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ग्राउंड रिपोर्ट: मऊ में टूटी साड़ी उद्योग की कमर और बिनकारी करने वाले फनकारों का हुनर!

मऊ की बुनकर कॉलोनी में नजराना कहती हैं, "पावरलूम पर खड़े-खड़े पैर सूज जाते हैं। नसें सुन्न पड़ जाती हैं। हमें पता है कि ये साड़ियां हमें असमय बूढ़ा कर देंगी और आंखों की रोशनी भी छीन लेंगी। शायद यही हमारा नसीब है। बस हम यही चाहते हैं कि हमारा कारोबार सलामत रहे।”
Mau saree Industry Crisis

मऊ की बुनकर कॉलोनी में नजराना से हमारी मुलाकात हुई। पढ़ने-लिखने की उम्र में वो सुबह से शाम तक साड़ियों की बुनाई करती हैं। पहले इनकी बहन तरन्नुम दिन-रात पावरलूम चलाती थीं। परिवार की गाड़ी खींचने की जद्दोजहद में ये लूम ही इनकी जान के दुश्मन बन गए। बीमारियों ने इन्हें घेर लिया। और एक दिन दुनिया से रुखसत कर गईं। बहन के इंतकाल के बाद परिवार का बोझ नजराना के कंधों पर आ गया। पढ़ाई छूट गई और भविष्य के सपने टूट गए। परिजनों की खुशहाली के लिए नजराना दिन-रात साड़ियों की बुनाई करती हैं। वह कहती हैं, "ये करघे ही हमारी जिंदगी की उम्मीद हैं। बस किसी तरह पेट भरने और जिंदा रहने का जरिया। पावरलूम पर खड़े-खड़े पैर सूज जाते हैं। नसें सुन्न पड़ जाती हैं। हमें पता है कि ये साड़ियां हमें असमय बूढ़ा कर देंगी और आखों की रोशनी भी छीन लेंगी। लेकिन क्या करें। शायद यही हमारा नसीब है। बस हम यही चाहते हैं हमारा कारोबार सलामत रहे। लेकिन चाहने से क्या होता है। बिजली के भारी-भरकम बिल से हमारे जैसे सभी बुनकर बिलबिला गए हैं। मऊ ही नहीं, समूचे पूर्वांचल का साड़ी कारोबार बेजार हो गया है।"

मऊ की बुनकर कालोनी में लू्म पर बुनाई करतीं नजराना

मऊ ज़िले में साठ के दशक में राज्य सरकार ने बुनकरों के रहने और अपना लूम बनाने के लिए एक कॉलोनी बनाई थी जिसे आजकल बुनकर कॉलोनी के ही नाम से जाना जाता है। मोहम्मद मुस्तफा इसी बुनकर कॉलोनी में रहते हैं। वह बताते हैं, "कताई मिल और स्वदेशी कॉटन मिल के चलते मऊ में बहुत से लोगों को रोज़गार मिला था, लेकिन उनके बंद होते ही अनगिनत लोगों के सपने टूट गए। हजारों बुनकर बेरोज़गार हो गए। पॉवरलूम के लिए अवाध बिजली नहीं मिलती। बिजली के आने-जाने का समय तय नहीं होता। अगर रात में भी आती है तो पूरे परिवार को उठकर काम पर लगना पड़ता है।"  

