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भारत
राजनीति
कई ‘किंतु-परंतु’ से बीजेपी की हार ढंकने की कोशिश, आप की जीत में भी कई ‘लेकिन’
दिल्ली में भाजपा की हार के मूल मुद्दों और कारणों को सामने आने से बचाने का एक संगठित प्रयास हो रहा है। इसी तरह आप की जीत भी बिल्कुल सीधी-सादी ‘काम’ की जीत नहीं है, इसमें में भी कई पेच हैं।  
राकेश सिंह
12 Feb 2020
delhi election

दिल्ली के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार को कई तरह के किंतु-परंतु और लेकिन के माध्यम से ढंकने की कोशिश की जा रही है। भाजपा की हार के मूल मुद्दों और कारणों को सामने आने से बचाने का एक संगठित प्रयास हो रहा है। ऐसा करने के पीछे अपने-अपने निहित स्वार्थ हैं। ये भाजपा के नेतृत्व को किसी और असहज स्थिति में नहीं डालना चाहते हैं और कुछ ऐसी छोटी-छोटी चीजों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे शीर्ष नेतृत्व की बदनीयती छुपी रहे।

आखिर ऐसा क्या कारण है कि लोकसभा चुनाव में 56% मत हासिल करने वाली और पिछले 15 साल से दिल्ली के सभी नगर-निगमों में बहुमत हासिल कर रही भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा में केवल 8 सीटों से संतोष करना पड़ा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में जिस पार्टी (आप) का मत प्रतिशत 18 था, वह अब सीधे 53% से ज़्यादा वोट पाने वाली पार्टी बन गई है। इसके पीछे क्या कारण है? केवल अगस्त 2019 से 200 यूनिट मुफ्त बिजली या फिर 29 अक्टूबर से महिलाओं को बसों में मुफ्त सवारी की सुविधा देना ही इसका कारण है। या फिर ये मतदाताओं की क्षेत्रीय और जातीय सोच के आधार पर वोट देने की फितरत को ढंकने की एक चादर है।

मतदाताओं की इस फितरत को कुछ पार्टियां खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में ढंकने की कोई कोशिश नहीं करती हैं। समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल जैसी पार्टियां खुलकर इस तरह की राजनीति करती हैं। शायद इसके कारण उनकी बदनामी भी ज्यादा है। भारतीय जनता पार्टी भी इस जातीय राजनीति के दलदल में इनसे कम गहरे नहीं धंसी हुई है लेकिन इसे वे राष्ट्रवाद की चादर से ढंकने की कोशिश अवश्य करते हैं। कांग्रेस भी जातीय गणित और धार्मिक गुणा-भाग पर बहुत दिनों तक पूरे देश में राज करती रही। इसे वह स्वतंत्रता संग्राम की अपनी विरासत से हमेशा ढंकने का काम करती रही और कभी भी खुलकर जातीय राजनीति की झंडाबरदार नहीं बनी।

भारतीय जनता पार्टी की हार के मनोज तिवारी के अक्षम नेतृत्व को सबसे अधिक जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। यानी बलि का एक बकरा तैयार है। दूसरी ओर कांग्रेस मजबूत लड़ाई नहीं लड़ सकी और 2019 को लोकसभा चुनाव के 22.5 प्रतिशत वोट शेयर के विपरीत उसका मत प्रतिशत इस बार केवल 4 से थोड़ा ही ऊपर रहा। अगर कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव के समान ही वोट शेयर हासिल लेती तो भारतीय जनता पार्टी इस चुनाव में कुछ सफलता हासिल कर सकती थी। आखिर भारतीय जनता पार्टी क्यों कांग्रेस के सहारे थी? उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाजवादी पार्टी के गठबंधन होने के बावजूद भाजपा ने लोकसभा चुनाव में 63 सीटें जीतने में सफलता हासिल की है। उसकी तुलना में तो दिल्ली में उसके लिए लड़ाई ज्यादा आसान थी। अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी एक साथ चुनाव मिलकर भी लड़ती हैं तो लोकसभा चुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत दोनों के संयुक्त वोट शेयर से काफी आगे था।

