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ख़बरों के आगे-पीछे : बजट में नारों और जुमलों की भरमार

"वित्त मंत्री ने किसी न किसी मामले में वे सारे नारे भी दोहराए जो सरकारी कार्यक्रमों और भाजपा की सभाओं में लगाए जाते हैं।"
Nirmala Sitarama
फ़ोटो साभार : PTI

केंद्र सरकार के बजट में इस बार नारों की भरमार रही। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट में वे सारे नारे दोहराए, जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अलग-अलग मौकों पर बोलते रहे हैं। वित्त मंत्री ने किसी न किसी मामले में वे सारे नारे भी दोहराए जो सरकारी कार्यक्रमों और भाजपा की सभाओं में लगाए जाते हैं। उन्होंने पिछले कुछ दिनों में लोकप्रिय हुए तमाम जुमले भी बोले। उदाहरण के तौर पर उन्होंने अमृत वर्ष का ज़िक्र किया और यह भी कहा कि उनका इस बार का बजट अगले 25 साल का ब्लू प्रिंट है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री मोदी अब लगातार 2047 के लक्ष्यों की घोषणा कर रहे हैं। वित्त मंत्री ने उसी को ध्यान में रख कर यह जुमला बोला। उन्होंने अपने बजट को समावेशी विकास का बजट बताते हुए 'सबका साथ, सबका विकास’ का नारा दोहराया। बजट की सात प्राथमिकताओं में सबसे ऊपर समावेशी विकास को रखते हुए निर्मला सीतारमण ने अपने अंग्रेजी भाषण के बीच हिंदी में 'वंचितों को वरीयता’ का नारा दोहराया। उन्होंने सहकारिता मंत्रालय बनाए जाने का ज़िक्र करते हुए 'सहकार से समृद्धि’ का नारा भी दोहराया। उन्होंने 'विवाद से विश्वास’ योजना का ज़िक्र किया तो साथ ही 'पीएम किसान’ के बाद फर्टिलाइज़र से जुड़ी 'पीएम प्रणाम’ योजना का भी ऐलान किया। जब उन्होंने बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर 10 लाख करोड़ रुपये खर्च करने का ऐलान किया तो सत्ता पक्ष ने आमसभा की भीड़ की तरह बड़ी देर तक मोदी-मोदी के नारे भी लगाए।

भारतीय मीडिया की बेमिसाल बेशर्मी

भारत में मुख्यधारा का मीडिया जितना बेशर्म, लालची और लाचार है, उसकी मिसाल दुनिया में कहीं नहीं मिल सकती। नफ़रत के एजेंडे पर समाज में नफ़रत फैलाने और झूठी खबरें दिखाने के मामले तो वह कुख्यात है ही, साथ ही घोटालेबाज़ कारोबारियों के कारनामों पर पर्दा डालने में भी वह पीछे नहीं रहता है। हाल ही में अडानी समूह की कथित धोखाधड़ी और लूट से संबंधित हिंडेनबर्ग की रिपोर्ट और उसके 88 सवाल किसी अख़बार ने नहीं छापे और न ही टीवी चैनलों ने दिखाए। लेकिन उन सवालों पर अडानी समूह ने जो लीपापोती वाला आधा-अधूरा जवाब दिया है, उसे सभी अख़बारों ने प्रमुखता से छापा। टीवी चैनलों ने तो न सिर्फ अडानी समूह के जवाब को प्रमुखता से पेश किया बल्कि कई चैनल अडानी के प्रवक्ता या वकील की तरह पेश आए। यही नहीं, शेयर बाज़ार में अडानी समूह के साथ ही योग प्रशिक्षक रामदेव की कंपनी पतंजलि के शेयरों के दामों में भी 25 जनवरी से लगातार गिरावट देखी गई लेकिन यह ख़बर भी मीडिया में पूरी तरह गायब रही। गौरतलब है कि पिछले एक महीने के दौरान पतंजलि के शेयर में 25 फीसदी से ज़्यादा की गिरावट दर्ज हुई है लेकिन मीडिया में कहीं इस बात की चर्चा नहीं है कि 2014 के बाद तेज़ी से बढ़ने वाली रामदेव की कंपनी के शेयर अडानी के साथ इतनी तेज़ी से क्यों गिर रहे हैं? वजह सिर्फ एक ही है कि मीडिया को विज्ञापन देने में रामदेव की कंपनी पतंजलि भी दूसरे बड़े कॉरपोरेट समूहों से पीछे नहीं है।

