Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

मलियाना हत्याकांड : पुलिस की ‘मिलीभगत’, ख़ून से लिखा गया अन्याय

चार्जशीट 11 साल बाद 1988 में दायर की गई थी, लेकिन अदालत ने आरोप 20 साल बाद 2008 में तय किए थे।
amar ujala
पिछले 36 वर्षों में 800 से अधिक सुनवाई होने के बाद, मेरठ जिला अदालत ने इस अप्रैल में "सबूतों की कमी" का हवाला देते हुए सभी 40 अभियुक्तों को बरी कर दिया।

मेरठ (उत्तर प्रदेश)/नई दिल्ली: घर के पिछवाड़े में अपने माता-पिता के जले हुए शवों के दृश्य  अभी भी नवाबुद्दीन (55) को परेशान करते हैं। इनके माता-पिता 23 मई, 1987 को उत्तर प्रदेश के मेरठ शहर के बाहर, मलियाना गांव और आसपास के इलाकों में हुए कथित तौर पर सांप्रदायिक दंगों के दौरान मारे गए 73 मुसलमानों में शामिल थे।

जब नवाबुद्दीन, हिंदू बहुल संजय कॉलोनी में केवल 40-50 मुस्लिम परिवारों वाले पड़ोस के अपने घर से शव लेने गए, तो वे उन्हें वहां नहीं मिले। उनके द्वारा की गई पुलिस शिकायत को कभी भी प्राथमिकी में नहीं बदला गया और न ही कभी उनका बयान दर्ज किया गया।

न्यूज़क्लिक ने दंगा पीड़ितों से मिलने के लिए मलियाना गाँव का दौरा किया, जिन्होंने 36 वर्ष पहले के आतंक और दर्द के बारे में बताया।

दिल दहला देने वाला आतंक 

नवाबुद्दीन ने आरोप लगाया कि, मेरठ में 19-23 मई 1987 तक से कर्फ्यू लगा हुआ था, तनाव बढ़ रहा था। मलियाना नरसंहार हाशिमपुरा नरसंहार के एक दिन बाद हुआ था। 22 मई को, किशनपुरा (मलियाना से लगभग एक किलोमीटर) में मुस्लिम परिवारों पर यूपी पुलिस और प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) द्वारा समर्थित सशस्त्र दंगाइयों ने हमला कर दिया था।“

उन्होंने न्यूज़क्लिक को खून खराबे को याद करते हुए बताया कि, हमले में “कम से कम तीन लोग मारे गए थे। वहां कोई मुस्लिम परिवार नहीं रहता है। पास के चंद्रलोक में सभी चार मुस्लिम घरों को आग लगा दी गई थी और उसी दिन एक परिवार के 13 सदस्यों में से 12 मारे गए थे।" ।

नवाबुद्दीन, जो अपने शुरुआती 20 के दशक में थे, ने मलियाना में निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों पर पीएसी की शूटिंग को याद किया।

आतंक फैलाने के लिए 'शीर्ष' अफसरों के एक कथित आदेश के बाद सेना और पीएसी ने हाशिमपुरा में घर-घर की तलाशी ली और सैकड़ों मुस्लिम पुरुषों को हिरासत में लेने के एक दिन बाद, उनमें से 50 को पीएसी ट्रक में ऊपरी गंगा नहर की तरफ ले गई, उन्हे लाइन में लगाकर गोली मार दी गई और उनके शवों को नहर में फेंक दिया गया था।

अब मलियाना की बारी थी। मेरठ के मुसलमान इलाके में छिपे हुए हैं के 'बहाने' रिज़र्व्ड पुलिस बल गाँव में घुस गया। 

“पुलिस और पीएसी ने मलियाना के सभी पांच प्रवेश वाले रास्तों को अवरुद्ध कर दिया था। 23 मई को सुबह करीब 9 बजे संजय कॉलोनी की एक शराब की दुकान में या तो लूट ली गई  या फिर शराब बांट दी गई। सुबह करीब 11 बजे पीएसी की एक कंपनी सर्च ऑपरेशन के नाम पर जबरन घरों में घुस गई। नवाबुद्दीन ने आरोप लगाया कि सशस्त्र दंगाइयों ने उनका कीमती सामान लूट लिया और घरों में आग लगा दी।

 उन्होंने कहा कि, "खुद को बचाने का कोई विकल्प नहीं होने के कारण, स्थानीय लोगों ने "हमलावरों पर पथराव शुरू कर दिया।" 