दिल्ली का नेतृत्व किसी स्थानीय व्यक्ति के हाथ में नहीं होना, मूल पंजाबी और व्यापारी वर्ग/जाति को आम आदमी के पार्टी के पक्ष में वोट देने के लिए प्रेरित करने वाला कारण बताया जा है। यानी वे मानते हैं कि मूल रूप से पंजाबी (इस दायरे में भारत के बंटवारे से पहले का संपूर्ण पंजाब शामिल है। हरियाणा भी उसका हिस्सा था) व्यक्ति ही दिल्ली का नेता बनने की काबिलियत रखता है। अरविंद केजरीवाल इस कसौटी पर पूरी तरह से फिट बैठते हैं। इसके विपरीत मनोज तिवारी के पक्ष में पूर्वांचल के वोटरों का एकतरफा झुकाव नहीं हुआ। दिल्ली में जिस स्थानीय पंजाबी व्यापारी वर्ग/जाति ने नरेंद्र मोदी को खुलकर वोट दिया था, उसी ने अरविंद केजरीवाल के लिए अपनी पूरी जान लगा दी। इसके कारण ही लोकसभा चुनाव के मुकाबले भारतीय जनता पार्टी का वोट प्रतिशत विधानसभा के चुनाव में कम हुआ।

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने अपनी राजनीतिक शुरुआत जन-लोकपाल के मुद्दे से की थी। 5 साल सत्ता में रहने के बाद भी अरविंद केजरीवाल ने जन-लोकपाल पर कोई कदम नहीं उठाया है। जबकि इसी मुद्दे के सहारे उन्होंने अपना राजनीतिक कैरियर शुरू किया था। भ्रष्टाचार के बारे में वे अब एक शब्द भी नहीं बोलते क्योंकि उनके कई मंत्री भ्रष्टाचार के आरोपों के घेरे में आ चुके हैं। अब नैतिक आधार पर अरविंद केजरीवाल सभी परंपरागत राजनेताओं से किसी मायने में अलग नहीं है। इसके बावजूद उन्होंने दोबारा भारी बहुमत से सत्ता में वापसी की है।

उनकी जीत नरेंद्र मोदी की दोबारा केंद्रीय सत्ता में वापसी की तरह ही है। नरेंद्र मोदी ने अपने पहले कार्यकाल में बिना किसी विशेष उपलब्धि के केवल शौचालय, सिलेंडर बांटने और अंत में पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान में हवाई हमले के कारण ही सत्ता में आ गए थे। पूरे देश में यह हवा बनाई गई कि नरेंद्र मोदी का इस समय कोई विकल्प नहीं है। देश के सामने बाहरी खतरे बहुत ज्यादा हैं, जिनका ठीक से मुकाबला नरेंद्र मोदी जैसा कठोर नेतृत्व ही कर सकता है। लोगों के बीच फैले इस्लामोफोबिया ने नरेंद्र मोदी को सत्ता में पहले से ज्यादा सीटों के साथ वापसी कराई।