मंदिर-मानस विवाद से कैसे निबटेगी कांग्रेस

कांग्रेस पार्टी को मंदिर और रामचरितमानस के मुद्दे के लिए जवाब तलाशना है। राहुल गांधी ने पांच महीने पदयात्रा की और कांग्रेस के लिए आगे की राजनीति का एजेंडा सेट किया। लेकिन ऐसा नहीं है कि अब राजनीति कांग्रेस के एजेंडे पर होगी। भाजपा का एजेंडा पहले से सेट है। उसे मंदिर और हिंदुत्व के नाम पर राजनीति करनी है। पार्टी ने ऐलान कर दिया है कि एक जनवरी 2024 को भव्य राममंदिर का उद्घाटन होगा। दूसरी ओर विपक्ष की पार्टियां अपना एजेंडा सेट कर रही हैं, उनको भी भाजपा के एजेंडे पर राजनीति नहीं करनी है। विपक्ष में भी कांग्रेस को बिहार और उत्तर प्रदेश की पार्टियों की ज़्यादा चिंता है, जो रामचरितमानस को पिछड़ा और दलित विरोधी ठहरा कर उसके नाम पर अगड़ा बनाम पिछड़ा की राजनीति करना चाह रही हैं। कांग्रेस को इस पर भी जवाब देना होगा। उसके साथ मुश्किल यह है कि वह न तो मंदिर के साथ खड़ी हो सकती है और न मानस विरोधियों के साथ। कुछ अन्य विपक्षी पार्टियां खुल कर अस्मिता की राजनीति कर रही हैं। उन्होंने भाषायी या क्षेत्रीय अस्मिता का मुद्दा बनाया है। ममता बनर्जी से लेकर एमके स्टालिन तक की पार्टी इस लाइन पर राजनीति करेगी ऐसे में कांग्रेस को उनके साथ भी तालमेल बैठाने के लिए काफी समझौता करना पड़ेगा।

किसने किया सुषमा स्वराज का अपमान?

अमेरिका के विदेश मंत्री रहे माइक पोम्पियो की एक किताब आई है जिसका नाम है-'नेवर गिव एन इंच : फाइटिंग फॉर द अमेरिका आई लव’। इसमें उन्होंने भारत और पाकिस्तान के संबंधों को लेकर लिखा है कि 2019 के बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के बाद दोनों देशों में परमाणु युद्ध की नौबत आ गई थी। यह लिख कर एक तरह से उन्होंने कम से कम सर्जिकल स्ट्राइक पर मुहर लगा दी है, जिसका सबूत विपक्ष के नेता मांगते रहे हैं। उन्होंने दूसरी अहम बात उस समय की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के बारे में लिखी है। सुषमा स्वराज केंद्र में नरेंद्र मोदी की पहली सरकार में विदेश मंत्री रही थीं। उनके बारे में पोम्पियो ने अपनी किताब में लिखा है, "मैं उनको बहुत महत्वपूर्ण राजनीतिक हस्ती नहीं मानता हूँ।" पोम्पियो ने उनकी बजाय तत्कालीन विदेश सचिव एस जयशंकर और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल का खास अंदाज़ में ज़िक्र किया है। किताब रिलीज़ होने के बाद जयशंकर ने एक बयान में कहा कि वे सुषमा स्वराज का बहुत सम्मान करते हैं और उनके बारे में ऐसा लिखना बेहद अपमानजनक है। लेकिन असल में पोम्पियो का कहना है कि उन्होंने किताब में सुषमा स्वराज के बारे में ये बात जयशंकर के हवाले से लिखी है। पोम्पियो ने लिखा है कि जयशंकर ने सुषमा स्वराज को 'गूफबॉल' और 'हर्टलैंड पॉलिटिकल हैक' बताया था। लेकिन जयशंकर ने इस पर पलटवार करते हुए पोम्पियो पर ठीकरा फोड़ दिया कि उन्होंने सुषमा स्वराज का अपमान किया है।