नवाबुद्दीन, जो उस वक़्त अपने शुरुआती 20 के दशक में थे, ने आगे आरोप लगाया कि, पीएसी ने गोली दागते वक़्त "निहत्थे पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को निशान बनाया और पथराव का अजवाब दिया।" 

शाम करीब 5-6 बजे, निवासी अपने "हाथ ऊपर" उठाते हुए इस्लामपुर चौक पर इकट्ठा हुए और उन्हें पीएसी के "आतंक" से बचाने के लिए, सेना और केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की तैनाती की मांग की।

नवाबुद्दीन ने आरोप लगाया कि, चौंकाने वाली बात यह है कि जब निवासी पुलिस और जिला प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों के साथ बात कर रहे थे, तो कुछ मीटर की दूरी पर एक दंपति और उनके चार किशोर बच्चों वाले एक घर को दंगाइयों ने "आग लगा दी थी।"

मामले की रिपोर्ट कर रहे मलियाना स्थित पत्रकार शकील अहमद सिद्दीकी ने आरोप लगाया कि अकेले मलियाना में 36 लोग मारे गए थे।

आगे कहा कि, “हमें दंपति के जले हुए अवशेष मिले, प्रत्येक ने अपने दो बच्चों को जकड़ रखा था। शवों की हालत ऐसी थी कि उनको अलग करके दफनाया नहीं जा सकता था।" 

उन्होंने आरोप लगाया कि "अकेले मलियाना में 36 लोग मारे गए" लेकिन केवल 22 शव मिले। रिपोर्ट के मुताबिक, उस दिन मलियाना और उसके आसपास 73 लोगों की मौत हुई थी। संजय कॉलोनी में मारे गए नौ लोगों के शव बरामद नहीं हुए हैं।”

नवाबुद्दीन ने कहा कि, दोपहर करीब दो बजे संजय कॉलोनी में दंगाइयों ने जमकर उत्पात मचाया था। “हम अपनी छत से आतंक देख रहे थे। दोपहर करीब 2:30-3 बजे इस्लामपुर चौराहे के पास एक एंबेसडर कार रुकी और उसमें सवार एक व्यक्ति ने हवा में फायरिंग कर दी। दंगाइयों ने मुसलमानों को मारते हुए और रास्ते भर उनकी संपत्तियों को लूटते हुए अलग-अलग दिशाओं में भागना शुरू कर दिया था।” 

“जब हमने गुंडों को अपने घर की ओर आते देखा, तो हम छत से कूद गए और बगल के एक खाली घर में छिप गए। उन्होंने हमारे घर को लूटा और आग लगा दी। हमारे माता-पिता को जिंदा जला दिया गया। हमने उनके शव गहर के पिछवाड़े में मिले।”

मुस्लिम बहुल इस्लामपुर चौराहे में एक मदरसे को राहत शिविर में तब्दील कर दिया गया था।

मौत के डर से, नवाबुद्दीन और उनके चार भाइयों ने शवों को वहीं छोड़ दिया और मुस्लिम बहुल इस्लामपुर चौराहे के मदरसा-राहत शिविर में शरण ली।

स्थानीय लोगों को तब राहत मिली जब सिख रेजीमेंट ने शवों को इकट्ठा करने और घायलों को अस्पताल पहुंचाने में मदद की। दुर्भाग्य से, नवाबुद्दीन और उनके भाइयों को कभी भी अपने माता-पिता के शव नहीं मिले।

निवासी इतने डरे हुए थे कि वे हफ्तों तक अपने घरों से बाहर नहीं निकले। हिंसा के एक हफ्ते बाद, नवाबुद्दीन ने टीपी नगर पुलिस स्टेशन में शिकायत दर्ज कराई, लेकिन शिकायत को प्राथमिकी में बदलने से "इनकार" कर दिया गया। किसी जांच अधिकारी या अदालत ने उसका बयान दर्ज नहीं किया।

वास्तव में, तब तक कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई थी जब तक कि प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने मलियाना का दौरा नहीं किया। शकील खान (58), मलियाना रेलवे स्टेशन के पास कानपुर से लौटते समय दंगाइयों द्वारा मारे गए अपने पिता के शव को नहीं ढूंढ पाए। 

उन्होंने न्यूज़क्लिक को बताया कि, “मलियाना रेलवे स्टेशन पर भीड़ ने उनके पिता को  बेरहमी से पीटा और वे बेहोश हो गए। जब उसे होश में आए और भागने की कोशिश की, तो उन्हे वहीं पीट-पीट कर मार डाला गया।"। 

