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…मुझे क्या बुरा था मरना, अगर एक बार होता

सुना है साहिब ने माफ़ी मांगी है, लेकिन क्या आप नहीं जानते थे कि 130 करोड़ की आबादी के इस देश में अचानक लॉकडाउन से क्या हालात पैदा होंगे। कैसी अफ़रातफ़री पैदा होगी। एक जननेता इस तरह ऐलान करता है? ऐसी रणनीति बनाता है?
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ख़ुदा हमको ऐसी ख़ुदाई न दे

कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे

अपने नेताओं को सुनकर, कई अभिनेताओं को सुनकर, अपने मिडिल क्लास को देखकर बशीर बद्र का यही शेर याद आता है।

यही शेर याद आता है जब हमारे प्रधानसेवक एक रात 8 बजे नेशनल टेलीविज़न पर आकर कहते हैं-

मित्रों, आज रात 12 बजे से नोट बंद

मित्रों, आज रात 12 बजे से देश बंद

क्या वाहियात तरीका है। क्या आप नहीं जानते कि 130 करोड़ की आबादी के इस देश में अचानक लॉकडाउन से क्या हालात पैदा होंगे। कैसी अफ़रातफ़री पैदा होगी। एक जननेता इस तरह ऐलान करता है? ऐसी रणनीति बनाता है?

क्या कहा?- “हेल्थ इमरजेंसी थी...सबको कोरोना से बचाना था...”

लो अब बचा लो सबको कोरोना से! देखो, आंखें खोलकर देखो नेशनल हाइवे पर पैदल ही गांव-घर की तरफ़ चल पड़े मजबूर बेबस लोगों को।

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देखिए तस्वीर। असल भारत की असल तस्वीर। सबसे आगे एक छोटी सी लड़की है अपने से भी छोटे बच्चे को गोद में उठाए हुए, उसके पीछे उससे ज़रा बड़ी दूसरी लड़की है अपने वजन से ज़्यादा सामान सर पर और हाथों में उठाए हुए..एक पुरुष है एक बच्ची का हाथ पकड़े हुए...उनके पीछे और पुरुष और महिलाएं हैं सर पर बोझा उठाए हुए...

एक दूसरी तस्वीर है- एक व्यक्ति एक बीमार महिला को कांधे पर उठाए चला जा रहा है।

एक और तस्वीर में एक आदमी ने सर पर बोरा उठा रखा है जो उसका कुल जमा गृहस्थी का सामान है। औरत की गोद में बच्चा है। एक छोटी बच्ची पिता की उंगली पकड़े है।

एक और तस्वीर दिल्ली आनंद विहार की है

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देखिए मुंह से मुंह सटाए इन लोगों को आनंदविहार बस अड्डे पर। दिल्ली-यूपी बॉर्डर पर, हरियाणा बॉर्डर पर।

देखिए मुंबई से भागते मज़दूरों को

देखिए सूरत-अहमदाबाद से भागते मजबूरों को

क्या आपने ये सब नहीं देखा?

चलिए आपने नहीं देखा, नहीं पढ़ा गंभीर राजनीतिशास्त्र, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र (हालांकि आप इंटायर पॉलिटिकल साइंस में एमए हैं!)। अगर आपने नहीं देखी ग़रीबी, भुखमरी (हालांकि आपका दावा है कि आप बचपन में चाय बेचा करते थे)। मान लिया आपने जो पढ़ने और भोगने का दावा किया वो सब झूठ था, लेकिन कुछ फ़िल्में तो ज़रूर देखी होंगी। अपने प्रिय सलमान ख़ान, जिन्होंने आपके साथ पतंग उड़ाई है की ‘दबंग’ फिल्म। उसका वो मशहूर डॉयलाग तो याद होगा, जिसमें, गरीब कुम्हार की बेटी बनी सोनाक्षी सिन्हा पुलिस वाले बने आपके दबंग सलमान खान के छिछोरेपन पर कहती है-

“थप्पड़ से डर नहीं लगता साहब, प्यार से लगता है।”

इसे आज के संदर्भ में कहें- “कोरोना से डर नहीं लगता साहब, भूख से लगता है।”

लेकिन हमें, हमारे नेता किसी को भी ये सब समझ में नहीं आता। विज्ञान व्रत के शब्दों में “बस अपना ही ग़म देखा है/ तुमने कितना कम देखा है।”

सुना है मोदी जी ने माफ़ी मांग ली है। ‘मन की बात में’। लेकिन माफ़ी से क्या होता है साहेब। अगर आप वाकई कुछ जानते तो ऐसे अमानवीय ऐलान ऐसे नाटकीय अंदाज़ में न करते। क्या ये सब चरणबद्ध तरीके से नहीं किया जा सकता था। दिक्कत यही है कि आप बस अपने मन की बात कहते हैं, जन की बात सुनते नहीं।

इतनी सी बात तो हर सामान्य जन और एक राजनीतिक कार्यकर्ता तो ज़रूर ही जानता है कि नोटबंदी या लॉकडाउन ऐसे किसी भी कदम का सबसे गरीब मेहनतकश जनता पर क्या प्रभाव पड़ेगा।

अगर आप ये हक़ीक़त नहीं जानते तो जाननी चाहिए थी। आपको सरकार में रहने का हक़ ही तभी है जब आप देश को और अपने हर कदम के संभावित परिणाम को जानते-समझते हों। एक आम आदमी भी कोई काम करने से पहले हिसाब-किताब लगाता है कि ऐसा करने से क्या-क्या अच्छा या बुरा हो सकता है। क्या दिक्कतें आ सकती हैं। और ये मुश्किल जो आज सामने आई है तो ये कोई अकस्मात या अकल्पनीय नहीं थी, ये इबारत तो सामने दीवार पर साफ़ लिखी थी।

वहां कौन है तेरा?

बड़ी उलझन है, ये लोग जो तमाम मुश्किल उठाकर गांव-घर जा रहे हैं इनका वहां भी कैसे गुज़ारा होगा? वहां भी इनके पास कौन सी ज़मीन जायदाद है। होती तो मज़दूरी करने इतनी दूर परदेस न आते। और आते तो इतने मजबूर न होते कि 2-4 दिन भी बिना कामकाज़ के रुक न पाते और महामारी के डर के बावजूद इस तरह पैदल ही घर की तरफ़ दौड़ पड़ते।

वैसे ये भी विडंबना ही है कि कई कई साल महानगरों में बिताने और मेहनत मज़दूरी करने के बाद भी इन लोगों की हालत ऐसी न बन सकी की काम न होने पर दो-चार दिन की रोटी का भी इंतज़ाम हो सके। इस सबको देखते हुए हमें अपनी सारी नीतियों पर पुनर्विचार करना होगा कि हम गरीब को कितना सबल बना सके।

इस सबके बीच बिहार और उत्तराखंड से मिल रही ये ख़बरें और डराती और दुख दे रही हैं कि जिन गांव घर की तरफ़ ये मासूम लोग सारे ख़तरे उठाकर बेतहाशा भागे जा रहे हैं वहां भी इनका कोई स्वागत नहीं है। कोरोना की वजह से लोग इतना डरे हुए हैं कि किसी भी बाहर से आने वाले दूरी बना रहे हैं और पुलिस प्रशासन को ख़बर दे रहे हैं और पुलिस प्रशासन उन्हें घर से अलग कर 14 दिन के लिए क्वारनटाइन कर रहा है।

काश!

काश! ये जो हज़ारों-लाखों लोग जान का जोखिम उठाकर गांव-घर की ओर भागे जा रहे हैं, ऐसे ही डटकर एक बार प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के आवास की तरफ़ कूच कर देते तो सारी व्यवस्थाएं जल्दी ठीक हो जातीं। लेकिन अफसोस ये सब असंगठित मज़दूर हैं, लेकिन यही समय था राजनीतिक दलों को ज़िम्मेदारी लेने का। और इनके साथ उतरकर दिल्ली, मुंबई, सूरत जो जहां है वहीं उसकी व्यवस्था कराने का।

अपने नेताओं से कहिए ट्वीट मत कीजिए, केवल बयान मत दीजिए, सड़क पर उतरिए। कोरोना सिर्फ़ आप को ही नहीं चिपटेगा, ये जो आज डॉक्टर काम कर रहे हैं, सफाईकर्मी सफाई कर रहे हैं, दुकानदार सामान बेच रहे हैं और पत्रकार रिपोर्टिंग कर रहे हैं, ये भी जोखिम उठा रहे हैं। और अब तो जोखिम उठाना ही होगा, क्योंकि यही समय है विकास के पूरे पूंजीवादी मॉडल पर पुनर्विचार करने का और उसे प्रकृति और जनता के अनुकूल बनाने का।

और जिन्हें अब भी ये समझ में नहीं आ रहा कि ये इतने लोग मौत का डर छोड़कर क्यों एक साथ सड़क पर उतर आए हैं। उनसे तो ग़ालिब के शब्दों में यही कहा जा सकता है कि

मुझे क्या बुरा था मरनाअगर एक बार होता ...

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