कांग्रेस के लिए विपक्ष को एकजुट करना आसान नहीं

देश की तमाम बड़ी विपक्षी पार्टियों ने कांग्रेस की कश्मीर रैली से दूरी बना कर यह संदेश दे दिया है कि भाजपा के खिलाफ विपक्षी पार्टियों की एकता आसान नहीं होगी। अगर कांग्रेस इसकी पहल करती है तो उसे बहुत मोलभाव का सामना करना होगा। राहुल गांधी ने कहा कि विपक्षी पार्टियों में मतभेद है लेकिन उनका लक्ष्य एक है और वे एकजुट होंगे। लेकिन मामला इतना आसान नहीं है, क्योंकि विपक्षी पार्टियां कांग्रेस की बढ़ी हुई लोकप्रियता से चिंतित हैं। उनको लग रहा है कि राहुल गांधी की यात्रा से ताकतवर हुई कांग्रेस उनसे ज़्यादा हिस्सेदारी मांगेगी और ज़्यादा हिस्सा देने का ख़तरा यह है कि कांग्रेस का मूल वोट बैंक फिर उसके पास लौट सकता है। इसीलिए ज़्यादातर विपक्षी पार्टियां श्रीनगर की रैली में नहीं गईं। उन्हें पता था कि उनके जाने से यह मैसेज जाएगा कि कांग्रेस ही विपक्ष की धुरी है और समूचा विपक्ष उसके झंडे के नीचे आ गया है। इसीलिए शिव सेना से लेकर एनसीपी और राजद से लेकर जनता दल(यू) तक सभी बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों ने इस रैली से दूरी बनाई। महाराष्ट्र में कांग्रेस, एनसीपी और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट का औपचारिक गठबंधन है और बिहार में राजद, जद(यू) के साथ कांग्रेस का औपचारिक गठबंधन है, फिर भी इसके नेता रैली में नहीं गए। सीपीएम, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल, तेलुगू देशम पार्टी, वाईएसआर कांग्रेस, जनता दल(एस) आदि ने भी दूर बनाई। कश्मीर की दोनों पार्टियों- नेशनल कांफ्रेन्स और पीडीपी के अलावा सिर्फ एक बड़ी पार्टी डीएमके ने रैली में हिस्सा लिया। कांग्रेस की बड़ी सहयोगियों में से एक जेएमएम ने अपना प्रतिनिधि भेजा था। इसके अलावा सीपीआई, वीसीके, आईयूएमएल, आरएसपी आदि के नेता शामिल हुए तो उनका कोई मतलब नहीं है।

मंत्रिपरिषद में फेरबदल का क्या हुआ?

जिस तरह भाजपा संगठन में फेरबदल की चर्चा थम गई है उसी तरह केंद्रीय मंत्रिपरिषद में फेरबदल की चर्चा भी अब मीडिया से गायब है। मंत्री पद बचाने या मंत्री पद हासिल करने के लिए ज्योतिषियों और मंदिरों की शरण में जा रहे नेताओं की भागदौड़ अब थम गई है। संसद का बजट सत्र शुरू हो गया है और उन्हें लग रहा है कि प्रधानमंत्री अभी तत्काल सरकार में फेरबदल नही करने जा रहे हैं। मौजूदा मंत्रियों से इस बारे में पूछे जाने पर उनका पलट कर सवाल होता है कि फेरबदल की ज़रूरत क्या है? हालांकि पार्टी के कई नेता मान रहे हैं कि इस साल राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए फेरबदल की ज़रूरत है, लेकिन सवाल है कि वह कब होगा? संसद का बजट सत्र छह अप्रैल तक चलेगा और इस दौरान एक महीने का अवकाश भी रहेगा। इस दौरान फेरबदल होना मुश्किल है, क्योंकि इस एक महीने के अवकाश में सभी मंत्रालयों के बजट और अनुदान मांगों पर इन मंत्रालयों की संसद की स्थायी समिति में विचार विमर्श होता है। ऐसे समय में मंत्री बदलने से कामकाज भी प्रभावित होगा और संदेश भी अच्छा नहीं जाएगा। इसलिए अब कहा जा रहा है कि छह अप्रैल को बजट सत्र समाप्त होने के बाद फेरबदल संभव है। छह अप्रैल से लेकर 30 मई के बीच जब मोदी सरकार के चार साल पूरे होंगे, तब मंत्रिपरिषद में फेरबदल का अनुमान लगाया जा रहा है। गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के दूसरे कार्यकाल में सिर्फ एक बार, जुलाई 2021 मे फेरबदल किया था।

भाजपा के लिए जद(यू) के अंगूर खट्टे हैं!