36 वर्षों में 800 से अधिक सुनवाई के बाद भी, मेरठ जिला अदालत ने अप्रैल में "सबूतों की कमी" का हवाला देते हुए सभी 40 अभियुक्तों को बरी कर दिया।

झूठी शिकायत

बरी होने वालों में वकील कैलाश भारती (75) भी शामिल हैं। मोहम्मद याकूब (66) सहित अपने अन्य मुस्लिम परिचितों के साथ चाय और सिगरेट पीते हुए बताया कि, जिन्होंने उनके खिलाफ 'शिकायत' की थी, भारती ने कहा कि उन्हें अभी भी कोई जानकारी नहीं है कि उन्हें क्यों गिरफ्तार किया गया था, और क्यों राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मुक़दमा दर्ज़ किया गया, जेल भेजा गया और दंगों में कोई भूमिका नहीं होने के बावजूद वर्षों तक मुकदमा चलाया गया। 

एडवोकेट कैलाश भारती को दंगों में कोई भूमिका न होने के बावजूद सालों तक जेल में रखा गया और उन पर मुकदमा चलाया गया।

उस समय पूर्व पीएम चौधरी चरण सिंह द्वारा बनाई गई दलित मजदूर किसान पार्टी के नेता रहे भारती यह जानकर चौंक गए उन्हे मुख्य आरोपी बनाया गया था, "हालांकि मेरी कोई भूमिका नहीं थी"।

उन्होंने याद करते हुए बताया कि, “24 मई को, दो वर्दीधारी आदमी मेरे घर आए और मुझे उनके साथ शांति समिति की बैठक में चलने के लिए कहा। मुझे नहीं लगा कि यह कोई जाल था। मुझे बागपत रोड स्थित गन्ना सोसाइटी के कार्यालय में एक अस्थायी सेना शिविर में ले जाया गया। मुझे बाद में बताया गया कि अशांति फैलाने की 'भूमिका' के लिए मुझे गिरफ्तार कर लिया गया है। शिविर में एक हजार से अधिक लोगों को हिरासत में लिया गया था। 

उनकी गिरफ्तारी के 10 दिन बाद अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ कोई भी मजबूत मामला पेश करने में विफल रहा, भारती को एक स्थानीय अदालत ने जमानत दे दी। लेकिन रिहाई से पहले ही उन्हें एनएसए के तहत हिरासत में ले लिया गया। आखिरकार, साढ़े तीन महीने के बाद मामला खारिज हुआ। 

उन्होंने आगे कहा कि, “जब मैं मलियाना वापस पहुंचा, तो मुसलमानों ने मेरा फूलमालाओं से स्वागत किया। इस साल 31 मार्च को जब मुझे सभी आरोपों से बरी कर दिया गया, तब भी याकूब मुझे सबसे पहले मेरे आवास पर मिला। हमारा दोनों का एकसाथ फोटो था जो समाचार पत्रों में व्यापक रूप से प्रकाशित हुआ था।"  

यह पूछे जाने पर कि जब वे दंगों में शामिल नहीं थे तो उन्हें क्यों फंसाया गया, भारती ने आरोप लगाया कि यह राजनीतिक प्रतिशोध हो सकता है।

“इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार 1980 में संसद में आरक्षण पर बहस कर रही थी। हम देवली नरसंहार सहित दलितों के उत्पीड़न और जाति आधारित हिंसा का विरोध कर रहे थे। मैंने और दो अन्य लोगों के साथ लोकसभा में प्रवेश किया, और पर्चे फेंके और सरकार के खिलाफ नारे लगाए। शायद उस घटना के कारण मुझे फंसाया गया था।' 

मोहम्मद याकूब को कथित रूप से प्रताड़ित किया गया और पुलिस द्वारा 93 लोगों को अभियुक्त बनाने के लिए मजबूर किया गया।

उन्होंने व्यंग्यात्मक तरीके से जवाब दिया कि, याकूब ने भारती के खिलाफ झूठी शिकायत क्यों की? "मैंने 93 लोगों के खिलाफ शिकायत की जिन्हें मैं नाम से भी नहीं जानता।"

“अपने इलाके के निवासियों के बारे में भूल जाओ। अगर मैं आपसे आपके परिवार के 93 सदस्यों के नाम पूछूं, तो आप जवाब नहीं दे सकते। लेकिन पुलिस रिकॉर्ड के मुताबिक, मैंने 93 लोगों के खिलाफ उनके पिता के नाम और खूनखराबे में उनकी भूमिका के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई है। क्या ऐसा संभव है?" उसने पूछा। 

