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मध्यप्रदेश: चुनाव जीतीं महिलाएं और शपथ लेने पहुंचे पुरुष, क्या यही है महिला सशक्तिकरण?
सरपंच पति और प्रधान पति का नाम तो अब आम है, लेकिन इस बार तो शपथ तक महिलाओं के नाम पर उनके घर के मर्दों ने ले ली है। ये महज़ एक घटना या वाक्या नहीं है, ये महिलाओं के अस्तित्व का सवाल है, लोकतंत्र का अपमान है।
सोनिया यादव
05 Aug 2022
mp

क्या आपको मशहूर वेब सीरिज़ ‘पंचायत’ याद है? इस सीरीज़ में गांव की आधिकारिक प्रधान मंजू देवी चुनाव तो लड़ती हैं लेकिन असल में केवल उनके नाम से चुनाव लड़ा जाता है, बाकी सब कुछ उनके पति बृजभूषण दुबे देखते हैं। मंजू देवी घर के भीतर चूल्हा-चौका संभालती हैं, प्रधानी के किसी भी काम से उन्हें कोई मतलब नहीं होता। ठीक यही हालत ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के लिए पंचायत में आरक्षित सीटों पर होती है।

बता दें कि मध्यप्रदेश सरकार ने नारी सशक्तिकरण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए पंचायत चुनाव महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया था। जिसका परिणाम ये रहा है कि इस बार कई जिलों में सरपंच और पंच के पदों पर महिलाएं चुनकर आई, लेकिन महिलाओं के चुनाव जीतने के बाद उनके नामांकन के दौरान वे नदारद रहीं और उनके परिजन नामांकन जमा कराते नजर आए। इतना ही नहीं पद और गोपनीयता की शपथ भी महिलाओं की जगह पुरुषों ने ही ले ली।

देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद हुए 75 साल हो गए, लेकिन महिलाएं आज भी पितृसत्ता से आज़ाद नहीं हुईं। पुरुष प्रधान समाज ने उन्हें सशक्तिकरण के नाम पर कुछ हक़ तो दिए लेकिन अपने लिए फैसले लेने का अधिकार आजतक उन्हें नहीं मिल पाया। हो सकता है कुछ महिलाएं इसमें अपवाद हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्र की अधिकतर महिलाओं की यही स्थिति है। राजनीति और समाज में उनकी भागीदारी उतनी ही है, जितनी उनके घर के पुरुष करवाना चाहते हैं। हम अक्सर सरपंच पति और प्रधान पति का नाम सुनते रहते हैं, लेकिन इस बार तो शपथ तक महिलाओं के नाम पर उनके घर के मर्दों ने ले ली है। ये महज़ एक घटना या वाक्या नहीं है, ये महिलाओं के अस्तित्व का सवाल है।

क्या है पूरा मामला?

प्राप्त जानकारी के मुताबिक मध्यप्रदेश के पंचायतों में इस बार आधे पदों पर महिलाएं चुनकर आई हैं। लेकिन ये महिला सशक्तिकरण केवल नाम भर के लिए है। पंचायत के नामांकन जमा करने से लेकर शपथ लेने तक उनके परिजन ही सक्रिय रहे। प्रदेश के सागर से लेकर रीवा तक यही नज़ारा सामने आया। हालांकि सबसे हैरान करने वाली बात शपथ ग्रहण समारोह से सामने आई जहां पुरुषों ने शपथ ले ली और पंचायत सचिवों ने बिना आपत्ति के उन्हें शपथ दिला भी दी। ये चुनकर आई महिलाओं के अपमान के साथ ही लोकतंत्र का अपमान भी है।

Mockery of the Panchayat Raj system in MP, after Sagar, now in Damoh husband of newly elected woman sarpanch took the oath of office @ndtv @ndtvindia pic.twitter.com/VvC4Z2bm3f

— Anurag Dwary (@Anurag_Dwary) August 5, 2022

मीडिया में आई खबरों के अनुसार मूड़रा जरुआखेड़ा पंचायत में 20 में से 10 पद पर महिला पंच निर्वाचित हुई हैं। नई ग्राम सरकार के प्रतिनिधियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई गई तो इसमें सभी 10 महिला पंच के परिजन ही शामिल हुए। महिला पंच घरों से नहीं निकलीं। पंचायत सचिव राजाराम चढ़ार, सहायक सचिव जयकुमार सोनी ने इन्हें शपथ लेने से रोकना तो दूर, कैमरे के सामने शपथ भी दिला दी। नवनिर्वाचित उपसरपंच राम सिंह ठाकुर ने सभी पंच पति/पिता/देवरों को गुलाल लगाकर और माला पहनाकर स्वागत किया। मामले पर जब पंचायत सचिवों से इस बारे में सवाल किया गया, तो वह गोलमोल जवाब देते नजर आए।

