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ललित सुरजनः हिंदी पत्रकारिता ने एक ज्ञानी और जनपक्षी संपादक खो दिया

आज के कॉरपोरेट-नियंत्रित मीडिया-परिदृश्य में भी ललित सुरजन ने अपने ‘देशबन्धु’ के जरिये साफ-सुथरी और जनपक्षधर पत्रकारिता की। उनकी अगुवाई में उनके संस्थान ने पत्रकारिता की अलख जगाये रखा।
ललित सुरजन
फोटो साभार : ट्विटर

मध्य भारत के प्रतिष्ठित हिंदी अखबार ‘देशबन्धु’ के प्रधान संपादक और संचालक ललित सुरजन का बुधवार की रात दिल्ली में निधन हो गया। वह 74 वर्ष के थे। पिछले कुछ समय से वह अस्वस्थ चल रहे थे और दिल्ली में ही उनका इलाज चल रहा था। स्वास्थ्य में सुधार भी हो रहा था। इसी बीच तीन दिनों पहले उन्हें मस्तिष्क रक्त-स्राव हुआ। तत्काल अस्पताल पहुंचाया गया पर उन्हें बचाया नहीं जा सका। ललित सुरजन का जाना उनके परिवार, उनके अखबार के अलावा भारतीय पत्रकारिता, खासतौर पर हिंदी पत्रकारिता के लिए बड़ी क्षति है। यह बात मैं सिर्फ उऩके व्यक्तिगत गुणों के कारण नहीं कह रहा हूं। उऩके पेशागत और संस्थागत योगदान की दृष्टि से कह रहा हूं।

आज के कॉरपोरेट-नियंत्रित मीडिया-परिदृश्य में भी उन्होंने अपने ‘देशबन्धु’ के जरिये साफ-सुथरी और जनपक्षधर पत्रकारिता की। उनकी अगुवाई में उनके संस्थान ने पत्रकारिता की अलख जगाये रखा। उनका दूसरा योगदान संस्थान-संचालन के खास मॉडल से सम्बन्धित है। ‘देशबन्धु’ मॉडल आज के दौर में बहुत महत्वपूर्ण और प्रासंगिक है। कॉरपोरेट-मीडिया के तेजी से उभरते जन-विरोधी चरित्र और अन्य दुगुर्णों से आजिज आकर बहुतेरे युवा और वरिष्ठ पत्रकारों में मीडिया-संचालन के नये वैकल्पिक मॉडल की तलाश की आज बेचैनी नजर आती है!

अखबारों, न्यूज चैनलों यानी मुख्यधारा मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा आज सत्ताधारियों का ‘सहयोगी’ और येनकेन प्रकारेण अपने धंधे और मुनाफे के विस्तार का मंच सा बना हुआ है। ऐसे दौर में भी ललित सुरजन ने अपने अखबार और अपनी पत्रकारिता को इस कॉरपोरेट-अंधड़ से बचाये रखा। वह एक ऐसे मीडिया संस्थान के मालिक और प्रधान संपादक थे, जिसका अखबार-वेबसाइट आदि के अलावा और कोई धंधा नहीं था।

इससे किसी बिगड़ैल या निरंकुश सत्ताधारी के लिए उऩसे निपटना थोड़ा मुश्किल था। भारत जैसे देश में व्य़ावसायिक मीडिया संस्थान चलाने की राह में बहुतेरी समस्याएं, चुनौतियां और मजबूरियां आती हैं। लगभग पांच दशक के अपने पत्रकारिता जीवन में मध्य भारत और केंद्र की राजनीति में कई बड़े राजनीतिक दिग्गजों से उऩके सम्बन्ध रहे होंगे। क्षेत्रीय स्तर के शीर्ष सत्ताधारी नेताओं से उनके रिश्ते आमतौर पर ठीक-ठाक ही रहे। हर सत्ताधारी से टकराव मोल लेने के बजाय वह अपनी बात शालीनता लेकिन पूरी ताकत से रखने में यकीन करते थे। मसलन, सेक्युलरिज्म के सवाल पर उन्होंने या उनके ‘देशबन्धु’ ने कोई समझौता नहीं किया।

सन् 1994 में अपने पिता मायाराम सुरजन के निधन के बाद संस्थान के संचालन की पूरी जिम्मेदारी उन्हीं के कंधों पर आई और उन दिनों ‘देशबन्धु’ का अविभाजित मध्य प्रदेश में जलवा कायम था। उनके पत्रकार-पिता ने अखबार की शुरुआत सन् 1959 में की थी। उन्हीं के दौर से ‘देशबन्धु’ का जनपक्षधर-पत्रकारिता का सफर शुरू हुआ। अखबार की बहुचर्चित टैगलाइन ही थाः पत्र नहीं मित्र!  पिता और पुत्र, दोनों ने अखबार को जनता का मित्र बनाये रखा। यह कोई छोटी बात नहीं है।

