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सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय बेंचों की ज़रूरत पर एक नज़रिया

देश का सबसे प्रमुख और शीर्ष न्यायिक प्राधिकरण होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय का दायित्व और कर्तव्य दोनों है कि वह अपने लोगों के लिए न्याय सुनिश्चित करे। 
सुप्रीम कोर्ट की क्षेत्रीय बेंचों की ज़रूरत पर एक नज़रिया

हम सब जानते हैं कि महामारी के कारण सुप्रीम कोर्ट सभी मामलों की वर्चुअल सुनवाई कर रहा है, जिसके चलते देश भर के वकीलों को दिल्ली की यात्रा किए बिना शीर्ष अदालत के सामने पेश होना  संभव बना दिया है, शैविका अग्रवाल लिखती हैं कि अब वह समय आ गया है कि देश के लॉं कमीशन की रिपोर्टों के माध्यम से की गई सिफारिशों पर ध्यान दिया जाए और देश भर में सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय बेंचों की स्थापना की जाए ताकि इस शीर्ष संस्था को नागरिकों के लिए अधिक सुलभ बनाया जा सके।

कोविड-19 महामारी के कारण भारत में अदालतों के कामकाज में अभूतपूर्व बदलाव आया है। जिसे केवल एक दूर की कल्पना के रूप में सोचा जा सकता था, जो कल्पना अब महामारी की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण वास्तविकता बन गई है, क्योंकि इस दौरान अदालतों ने तकनीक को अपनाया और वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से काम किया।

काम करने के इस नए तरीके के माध्यम से उन वकीलों/अधिवक्ताओं को कॉन्फ्रेंस लिंक भेजे जाते हैं जिनके केस उस विशेष दिन के लिए अदालत में सूचीबद्ध हैं। सुनवाई के लिए हर अदालत ने अपना नया लिंक बनाया है। दुनिया के किसी भी हिस्से से वकील लिंक के माध्यम से अदालती कार्यवाही में शामिल हो सकते हैं और अपने केस पर बहस कर सकते हैं। इसने दक्षिणी भारत में बैठे किसी भी वकील को दिल्ली आए बिना या आवास की व्यवस्था किए बिना, दिल्ली में स्थित सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपना केस रखने के लिए सक्षम बनाया है। 

सुप्रीम कोर्ट का इतिहास

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के दौरान, सुप्रीम कोर्ट हमारे देश में मद्रास, कलकत्ता और बॉम्बे में काम करते थे। फिर, ये अदालतें भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम, 1861 के अधिनियमन के माध्यम से उच्च न्यायालयों में बदल गए थी। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने भारत के संघीय न्यायालय की शुरुआत की थी, जो भारत में सर्वोच्च न्यायालय बन गया, और उच्च न्यायालय के निर्णयों के खिलाफ अपील का एक संस्थान बन गया था। भारत का यह संघीय न्यायालय 28 जनवरी, 1950 को भारत का सर्वोच्च न्यायालय बना। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 130 के आधार पर, सर्वोच्च न्यायालय को नई दिल्ली में रखा गया।

वर्तमान में, भारतीय न्यायिक प्रणाली में एक सर्वोच्च न्यायालय और 25 उच्च न्यायालय हैं। सुप्रीम कोर्ट की शुरुआत एक मुख्य न्यायाधीश और 7 छोटे न्यायाधीशों के साथ हुई थी। पहले सभी 8 जज एक साथ बैठकर अपने सामने पेश मामलों की सुनवाई करते थे। किसी एक मामले की सुनवाई के दौरान सभी न्यायाधीशों के एक साथ बैठने की यह अवधारणा संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय से ली गई थी। लेकिन भारत में जैसे-जैसे सुप्रीम कोर्ट का काम बढ़ता गया और हर साल बकाया मामले जमा होने लगे, तो जजों की संख्या बढ़ाना और सुप्रीम कोर्ट में जजों की बेंच का गठन करना उचित समझा गया।

सुप्रीम कोर्ट (न्यायाधीशों की संख्या) अधिनियम, 1956 में संशोधन के माध्यम से, संसद ने न्यायाधीशों की संख्या 1956 में 8 से बढ़ाकर 11 की, 1960 में 14 की, 1978 में 18 की, 1986 में 26 की, 2008 में 31 और अंत में 2019 में 34 कर दी गई थी। यह उच्चतम न्यायालय के दो-न्यायाधीशों या तीन-न्यायाधीशों की पीठों के माध्यम से अधिक से अधिक मामलों की सुनवाई  और उनका निपटान करने के लिए आदर्श रास्ता बन गया (संवैधानिक महत्व के मामलों की सुनवाई कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा की जाती है)

हालाँकि, 2019 में, मामलों के विशाल बैकलॉग को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने सुप्रीम कोर्ट के नियमों, 2013 में संशोधन करते हुए, एकल-न्यायाधीशों को मामले की सुनवाई करने की अनुमति दे दी थी। बावजूद इसके वर्तमान समय में भी, सर्वोच्च न्यायालय मामलों के अपने विशाल बैकलॉग को देखते हुए उनके निपटान के लिए अभी भी संघर्ष कर रहा है; अगस्त की शुरुआत तक, लगभग 70,000 मामले शीर्ष अदालत के समक्ष लंबित पड़े थे। 

दिल्ली में सुप्रीम कोर्ट के होने के कारण कोर्ट देश के विशाल बहुमत को अपने दायरे से बाहर कर देता है

यह एक पुरानी कहावत है कि सिर्फ न्याय होना ही नहीं चाहिए बल्कि होते हुए दिखना भी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय न्याय प्रणाली के चक्र में अंतिम स्थान है। निचली अदालतों या उच्च न्यायालयों में शुरू होने वाले कई मामले, अंतिम सुनवाई के लिए शीर्ष अदालत तक पहुंचते हैं। चूंकि सुप्रीम कोर्ट नई दिल्ली में है, इसलिए न्याय तक पहुंच कई वादियों और वकीलों के लिए समान रूप से भ्रामक हो जाती है।

हर किसी के पास हर सुनवाई के लिए दिल्ली आने के साधन या संसाधन उपलब्ध नहीं हैं। संविधान का अनुच्छेद 21 सभी व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों के रूप में न्याय के अधिकार और न्याय तक पहुंच की परिकल्पना करता है। फिर भी, हमारे अधिकांश साथी नागरिकों के लिए सर्वोच्च न्यायालय की भौतिक दूरी की व्यावहारिक वास्तविकता के सामने एक कल्पना बन कर रह जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय, संवैधानिक न्यायालय के रूप में कार्य करने के अलावा, संविधान के अनुच्छेद 136 के तहत उच्च न्यायालयों और न्यायाधिकरणों की अपीलों से भी बड़ी प्रमुखता से निपटता है। इसमें अनुच्छेद 136, सर्वोच्च न्यायालय के लिए एक विशेष अनुमति क्षेत्राधिकार प्रदान करता है जिसे कानून के प्रश्नों से निपटने वाले मामलों में इस्तेमाल किया जाना चाहिए था। लेकिन आज के समय में सुप्रीम कोर्ट सिर्फ अपीलों के फैसले में ही उलझा हुआ है।

सिविल सोसाइटी ऑर्गनाइज़ेशन दक्ष की एक रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली के करीब रहने वाले  अपीलकर्ताओं द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में अपील की संभावना दूर रहने वाले वाशिंदों की तुलना में काफी अधिक है। 2011 में, चार उच्च न्यायालय जो सर्वोच्च न्यायालय के सबसे निकट थे, उनकी अपील करने की दर सबसे अधिक थी। हालांकि इन राज्यों में देश की कुल आबादी का महज 7.2 फीसदी हिस्सा ही रहता है, लेकिन इन राज्यों की अदालतों की अपीलों में सुप्रीम कोर्ट में कुल अपीलों का 34.1 प्रतिशत हिस्सा था।

इस दौरान राजनीतिक नेताओं, भारत के विधि आयोग, संसदीय स्थायी समितियों ने कई सिफारिशें की हैं 

वर्ष 2019 में, भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू ने सुझाव दिया था कि सुप्रीम कोर्ट को अपने विशाल बैकलॉग से निपटने और उनके जल्दी निपटान को सुनिश्चित करने के लिए क्षेत्रीय बेंच स्थापित करनी चाहिए। राज्यसभा सदस्य और वरिष्ठ अधिवक्ता पी. विल्सन ने पिछले साल दिसंबर में तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद को पत्र लिखकर सरकार से मुंबई, चेन्नई और कलकत्ता में सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठों को संविधान के अनुच्छेद 130 में संशोधन के लिए एक विधेयक पेश करने का आग्रह किया था।  

प्रसाद ने पत्र का जवाब देते हुए कहा कि दिल्ली के बाहर अलग-अलग सुप्रीम कोर्ट की बेंच की स्थापना के विचार को परामर्श करने के बाद न तो सर्वोच्च न्यायालय के भीतर किसी ने माना और न ही भारत के अटॉर्नी जनरल ने इसे स्वीकार किया है। उन्होंने 2016 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष दायर एक रिट याचिका का भी संदर्भ दिया, जिसमें इसी तरह के संरचनात्मक सुधारों का अनुरोध किया गया था, जिसे बाद में एक बड़ी संवैधानिक पीठ के पास भेज दिया गया था और वह तब से मामले लंबित पड़ा है।