इसी तरह का मामला सागर जिले के जैसीनगर विकासखंड मुख्यालय की ग्राम पंचायत जैसीनगर से भी सामने आया है। यहां गुरुवार को नवनिर्वाचित सरपंच, उप सरपंच और पंच का शपथ ग्रहण समारोह ग्राम पंचायत कार्यालय में आयोजित किया गया था। जैसीनगर ग्राम पंचायत में पंच, सरपंच मिलाकर कुल 21 सदस्य निर्वाचित हुए हैं जिनमें से 10 महिलाएं पंच निर्वाचित हुई हैंं। शपथ ग्रहण में 10 में से 3 महिलाएं उपस्थित रही। यहां 1 महिला के देवर ने शपथ ली, 1 महिला के पिता ने शपथ ली और 2 महिला पंच के पतियों ने शपथ ली। बाकी प्रतिनिधि अनुपस्थित रहे। यहां पंचायत सचिव आसाराम साहू ने देवर, पिता और पतियों को शपथ दिलाई।

महिला सशक्तिकरण वाकई! सागर के जैसीनगर में नवनिर्वाचित सरपंच, उप सरपंच और पंच का शपथ ग्रहण था, शपथ हुई भी लेकिन किसी के देवर, किसी के पिता या किसी के पति ने शपथ ली @ndtv @ndtvindia @manishndtv @GargiRawat @alok_pandey @sanket pic.twitter.com/3bznsd2Kgr

— Anurag Dwary (@Anurag_Dwary) August 4, 2022

दमोह जिले से भी ऐसा ही वीडियो सामने आया है। दमोह के हटा जनपद पंचायत के अंतर्गत आने वाली ग्राम पंचायत गैसाबाद की निर्वाचित महिला सरपंच ललिता अहिरवार के पति शपथ लेते दिखे, जिसके बाद लोग सरपंच पति का स्वागत करते नजर आए। ललिता सरपंच पद पर निर्वाचित हुई हैं, लेकिन यहां पर ग्राम पंचायत सचिव धुन सिंह राजपूत ने महिला सरपंच के पति विनोद अहिरवार को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिला दी।

पितृसत्ता की बेड़िया महिलाओं को घरों से बाहर ही नहीं निकलने देती

वैसे मध्यप्रदेश का ये मामला अजूबा नहीं है। कमोबेश हर गांव में महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर महिलाएं खड़ी तो होती हैं लेकिन चुनाव वे नहीं, उनके पति लड़ते हैं। वही चुनाव प्रचार करते हैं। वही हाथ जोड़कर वोट मांगते हैं और नतीजों के रोज भी वही सबसे ज्यादा फड़फड़ाते हैं। दरअसल पितृसत्ता की बेड़िया महिलाओं को घरों से बाहर ही नहीं निकलने देती। ऐसे में मर्दों को लगता है कि आखिर रसोई में सिल-बट्टे की तरह जमी हुई पत्नी या बेटी को गांव की औरतों के अलावा भला जानता भी कौन होगा। जो वोट मिला, पति-पिता-भाई की मूंछों के दम पर तो मिला। वैसे भी औरतों के पास चूल्हे-चौके के बाद समय ही कहां बचता है, जो वे गांव के मुद्दे जानेंगी। और जान भी लें तो फटफटी पर बैठकर रात-बेरात यहां-वहां भागने का काम क्या औरतें कर सकती हैं!

कुछ ऐसी ही सोच को बदलने के लिए साल 1992 में पंचायती राज व्यवस्था के जरिए महिलाओं को सीधे-सीधे राजनीति से जोड़ते हुए 73वां संविधान संशोधन एक्ट लागू हुआ, जो महिलाओं को पंचायत चुनावों में 33% तक आरक्षण देता था। बाद में देश के 20 राज्यों ने इसे बढ़ाते हुए 50% कर डाला। यानी पंचायतों में आधा हिस्सा महिला दावेदारों का होगा। हालांकि राज्य इसे बढ़ाकर 100% भी कर दें तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। महिलाएं चुनाव लड़ती तो दिखेंगी लेकिन जीत के बाद नजारा बदल जाएगा।

ग्राम प्रधान के लिए बने दफ्तर में ग्राम प्रधान का पति विराजे होगा। वही सभी फैसले भी लेगा, फैसले लेगा और सब कुछ पक्का भी वही करेगा। सिर्फ दस्तखत उसकी पत्नी के होंगे, जो बिना पढ़े कागजों पर अपना लिखकर वापस रसोई में चली जाएगी। वैसे इस मामले में खुद पद जीत चुकी औरतें भी मानती हैं कि औरतों को राजनीति की समझ नहीं और न ही गांव की जरूरतों का अंदाजा है। ऐसे में पति अगर उनकी जिम्मेदारी बांट रहे हैं तो इससे बढ़िया क्या होगा। साल 2005 की शुरुआत में ऐसे ही पतियों के लिए एक टर्म निकला- ‘सरपंच पति’ या 'प्रधान पति'। ये वो पति होते हैं, जो खुद को पत्नी के पद का असल मालिक मानते हैं।

गौरतलब है कि भारतीय संविधान के निर्माता बाबा साहेब आंबेडकर मानते थे कि गांव जातीय हिंसा के अड्डे हैं और कहते थे कि गांव क्या हैं? वे स्थानीयता का कूप हैं। अज्ञान, संकीर्णता और सांप्रदायिकता की गुफा हैं। मुझे खुशी है कि संविधान के मसौदे में गांव को नहीं, बल्कि व्यक्ति को इकाई माना गया है। जब हम इस वाक्य को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि कुछ हद तक हालात सुधरने के बावजूद मुख्यधारा पॉलिटिक्स में अब तक दलित-आदिवासी-बहुजन, वंचित समुदाय के लोग अपनी जगह नहीं बना पाए हैं या कहें कि उन्हें यह जगह बनाने नहीं दी गई है जो कि बाबा साहब के अनुमान को ठीक-ठाक प्रासंगिकता देती है।

महिलाओं को संवैधानिक अधिकारों की जानकारी कम

अक्सर देखा जाता है कि आरक्षित सीट होने के नाते महिलाएं केवल एक निर्जीव वस्तु की तरह प्रतिनिधि के रूप में नामांकित कर दी जाती हैं जबकि वास्तविक अधिकार पुरुष का होता है। महिलाएं जब जनरल रिजर्व सीट से लड़कर जीतती हैं तब उनके घर में पुरुष सारा काम देखते हैं तब वहां महिला का सीट एक प्रॉक्सी भर हो जाती है। जब चुनाव को दलित, आदिवासी महिला जीतती हैं, तब वे दोहरी राजनीति का शिकार होती है, पहला उसकी बजाय उसके घर के पुरुष सारा काम देखते हैं दूसरा वे पुरुष सवर्ण पुरुषों के दबाव में काम करते हैं।

आंकड़ों की मानें तो यूनिसेफ (UNICEF) की एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तरप्रदेश की 10 में से 7 महिला प्रधान अपने संवैधानिक अधिकारों के बारे में नहीं जानती हैं। केवल 2 महिलाएं यह जानती हैं कि प्रधान के रूप से उनकी क्या भूमिकाएं और जिम्मेदारियां हैं। इस प्रकार अगर देखा जाए तो संविधान द्वारा दिए गए 33 प्रतिशत आरक्षण में महज़ 3 प्रतिशत महिलाएं असलियत में प्रतिनिधित्व करती हैं। दरअसल, हकीकत यह है कि महिलाओं को मिले इस आरक्षण के बाद भी गांवों के सामाजिक परिवेश में महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने की कोई भी कोशिश नहीं की गई, इसका परिणाम यह हुआ कि चुनकर आई हुईं यह महिलाएं सिर्फ कागजों पर प्रधान बनकर रह गईं।

बहरहाल, समस्या यह है कि तमाम योजनाओं की तरह इस योजना को लाने और धरातल पर उतारने से पहले कोई भी ठोस ज़मीन तैयार नहीं की गई। सामाजिक परिवेश अभी भी पितृसत्ता के प्रभाव में है और इस परिवेश में पलने वाला पुरुष ‘इगोइस्ट’ है। यदि एक महिला प्रधान जैसे किसी ऊंचे पद पर बैठकर पुरुषों के लिए भी निर्णय लेगी तो पुरुषों का अहम् लहूलुहान हो जाएगा और इसलिए समाज में प्रधान पति अथवा प्रधान ससुर जैसी प्रथा हमारी व्यवस्था का हिस्सा बनी हुई हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाएं पढ़ी-लिखी नहीं हैं तथा उनके पास आर्थिक स्वायत्तता भी नहीं हैं, जिसके कारण वे अपने अधिकारों के बारे में जानती नहीं हैं , न ही उसकी मांग रखती हैं, असल में भावनात्मक आवरण में उलझकर वे समाज में निहित शोषण को सामान्य मानती हैं। लेकिन अब जरूरत है महिलाओं को खुद के लिए खड़े होने की। आपने अधिकार के लिए आवाज़ उठाने की और अपनी शक्तियों को पहचानने की।

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Shivraj Singh Chouhan

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