भारत में नव-उदारवादी यानी साम्राज्यवाद-प्रेरित नयी अर्थनीति के लागू होने के साथ समाज का हर हिस्सा इससे प्रभावित हुआ। मीडिया पर भी इसका असर पड़ा। ‘देशबंधु’ सरीखे अखबारों पर जबर्दस्त असर दिखा। अखबारों के बीच गलाकाट प्रतिद्वन्द्विता शुरू हुआ। अखबारी मूल्य-निर्धारण की जंग से लेकर विज्ञापनों पर कब्जे की लड़ाई तक। करोडों के टर्नओवर वाली कंपनियों के अखबार जिले-जिले में संस्करण निकालने लगे। ‘देशबन्धु’ जैसों की आर्थिकी बेहाल होने लगी। देश के ऐसे कई अखबारों के सामने यह संकट पैदा हुआ। कई तो बंद हो गये और कई सिमट गये। लेकिन ‘देशबन्धु’ जारी रहा और अपनी पूरी वैचारिकता और प्रतिबद्धता के साथ। हां, पाठक-संख्या उसकी कम हुई।

उसके कई संस्करण बहुत मुश्किल में पड़ गये। लेकिन ललित जी ने इस झंझा में भी पत्रकारिता का झंडा नीचे नहीं गिरने दिया। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में उनके अखबार ने अपनी अच्छी पत्रकारिता का उदाहरण पेश किया। उसने कई अच्छे युवा पत्रकार भी सामने लाये, जिन्होंने बाद के दिनों में राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया मंचों पर काम करते हुए नाम कमाया।

किसी पिछड़े प्रदेश और क्षेत्रीय पत्रकारिता से निकलकर अपने आपको ‘राष्ट्रीय’ कहने वाले बड़े मीडिया संस्थानों में काम करना और पत्रकारिता में पांव जमाना कम चुनौतीपूर्ण नहीं होता। लेकिन ‘देशबन्धु’ के कई पत्रकारों ने प्रिंट और ब्रॉडकास्ट के बड़े मीडिया संस्थानों में काम करते हुए अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। इनमें निधीश त्यागी, विनोद वर्मा, शुभ्रांशु चौधरी, सुदीप ठाकुर और ईश्वर सिंह दोस्त कुछ उल्लेखनीय नाम हैं।

‘देशबन्धु’ की एक बड़ी विशेषता रही है, ग्रामीण क्षेत्रों की उसकी रिपोर्टिंग! इस मामले में उसने राष्ट्रीय दैनिकों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत किया। रिपोर्टिंग के मामले में ‘देशबन्धु’ का एक और विशिष्ट पहलू मुझे आकर्षित करता रहा। एक क्षेत्रीय अखबार, वह भी सीमित निवेश और अपनी छोटी-मझोली आर्थिकी के बावजूद ‘देशबन्धु’ ने देश के बड़े मुद्दों या घटनाक्रमों के ‘कवरेज’ के लिए अपने रिपोर्टरों को दूर-दूर भेजा।

 न्यूज एजेंसियों की कॉपी से डेस्क पर बैठे-बैठे रिपोर्ट तैयार करने की ज्यादातर हिंदी अखबारों की परिपाटी की उसने नकल नहीं की। जमीनी-रिपोर्टिंग को महत्व दिया और उस पर खर्च किया। उसके कुछ विशेष प्रकाशनों-‘अक्षरपर्व’ और ‘संदर्भ मध्य प्रदेश’ आदि की हिंदी पत्रकारिता में चर्चा और प्रशंसा हुई।

मैं यह तो नहीं कह सकता कि अखबार के संचालक-मालिक के रूप में ललित जी ने अपनी लंबी पारी में कभी किसी तरह के ‘समझौते’ ही नहीं किये होंगे। लेकिन यह बात में दावे के साथ कह सकता हूं कि उन्होंने पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों और जनपक्षधरता के सवाल पर कोई समझौता नहीं किया। उनके निधन से छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की पत्रकारिता में अब एक तरह की शून्यता महसूस की जायेगी। मध्य भारत की पत्रकारिता में आज जितने लोग हैं, उऩमें वह काफी विशिष्ट हैं। अब भी कई अच्छे वरिष्ठ पत्रकार काम कर रहे हैं या सेवा-निवृत्ति के बाद भी लेखन में सक्रिय हैं। पर एक मीडिया-संस्थान को संचालित करने वाला ऐसा पत्रकार इस वक्त कोई और नहीं नजर आता!