आखिरकार भाजपा ने मान लिया कि बिहार में नीतीश कुमार अब पलटी मार कर भाजपा के साथ नहीं आने वाले हैं। इसीलिए पार्टी प्रदेश की कार्यसमिति ने इस संबंध में विधिवत प्रस्ताव पारित किया कि बिहार में भाजपा अब कभी नीतीश कुमार की पार्टी के साथ तालमेल नहीं करेगी। भाजपा सांसद और पूर्व उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी के मुताबिक यह फैसला केंद्रीय नेतृत्व का है, जिसे प्रदेश कार्यकारिणी में स्वीकार किया गया है। असल में यह मजबूरी का फैसला है। पिछले साल अगस्त में जब नीतीश ने भाजपा से गठबंधन खत्म कर राजद और कांग्रेस के साथ मिल कर सरकार बनाई तभी से भाजपा के नेता प्रचार कर रहे थे कि नीतीश एक बार फिर पलटी मारेंगें और भाजपा के साथ आ जाएंगें। निश्चित रूप से जनता दल(यू) में भी ऐसे कई नेता हैं, जो राजद के साथ बहुत सहज नहीं हैं और उनकी भी इच्छा थी कि वापस एनडीए में चला जाए। लेकिन उनसे ज़्यादा बेचैनी भाजपा के नेताओं में थी। सत्ता गंवाने के बाद से प्रदेश भाजपा के नेताओं ने तरह-तरह की अफवाहें फैलाईं। सबसे बड़ी अफवाह यह थी कि नीतीश एनडीए में वापसी कर रहे हैं और इस बार केंद्र में मंत्री बनेगें और राज्य में उनके समर्थन से भाजपा की सरकार बनेगी। मीडिया में यह ख़बर भी चलवाई गई कि नीतीश कुमार ने शर्त रखी है कि अगर भाजपा सुशील मोदी को मुख्यमंत्री बनाती है तो वे एनडीए में लौटेंगे। इस अफवाह की हवा निकलने के बाद भाजपा की ओर से दूसरा प्रचार किया गया कि बिहार में महाराष्ट्र जैसा होने जा रहा है। यानी जनता दल(यू) में टूट होगी और उसका बड़ा हिस्सा अलग होकर भाजपा से तालमेल कर लेगा, फिर या तो भाजपा की सरकार बनेगी या भाजपा के समर्थन से जद(यू) के टूटे हुए धड़े की सरकार बन जाएगी। जब इस अफवाह की भी हवा निकल गई और भाजपा को लग गया कि अंगूर खट्टे हैं तो उसने मजबूरी में ऐलान किया कि अब नीतीश के साथ कभी तालमेल नहीं होगा।

महाराष्ट्र में समय से पहले चुनाव की तैयारी

महाराष्ट्र में विधानसभा का कार्यकाल शायद पूरा नहीं होगा। भाजपा के जानकार सूत्रों के मुताबिक पार्टी इसी साल चुनाव की तैयारी कर रही है। बताया जा रहा है कि बीएमसी के साथ-साथ पुणे, ठाणे जैसे कुछ बड़े शहरों में नगर निगम के चुनाव होने के बाद विधानसभा चुनाव हो जाएंगे। भाजपा उसी हिसाब से तैयारी कर रही है और उसने अपनी सहयोगी शिव सेना के एकनाथ शिंदे गुट के सामने भी यह साफ कर दिया है कि सरकार अगले साल अक्टूबर तक नहीं चलेगी। बताया जा रहा है कि भाजपा एकनाथ शिंदे की पार्टी को बड़ी राजनीतिक ताकत में नहीं बदलने देना चाहती है। उसे लगता है कि अगर शिंदे लगातार दो साल से ज़्यादा समय तक मुख्यमंत्री रहते हैं तो उनके संसाधन और उनकी पार्टी का आधार बढ़ेगा। भाजपा जैसे-तैसे शिव सेना को ख़त्म करके हिंदुत्व की राजनीति करने वाली एकमात्र पार्टी बनना चाहती है। इसलिए वह शिंदे गुट को मजबूत नहीं होने देगी। इसलिए अगले लोकसभा चुनाव से पहले विधानसभा चुनाव करा कर राज्य में भाजपा की सरकार बनाने की तैयारी है। भाजपा को लग रहा है कि चुनाव में शिंदे गुट को पुरानी शिव सेना के मुकाबले कम सीटें मिलेंगीं और ऐसे में वह (भाजपा) वह अपने दम पर 2014 की तरह बहुमत के करीब पहुंच जाएगी। अब सवाल है कि समय से पहले कब चुनाव होगा? यह तो तय है कि कर्नाटक के साथ महाराष्ट्र में चुनाव नहीं होगा क्योंकि फिर दोनों तरफ सीमा विवाद का मुद्दा बनेगा, जिसमें भाजपा को नुकसान होगा। इसलिए चुनाव होने की ज़्यादा संभावना मई के बाद है।

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