूछताछ करनी चाहिए कि राहुल विदेश जाते हैं तो किन कारोबारियों से मिलते हैं और उसका क्या मकसद होता है। आज़ाद ने नेहरू-गांधी परिवार के लोगों के कारोबारियों से मिलने के बात कही है लेकिन इसमें कोई दिक्कत नहीं है। असली दिक्कत वाली बात अवांछित कारोबारियों से मिलने की है, जिसके बाद भाजपा ने कहा कि विदेश से लौट कर राहुल केंद्र सरकार पर ज़्यादा हमलावर हो जाते है। इसका मतलब है कि विदेश में वे ऐसे अवांछित कारोबारी से मिलते हैं, जिसका एजेंडा भारत सरकार के विरोध में होता है। वह कारोबारी भारत का कोई नागरिक है या विदेशी नागरिक है? सरकार का विरोध कराने के पीछे उसका क्या एजेंडा है? इन सवालों के जवाब हासिल करने की ज़रूरत है। यह तो तय है कि अगर आज़ाद के पास ऐसी कोई जानकारी है तो वह भाजपा को और सरकार को मिल चुकी होगी। अब सवाल है कि उस जानकारी पर सरकार कब कार्रवाई करेगी? क्या वह चुनाव का इंतज़ार करेगी?

क्या सिर्फ़ बंगले की चिंता में ग़ुलाम नबी आज़ाद?

ग़ुलाम नबी आज़ाद को क्या सचमुच अपने बंगले की चिंता है, जिसकी वजह से वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की खुल कर तारीफ कर रहे हैं और सोनिया व राहुल गांधी को निशाना बना रहे हैं? इसमें संदेह नहीं है कि कोई इतना बड़ा नेता सिर्फ़ बंगले की खातिर अपनी पूरी राजनीति दांव पर नहीं लगाता है। इसलिए बंगले के साथ-साथ कुछ और भी राजनीतिक कारण हैं। लेकिन बंगला और सुरक्षा ये दो मुख्य कारण हैं। असल में ग़ुलाम नबी आज़ाद के पास दिल्ली के साउथ एवेन्यू में तो सरकारी बंगला है ही, इसके अलावा जम्मू-कश्मीर में भी एक सरकारी बंगला है। एक रिपोर्ट के मुताबिक़ जम्मू-कश्मीर में 50 से ज़्यादा ऐसे लोग हैं, जिनको बंगला मिला था और उसके योग्य नहीं होने के बावजूद उन्होंने अभी तक बंगला खाली नहीं किया है। उसमें आज़ाद का भी नाम है। फिलहाल जम्मू-कश्मीर में भी केंद्र की ही सरकार चल रही है। अगर उप राज्यपाल मनोज सिन्हा का प्रशासन चाहे तो तुरंत आज़ाद को बंगला खाली करना होगा। सोचने वाली बात है कि राहुल गांधी को सदस्यता खत्म होने के दो दिन बाद ही एक महीने में बंगला खाली करने को कह दिया गया, जबकि आज़ाद की सदस्यता समाप्त हुए एक साल से ज़्यादा हो गया है। कश्मीर में तो बंगला रखने की उनकी पात्रता बहुत पहले ही खत्म हो गई थी। सो, बंगला एक कारण है। इसके अलावा भाजपा को उनकी उपयोगिता जम्मू-कश्मीर की राजनीति में दिख रही है। भाजपा को हर हाल में अगले चुनाव के बाद अपना मुख्यमंत्री बनाना है उसमें आज़ाद भूमिका निभा सकते हैं और उसके बाद उन्हें कहीं का राज्यपाल बनाया जा सकता है।

कर्नाटक के दलबदल पर मीडिया का ध्यान नहीं

विधानसभा का चुनाव कर्नाटक में हो रहा है और इसके बाद तेलंगाना में होगा। लेकिन एक हफ़्ते के अंदर जो तीन नेता भाजपा में शामिल हुए हैं वे इन दोनों राज्यों के नहीं हैं। केरल, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के कांग्रेस नेता भाजपा में शामिल हुए हैं। दूसरी ओर कर्नाटक में इसके ठीक उलट हो रहा है। वहां भाजपा छोड़ कर उसके नेता कांग्रेस में शामिल हो रहे हैं। पिछले कुछ दिनों में कर्नाटक के पांच विधायक, दो विधान पार्षद, 11 पूर्व विधायक, चार पूर्व विधान पार्षद और एक पूर्व सांसद कांग्रेस में शामिल हुए हैं। इनमें से ज़्यादातर भाजपा के नेता हैं और कुछ नेता जनता दल (एस) के हैं। अपने यहां से बड़े पैमाने पर हो रहे दलबदल पर से ध्यान हटाने के लिए भाजपा ने बड़ा माहौल बना कर आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री किरण रेड्डी को अपनी पार्टी में शामिल कराया। उन्होंने कांग्रेस छोड़ कर अपनी पार्टी बनाई थी और फिर कांग्रेस में लौटे थे। अब वे भाजपा में गए हैं। आंध्र की राजनीति में उनकी प्रासंगिकता नहीं बची है लेकिन कर्नाटक में मैसेज बनवाने के लिए भाजपा ने उन्हें अपने यहां प्रवेश दिया है। इसी तरह कांग्रेस नेता और केरल के पूर्व मुख्यमंत्री एके एंटनी के बेटे अनिल एंटनी और तमिलनाडु में महान स्वतंत्रता सेनानी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के प्रपौत्र सीआर केसवन को भाजपा में शामिल कराया गया है। ये तीनों नेता कर्नाटक की राजनीति में भाजपा के किसी खास काम नहीं आएंगे लेकिन इनके नाम पर मीडिया की मदद से भाजपा ने कांग्रेस के कमज़ोर होने का नैरेटिव बनाया है।