विल्सन ने हाल ही में समाप्त हुए संसदीय सत्र में पिछले महीने इसी संबंध में एक निजी सदस्य विधेयक भी पेश किया था।

1984 में वापस, भारत के विधि आयोग की 95 वीं रिपोर्ट ने सिफारिश की थी कि सर्वोच्च न्यायालय को को दो प्रभागों में विभाजित किया जा सकता है, अर्थात्: संवैधानिक और कानूनी। इसके बाद, 1988 में, अपनी 125 वीं रिपोर्ट में, आयोग ने अपनी 95 वीं रिपोर्ट में की गई अपनी सिफारिशों को दोहराया, और तर्क दिया कि सुप्रीम कोर्ट को डिवीजनों में विभाजित करने से न्याय अधिक व्यापक रूप से सुलभ हो जाएगा, जिससे वादियों के खर्चों में काफी कमी आएगी।

इसके अलावा, 2009 में, अपनी 229 वीं रिपोर्ट में, आयोग ने क्रमशः दिल्ली, चेन्नई, कोलकाता और मुंबई में स्थित उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम क्षेत्रों में विभाजित चार अपील बेंच स्थापित करने की सिफारिश की थी। रिपोर्ट में तर्क दिया गया कि संवैधानिक और अन्य संबद्ध मुद्दों से संबंधित मामलों पर दिल्ली पीठ द्वारा सुनवाई की जा सकती है, और क्षेत्रीय बेंचों में अपीलीय काम किया जा सकता है, जहां से अपील आती है।

इस रिपोर्ट की रोशनी में, कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसद की स्थायी समिति ने 16 मार्च, 2021 को 'विधि और न्याय मंत्रालय की अनुदान मांगों (2021-22)' पर अपनी 107वीं रिपोर्ट पेश की और इसका समर्थन किया था जिसे विधि आयोग की 229वीं रिपोर्ट में सुझाया गया था कि सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठ बने। समिति ने अपनी रिपोर्ट में न्याय तक पहुंच पर जोर दिया और कहा कि "... दूर-दराज और दूरवर्ती इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए विभिन्न कारणों से न्याय मांगने के लिए राष्ट्रीय राजधानी में आना संभव नहीं है"। इससे पहले भी, संसद की स्थायी समितियों ने 2004, 2005 और 2006 में सिफारिश की थी कि न्यायालय की पीठें देश में कहीं और भी स्थापित की जा सकती हैं।

अब तक, किसी भी सुझाव का कोई फल नहीं निकला है।

संविधान के अनुच्छेद 39ए में प्रावधान है कि "राष्ट्र यह सुनिश्चित करेगा कि कानूनी प्रणाली का संचालन समान अवसर के आधार पर न्याय को बढ़ावा दे, और यह सुनिश्चित करे ताकि किसी भी नागरिक को आर्थिक या अन्य कारणों से या किसी और कमी से न्याय हासिल करने के अवसरों से वंचित न किया जाए।"

देश का सर्वोच्च न्यायिक प्राधिकरण होने के नाते सर्वोच्च न्यायालय का यह दायित्व है कि वह अपने लोगों को न्याय प्रदान कर अपना दायित्व और कर्तव्य निभाए। न्याय न केवल वास्तव में सुने जाने वाले मामलों में वादियों के भविष्य से संबंधित है, बल्कि इसके आसपास की प्रक्रिया से भी संबंधित है।

भारत के मुख्य न्यायाधीश को दिल्ली में होना चाहिए, लेकिन इसके साथ क्षेत्रीय बेंचें भी हो सकती हैं, जो देश के सभी दिशाओं को कवर करती हों, न केवल न्यायालयों तक आसान पहुंच के मामले में ऐसा होना चाहिए बल्कि केसों के उन विशाल भंडारों को भी कम करने के लिए जिनसे न्यायालय परेशान हैं। बार और बेंच में बनी एक राय, न्यायपालिका के विकेंद्रीकरण की वकालत करती है, राय के मुताबिक, सर्वोच्च न्यायालय की क्षेत्रीय बेंचों की स्थापना करके केंद्र से राज्यों को न्यायिक शक्तियों का हस्तांतरण करना चाहिए। यह रोज़गार भी पैदा करेगा, और न्याय देने का प्रभावी और कुशल तरीका भी बनेगा। 

(शैविका अग्रवाल ग्रेटर नोएडा के लॉयड लॉ कॉलेज में एलएलबी अंतिम वर्ष की छात्रा हैं। व्यक्त किए गए विचार व्यक्तिगत हैं।)

यह लेख मूल रूप से द लीफ़लेट में प्रकाशित हो चुका है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Making a case for regional benches of the Supreme Court

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