एक ही पेशे में होने के चलते ललित जी और हम, एक-दूसरे को जानते तो पहले से थे लेकिन ललित जी से पहली मुलाकात बहुत बाद में हुई। अब से आठ साल पहले हम लोग ब्रिटेन सरकार के फॉरेन कॉमनवेल्थ आफिस के आमंत्रण पर साथ-साथ ब्रिटेन दौरे पर गये। लंदन, लेस्टर और बर्मिंघम में हम लोग कुछ दिन साथ-साथ रहे। ललित जी के ज्ञान, अनुभव और सह्रदयता ने हम सबको प्रभावित किया। फिर, दो-तीन बार हमारी रायपुर में भी मुलाकात हुई।

एक बार उन्हीं की अध्यक्षता में आयोजित एक सेमिनार में मेरा व्याख्यान हुआ। कुछ अच्छी मुलाकातें दिल्ली में भी हुईं। आईआईसी उनका खास अड्डा था। संभवतः वह उसके सदस्य भी थे। बैठकों-मुलाकातों के अलावा हम लोग बीच-बीच में फोन पर भी संवाद करते रहते थे। कुछ महीने पहले जब वह दिल्ली आये तो उन्होंने उसकी फौरन सूचना दी और बताया कि स्वास्थ्य सम्बन्धी कुछ गंभीर समस्याएं सामने आ रही हैं। कुछ जांच रायपुर में हुई थी। अब दिल्ली में होगी। इसीलिए आया हूं। मैंने कहाः ‘आप तो बिल्कुल स्वस्थ और सक्रिय हैं। अभी तो मिले थे, कितने फिट थे! आपको कुछ नहीं हुआ है। जांच में यही आयेगा।’ पर ऐसा नहीं हुआ।

उन्हें कैंसर की शिनाख्त हुई थी। कैंसर के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती होने से पहले और अस्पताल से लौटने के कुछ दिन बाद हमारी दो-तीन बार अच्छी बातचीत हुई। फोन के जरिये भी संदेशों का आदान-प्रदान होता रहा। वह दिल्ली में अपनी बेटी और दामाद के यहां रहते हुए काफी सहज और आशा से भरे हुए थे। फेसबुक पर कई बार चित्र भी शेयर करते। एक अस्पताल के अच्छे डाक्टरों की देखरेख में उनके स्वास्थ्य की जांच-पड़ताल चलती रहती थी। काफी सुधार भी दिख रहा था। वह लगातार लिख-पढ़ रहे थे।

‘देशबन्धु’ के संपादकीय अग्रलेख के अलावा इन दिनों वह कविताएं भी लिख रहे थे। अपनी कुछ कविताओं का उन्होंने सोशल मीडिया के जरिये पाठ भी किया। पिछली बातचीत के दौरान हम लोगों ने कोरोना-दौर के बाद निकट-भविष्य में मिलने की बात की थी। अभी चार-पांच दिन पहले ही मैंने उनके अलग-अलग विषयों पर लिखे दो संपादकीय अग्रलेख पढ़े। कुछ समय से उन्होंने ‘देशबन्धु’ के साठ साल पर लेखमाला की शुरूआत की थी। बेहद पठनीय और सूचना से भरी हुई लेखमाला।

मुझे याद आ रहा है, एक लेख, जो उन्होंने कुछ समय पहले अपने फेसबुक पेज पर शेयर किया था, उसके प्रतिक्रिया वाले बॉक्स में मैने अपनी टिप्पणी भी दर्ज कराई। उनका वह संस्मरणात्क आलेख पूर्व केंद्रीय मंत्री दिवंगत अर्जुन सिंह के संदर्भ में था। उऩका आखिरी आलेख जो मैंने अभी दो-तीन दिन पहले पढ़ा, वह था-‘क्या किसानों से घबराती है सरकार?’ उनकी बौद्धिक सक्रियता देखकर हम सबको खुशी होती थी। इसी बीच, पता नहीं कैसे उन्हें ब्रेन-हैमरेज हुआ और उससे उन्हें बचाया नहीं जा सका। अफसोस, ललित भाई चले गये, 'निकट-भविष्य में होने वाली' हमारी मुलाकात के बगैर!

सलाम और सादर श्रद्धांजलि, ललित भाई। 

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