अरविंद केजरीवाल ठीक उसी तरह हैं। जिन्होंने कभी भ्रष्टाचार को सबसे बड़ा मुद्दा बताया था और यह वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद वे भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाएंगे। अब यह वादा अब केवल वादा ही रहने वाला है। इसके बजाय उनका जोर अब दिल्ली में लोगों को जरूरी सुविधाएं मुहैया कराने में अपनी सफलता गिनाने की ओर है। तमाम किंतु-परंतु और लेकिन के बाद आप की जीत के असली कारण को फिर एक बार शिक्षा, स्वास्थ्य और विकास की चाशनी में लपेट कर लोगों के गले उतारने की कोशिश की जा रही है। यानी बात कहीं न कहीं बीजेपी के उस प्रतिबद्ध मतदाता में ही छुपी हुई है, जिसने अरविंद केजरीवाल के लिए मतदान किया है। क्योंकि मूल पंजाबी और व्यापारी वर्ग/जाति दिल्ली में जनसंघ के समय से ही संघ की विचारधारा का पोषक रहा है। इस बार तो केजरीवाल ने खुलेआम इस बात को स्वीकार भी किया कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई सदस्यों ने उनके विकास कार्यों की प्रशंसा की है। यही वह मूल बात है जिसे छुपाने के लिए इतना बवंडर रचा जा रहा है। मीडिया आम आदमी पार्टी की जीत को बिजली, पानी और शिक्षा जैसे कामों का परिणाम बता कर अरविंद केजरीवाल को गरीबों का मसीहा और और विकास पुरुष साबित करने के लिए जी जान से लगा हुआ है।

इस समय उत्तर प्रदेश और बिहार  में लोकसभा चुनाव में पिछड़ा वर्ग का मतदाता नरेंद्र मोदी के चेहरे पर वोट दे रहा है। वह जानता है कि लालू, मुलायम, नीतीश या मायावती प्रधानमंत्री नहीं बनने वाले हैं। यदि कांग्रेस जीतेगी तो वहां कौन प्रधानमंत्री होगा, यह सभी को पता है। भारतीय जनता पार्टी जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में चुनाव लड़ती थी, तब भी कभी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर सकी थी। क्योंकि उस समय पिछड़ा और दलित मतदाता कभी भारतीय जनता पार्टी को पूरे झुकाव के साथ वोट नहीं देता था।

कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों के जातीय असर से जरूर भाजपा को कुछ पिछड़ों का वोट मिलता था। मुख्य रूप से इसके लिए तब भाजपा को क्षेत्रीय दलों के गठबंधन पर ही निर्भर रहना पड़ता था। नरेंद्र मोदी के उभार ने भाजपा की क्षेत्रीय दलों पर इस निर्भरता को खत्म कर दिया है। इसी सफलता ने भाजपा को नरेंद्र मोदी के ऊपर बहुत ज्यादा निर्भर भी कर दिया है।

स्थानीय रूप से जनता के बीच पैठ रखने वाले नेताओं को एक-एक करके राजनीतिक रूप से अप्रासंगिक बनाया जा रहा है। उनकी जगह हवा-हवाई और ग्लैमर से राजनीति में आने वाले जनाधार-विहीन लोगों को लोगों को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसके कारण भारतीय जनता पार्टी के जमीनी कार्यकर्ताओं में बहुत आक्रोश है, जो चुनाव परिणाम के बाद साफ निकल कर बाहर आ रहा है।

अपनी सभी सीमितताओं और कमजोरियों के बावजूद आम आदमी पार्टी और उसका नेतृत्व वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में उम्मीद की एक किरण है। यदि इसका अपनी दिशा से भटकाव नहीं हुआ और संसदीय राजनीति की बाध्यताओं के सामने इसने पूरी तरह समर्पण नहीं किया तो बदलते माहौल में आप एक बेहतर राष्ट्रीय विकल्प बनकर उभर सकता है। लोकतांत्रिक व्यवस्था का इतिहास रहा है कि संगठित पूंजी और बिकाऊ बुर्जुआ वर्ग समय-समय पर ऐसे महानायकों को खड़ा करता है। एक समय के बाद जब उनकी चमक उतर जाती है, तो उनको इतिहास के कूड़ेदान में फेंक कर फिर एक नया नायक गढ़ता है। यदि ऐसा फिर हुआ तो अरविंद केजरीवाल की जीत को किसी भी रूप से एक आमूल परिवर्तन का आगाज मानने वाले लोग आगे जाकर फिर निराश होंगे।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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