भारती सहित कुछ निवासियों ने पुष्टि में सिर हिलाया, याकूब ने आरोप लगाया कि, "मुझे पुलिस ने उठा लिया था, बड़ी क्रूरता से प्रताड़ित किया था और कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करने पर मजबूर किया गया था। बाद में, मुझे पता चला कि उनकी 'शिकायत' के आधार पर एफआईआर में 93 हिंदुओं को नामित किया गया था, जिसमें एक भी पीएसी कर्मी का उल्लेख नहीं था। चूंकि यह मेरे नाम से दायर एक झूठी शिकायत थी, इसलिए मैं अदालत में दावों की पुष्टि नहीं कर सका।”

केंद्र और राज्य की गांधी और वीर बहादुर सिंह सरकारों ने आधिकारिक तौर पर मृत घोषित किए गए प्रत्येक पीड़ितों को 20,000 रुपये का मुआवजा दिया था।

प्रक्रियात्मक चूक

पुलिस ने मामले की जांच कैसे की, इस पर विचार करना आश्चर्यजनक होगा।

शुरुआत से ही मामले पर पर्दा डालना शुरू हो गया था। मुख्य प्राथमिकी, जिसके आधार पर आसपास के गांवों के 95 दंगाइयों के खिलाफ मामला (संख्या 1491/98) बनाया गया था, वह 2010 में अचानक गायब हो गया। दंगाइयों को बचाने  और 'लक्षित हत्याओं' में शामिल होने का आरोप के बावजूद प्राथमिकी में पीएसी का नाम नहीं था।

इसके अलावा, पुलिस ने कथित तौर पर शिकायतों के बावजूद प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर दिया था। जब एफआईआर दर्ज की गई तो कोई जांच नहीं की गई। कई शव कथित तौर पर गायब हो गए थे। 34 पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टर जांच और जिरह के लिए अदालत में कभी नहीं आए।

आरोपी का सीआरपीसी की धारा 313 (अभियुक्त के खिलाफ पेश किए गए सबूतों की व्याख्या करने के लिए अदालत की जांच करने की शक्ति) आदि के तहत जांच नहीं की गई थी।

मुकदमे के दौरान लगभग आधे गवाहों और अभियुक्तों की मृत्यु हो गई। आरोपपत्र 11 साल बाद 1988 में दायर किए गए थे, लेकिन अदालत ने 20 साल बाद 2008 में आरोप तय किए। जांच अधिकारियों ने गवाहों और अभियुक्तों की जांच नहीं की। पुलिस ने 61 चश्मदीदों का जिक्र किया था, लेकिन केवल 14 ही अपने बयान दर्ज कराने पहुंचे।

जांचकर्ताओं ने जिन गवाहों को फंसाया उनमें से ज्यादातर पक्षद्रोही हो गए थे। केवल मुख्य गवाह, एक वकील, अपने बयान पर कायम रहा। ज्यादातर मामलों में आरोपियों के खिलाफ कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई है।

हालांकि दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2018 में हाशिमपुरा नरसंहार में पीएसी के 16 सेवानिवृत्त कर्मियों को दोषी ठहराया था, लेकिन मलियाना दंगे में कथित रूप से शामिल लोगों का न तो प्राथमिकी में नाम था और न ही निचली अदालत ने उन पर मुकदमा चलाया था।

मामले की जांच के लिए जस्टिस भूषण लाल श्रीवास्तव आयोग का गठन किया गया था, लेकिन इसने हिंसा के एक साल बाद काम करना शुरू किया था। इसकी रिपोर्ट, जो 1989 में प्रस्तुत की गई थी, अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है। आयोग ने कथित तौर पर पीड़ितों से घटनाओं की नेगेटिव सहित फ़ोटो ले ली थी। 

कोई न्याय नहीं 

निचली अदालत के फैसले से निराश पीड़ितों ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की। जस्टिस मनीष कुमार निगम और सिद्धार्थ वर्मा की खंडपीठ ने राज्य सरकार को केस फाइल उपलब्ध कराने का निर्देश दिया और अगली सुनवाई के लिए 14 अगस्त की तारीख तय की है।

पूर्व शीर्ष पुलिस अधिकारी विभूति नारायण राय और पत्रकार कुर्बान अली द्वारा मामले की अपनी निगरानी में दोबारा सुनवाई के लिए जनहित याचिका दायर की है जिन पर अदालत इन महत्वपूर्ण मामलों पर भी फैसला करेगी।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

Maliana Massacre: Police ‘Collusion’, Injustice Scripted in Blood

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest