एमपी चुनाव: ‘’ज़मीन हमारी मां है.. इसे छीनेंगे तो नोटा ही दबाएंगे’’

जब चुनाव की तारीखों का ऐलान नहीं हुआ था, उससे पहले हुआ सीधी कांड तो आपको याद ही होगा। भाजपा के एक सवर्ण नेता ने एक शख्स पर पेशाब कर दिया था। बाद में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने डैमेज कंट्रोल के लिए उसे अपने घर बुलाकर पैर धोए थे, उसे शॉल भेंट की थी, बाद में उसके साथ खाना भी खाया था। लेकिन सवाल ये है कि अगर ये घटना चुनाव से ठीक पहले नहीं हुई होती तो क्या उस पीड़ित शख्स की इतनी आवाभगत होती। जवाब में दावे के साथ तो ‘नहीं’ कहना ग़लत होगा, मगर गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे बड़े राज्यों में दलितों के साथ निरंतरर हो रहा व्यवहार ‘नहीं’ के जवाब को सार्थक ज़रूर करता है।
इसे समझने के लिए आप मध्यप्रदेश की 47 एसटी और 34 एससी समाज के लिए आरक्षित सीटों के आंकड़ों को देख सकते हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि इन 81 में करीब 18 से ज़्यादा सीटें ऐसी हैं जहां के 5000 से ज़्यादा लोगों ने साल 2018 में किसी भी पार्टी के प्रत्याशी को वोट नहीं दिया था, यहां तक उन लोगों ने निर्दलीय को भी वोट नहीं दिया था।
यानी अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि एससी-एसटी समाज के इतने सारे लोगों का एकसाथ साथ नराज होने का कारण सिर्फ एक दिन में आईं परेशानियां तो नहीं हो सकती। जब ये हर तरफ से हार गए तब इन लोगों ने ऐसे फैसले लिए होंगे।
जिन 18 सीटों की बात हम कर रहे है, उनमें 13 तो एसटी आरक्षित सीटें हैं, बाकी एक एससी आरक्षित सीट है। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, इन आरक्षित सीटों में से भी बैतूल जिले के अनारक्षित निर्वाचन क्षेत्र भैंसदेही में सबसे ज़्यादा नोटा वोट पड़े थे, यहां करीब 3.6 प्रतिशत नोटा वोट यानी 7948 वोट डाले गए थे। वहीं, शाहपुर जो कि एसटी के लिए आरक्षित है यहां 6543 वोट नोटा के लिए डाले गए थे। एसटी के लिए ही आरक्षित जुन्नारदेव में 6245, और एसटी के लिए ही आरक्षित झाबुआ सीट पर 6188 नोटा वोट पड़े थे।
इन नोटा वोटों के पीछे तमाम कारणों में एक को तो आप एक घटना से समझिए... साल 2021 के दिसंबर में बैतूल जिले में एक ग्राम पंचायत में सौहार्द बनाए रखने के लिए ग्रामीणों ने आपसी सहमति से गांव की सरकार का चयन कर लिया, ये ग्राम पंचायत चिचोली विकासखंड की देवपुर कोटमी थी। इसके बाद ग्रामीणों ने कहा था कि जब सबकी राजीखुशी से पदाधिकारियों का चयन हो सकता था तो फिर चुनाव की जरूरत ही क्या है।
यहां तक ठीक था, लेकिन जिस आदिवासी शख्स को सरपंच चुना गया, उसके योग्यता का आधार शिक्षा को माना गया। यानी जिस महिला निर्मला को सरपंच के रूप में चुना गया वो 10वीं कक्षा तक पढ़ी थीं।
कहने का अर्थ ये है कि इनके समाज में या इन विधानसभों में 10वीं की शिक्षा ही सबसे उच्च हैं, तो आप जान सकते हैं कि सरकार की ओर से शिक्षा वाले दावे कितने सच्चे हैं। यहां समझने वाली ये भी है कि ये समाज तो आगे बढ़ना चाहते हैं, शिक्षा को महत्व दे रहा है, इतना ही नहीं महिलाओं को भी आगे बढ़ा रहा है, मगर सरकार की नीतियां वहां तक पहुंच ही नहीं रही हैं।
सरकारी नीतियों की नाकामियां और एससी-एसटी की नाराज़गी को लेकर मध्यप्रदेश के ट्राइबल्स क्षेत्रों में काम करने वाले प्रोफेसर जितेंद्र मीणा से हमने बात की, उन्होंने बताया कि एससी-एसटी समाज और ट्राइबल्स के नाराज़ होने की कई वजह हैं। 1996 में पेशा कानून आया था, जिसमें ग्राम सभाओं को अधिकार दिए जाने और उनकी ज़मीन पर उनका मालिकाना हक का दिए जाने का मामला था। लेकिन ये कानून लागू नहीं किया गया। सरकारें माइनिंग के प्रोजेक्ट्स लगाती रहीं, डैम लगाए गए, आदिवासियों से उनकी ज़मीनें ली गईं, लेकिन न तो उन्हें कहीं और ज़मीन दी गई, न मुआवज़ा दिया गया और न ही उन्हें रोज़गार दिया गया। यहां तक ज़मीनें छीने जाने का एक कागज़ तक उन्हें नहीं दिया गया।
जितेंद्र मीणा बताते हैं कि पार्लियामेंट में सरकार की ओर से ये बयान दिया गया था कि 23 लाख परिवार को पट्टे दिए गए हैं। जबकि सरकार ने ये नहीं बताया था कि देश में आदिवासियों की संख्या करीब 23 करोड़ है। प्रो. मीणा बताते हैं कि मध्यप्रदेश में हर पांचवा व्यक्ति ट्राइबल है, इसके बावजूद इन पर अत्याचार बहुत तेज़ी से बढ़े हैं। मीणा ने सीधी पेशाब कांड का भी ज़िक्र किया। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री ने पैर धोकर डैमेज कंट्रोल तो करने की कोशिश की, मगर आज उस शख्स का हाल क्या है उन्हें मालूम है? उस पीड़ित शख्स को मेडिकल काउंसिलिंग तक नहीं दी गई है। जबकि आरोपी को जेल से रिहा कर उसका घर फिर से बनवा दिया गया है। यही सब कारण है कि वो अब ख़ुद अपना प्रतिनिधित्व देना चाहते हैं, और किसी भी पार्टी या सरकार पर विश्वास करना नहीं चाहते।
प्रो. मीणा के बाद हमने आदिवासी क्षेत्रों में विकास के लिए काम कर रहे जयस के राष्ट्रीय अध्यक्ष लोकेश मजूमदार से बात की। उनका सीधे तौर पर यही कहना है कि नोटा दबाने का सबसे बड़ा कारण यही है कि हम अब ख़ुद के समाज से अपने कैंडिडेट देता चाहते हैं, आदिवासी मुख्यमंत्री देना चाहते हैं। लोकेश ने बताया कि हमने साल 2018 में कांग्रेस का साथ दिया था, हमें लगा था कि हमें हमारी ज़मीनों का हक मिलेगा, हमारा विस्थापन रुकेगा, मगर ऐसा नहीं हुआ। उन्होंने बताया कि ज़मीन हमारी मां है, उसे हमसे छीना जा रहा है। उन्होंने बताया कि एससी-एसटी के लिए करीब 1 लाख 50 हज़ार बैकलॉग के पद खाली पड़े हैं, भरे नहीं जा रहे हैं, प्रमोशन रुका हुआ है। यही कारण है कि एससी-एसटी और आदिवासी समाज ने फैसला किया है कि वो न किसी का साथ देंगे, न नोटा दबाएंगे बल्कि अपनी पार्टी जयस के ज़रिए अपने समाज के लोगों को आगे बढ़ाएंगे।
आपको बता दें कि जयस ने 18 उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं।
सही मायने में देखा जाए तो नोटा का इस्तेमाल करना सरकारी तंत्र का डर भी कह सकते हैं, क्योंकि सरकारों ने इन्हें अधिकार दिए ही नहीं है सामने से खड़े होकर लड़ने के लिए। यानी नोटा के ज़रिए विरोध करने का अपना ही एक तरीका है। सरकार को यह समझना पड़ेगा कि लाखों आदिवासी उनकी व्यवस्था और नीतियों के खिलाफ खड़े हैं। जिसके कारण वोट नहीं दे रहे, इनकी मानसिकता दूसरे किस्म की है, वे खामोश रहकर भी अपना विरोध प्रकट करते हैं, लेकिन उनकी आवाज़ सालों से अनसुनी की जाती रही है।
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