मानहानि सिर्फ़ हिमंत सरमा की हुई?

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने गौतम अडानी के साथ पांच नेताओं के नाम जोड़े, लेकिन ऐसा लग रहा है कि मानहानि सिर्फ़ हिमंत बिस्वा सरमा को महसूस हुई है। इसीलिए सरमा ने इस पर बहुत तीखा स्टैंड लिया है और राहुल गांधी को अदालत में देख लेने की धमकी दी है। उन्होंने राहुल गांधी के ख़िलाफ़ मानहानि का मामला दर्ज कराने की बात कही है। असल में राहुल ने एक ग्राफिक्स के ज़रिए अडानी की स्पेलिंग के पांच अक्षरों से पांच नेताओं के नाम बनाए। उन्होंने ग़ुलाम नबी आज़ाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, किरण रेड्डी, हिमंत सरमा और अनिल एंटनी को अडानी के साथ जोड़ा। हालांकि इसका कोई लॉजिक नहीं है क्योकि राजनीतिक रूप से यह मानने का कोई कारण नहीं है कि ये नेता अडानी से जुड़े थे या अडानी की वजह से इन्होंने कांग्रेस छोड़ी है। यह एक बचकाना सा ग्राफिक्स था। फिर भी हिमंत बिस्वा सरमा की मानहानि हो गई। वैसे भी आजकल सबसे ज़्यादा मानहानि या भावना आहत होने वाला प्रदेश असम हो गया है। गुजरात के विधायक जिग्नेश मेंवानी के बयान से असम में ही किसी की भावना आहत हुई थी, जो पुलिस उनको उठा ले गई थी और कांग्रेस के मीडिया प्रभारी पवन खेड़ा के बयान से भी असम में ही किसी भावना आहत हुई थी और वहां की पुलिस खेड़ा को पकड़ने दिल्ली पहुंच गई थी। अब राहुल के ट्वीट से असम के मुख्यमंत्री की मानहानि हो गई है। अगर यह ट्वीट इतना मानहानि वाला था तो ग़ुलाम नबी आज़ाद, सिंधिया, किरण रेड्डी या अनिल एंटनी की मानहानि क्यों नहीं हुई? ऐसा लग रहा है कि हिमंत सरमा इतने छुईमुई हैं कि किसी भी राजनीतिक टिप्पणी से आहत हो जाते हैं। 

दुनिया के ताकतवर लोगों में मोदी की गिनती नहीं?

अमेंरिका की टाइम मैगज़ीन ने साल 2023 के लिए दुनिया के 100 प्रभावशाली लोगों की जो सूची जारी की है, वह भारत में कुछ लोगों को खटकने वाली है। इस सूची में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नाम नहीं है, जबकि सत्तारूढ़ भाजपा और उसके ढिंढोरची की भूमिका निभाने वाला भारतीय मीडिया इस समय उन्हें पूरी दुनिया का सबसे प्रभावशाली नेता बताने में जुटा हुआ है। टाइम की सूची में भारत से दो फिल्मी नाम अभिनेता शाहरुख खान और निर्देशक एसएस राजामौली के नाम हैं। भारतीय मूल के मशहूर अमेंरिकी लेखक सलमान रुश्दी का भी नाम भी इस सूची शामिल है। टाइम मैगज़ीन ने यह साफ नहीं किया है कि उसकी कोई और लिस्ट भी आएगी या नाम बढ़ेंगे। चूंकि सूची में अमेंरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन का नाम भी शामिल है तो इससे ज़ाहिर है कि सूची में दुनिया के प्रभावशाली राजनैतिक चेहरों को शामिल कर लिया गया है और दोबारा कोई लिस्ट नहीं आने वाली है। बहरहाल यह लगातार दूसरा वर्ष है जब टाइम मैगज़ीन ने अपनी इस तरह की सूची में प्रधानमंत्री मोदी को शामिल नहीं किया है। साल 2022 की सूची में भी उनका नाम 100 ताकतवर लोगों में शामिल नहीं था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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