अब टूटती जा रही हैं पावरलूम की सांसें

बुनकर कॉलोनी में घुसते ही हमारी मुलाकात अब्दुल हसन से हुई। जो कई पावरलूम के मालिक थे। खुद बेहतरीन साड़ियां बुनते थे और मजदूरी पर बुनवाते भी थे। मंदी की मार और लॉकडाउन ने 62 साल के अब्दुल हसन को कचौड़ी और पकौड़े बनाने-बेचने पर मजबूर कर दिया है। अब्दुल से बातचीत हुई तो उनका दर्द जुबां पर उतर आया। बड़ी निराशा के साथ बोले, "पहले साड़ियों की बुनाई से हम खुशहाल थे। बेहतर ढंग से परिवार की परवरिश कर लेते थे। बूढ़ी आंखें साथ नहीं देतीं। हुनर रखते हुए भी बारीक काम करने के बजाए पूड़ी-पकौड़े तलने पर मजबूर हैं। साल 2020 में कोरोना ने हमारे हुनर पर अकाल की काली छाया डाल दी। साड़ी ऊद्योग को बर्बाद करके रख दिया। हमारे जैसे तमाम हुनरमंद लोग भुखमरी की कगार पर पहुंच गए हैं। हमारी लाचारी अजीब है। बस एक ही विकल्प है कि हम इस धंधे को छोड़ दें। कमाने के लिए बाहर जाएं या फिर यहां घंटों काम करने के बावजूद दो जून की रोटी के लिए मोहताज रहें। अधिक उम्र और मंदी के दौर में पलायन के बजाए हमें कचौड़ियां बेचना थोड़ा आसान लगा।"

मऊ के बुनकर कालोनी में कचौड़ी बनाते अब्दुल हसन

उत्तर प्रदेश का मऊ ज़िला हथकरघा उद्योग का प्रमुख केंद्र है, जहां मुख्य रूप से बनारसी साड़ियां बुनी जाती हैं। इसके अलावा वाराणसी और आज़मगढ़ के मुबारकपुर में भी बनारसी साड़ियों की बुनाई और उनके विपणन का काम होता है। मऊ का साड़ी उद्योग दुनिया भर में मशहूर है। बुनकरों को आबाद करने के लिए बनारस की तरह मऊ में बुनकर कॉलोनी बनाई गई थी। यहां बुनकरों के ढाई सौ परिवार अपने भविष्य के सपने  बुनते हैं। हर घर में घरेलू मशीनें लगी हैं, जिनमें कारीगर समूचे परिवार के साथ मिलकर साड़ियों की बुनाई करते हैं।

दंगे ने भी दी तगड़ी चोट

साल 2005 में बाहुबली मुख्तार अंसारी के एक गुर्गों के हमले के बाद मऊ में दंगा भड़का था। उस दंगे की आंच ने साड़ी उद्योग को तबाह कर दिया था। सात से अधिक लोग मारे गए और 36 से ज्यादा गंभीर रूप से घायल हुए। साम्प्रदायिकता के अखाड़े में दंगल कराने वालों ने भी मऊ के साड़ी उद्योग को कम चोट नहीं दी है। मऊ के अदरी निवासी बुनकर नेता अफजाल कहते हैं, "बुनकरों को गुमराह करने वाले भी बहुत लोग हैं। दंगे के बाद बुनकरों के घाव कभी सूखे ही नहीं। नतीजा, बुनकरी करने वाले हजारों फनकार सब्जियां बेच रहे हैं, ऑटो चला रहे हैं और ईंट-गारे का काम कर रहे हैं।" 

उत्तर प्रदेश बुनकर वाहिनी के प्रदेश अध्यक्ष इकबाल अहमद ने हमें मऊ में उन सभी बाजारों को दिखाया जहां साड़ियों की बड़ी-छोटी तमाम दुकानें थीं। अब ये दुकानें या तो बंद हैं या फिर उनके घरों में साड़ियों की बजाय वहां दूसरी चीज़ों की दुकानें खुल गई हैं। इकबाल एक और बात बताते हैं, "ऐसा नहीं है कि मऊ में बुनाई के धंधे में मुस्लिम ही लगे हैं। पंडितजी, ठाकुर साहब, मल्लाहों, चौहानों और दूसरी जातियों के यहां भी साड़ियां बुनी जाती हैं। मऊ दंगे के बाद बहुतों ने अपना पेशा बदल लिया। नोटबंदी के बाद जीएसटी की मार पड़ी तो इस पेशे में सिर्फ वही लोग बच पाए जिनकी पीढ़ियां सालों से बिनकारी करती हैं। मुस्लिम बुनकरों के पास बुनकरी के अलावा रोजी-रोटी का का कोई दूसरा जरिया भी तो नहीं है।" 

बिनकारी छोड़ खोल ली है दुकान

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इकबाल अहमद यह भी बताते हैं, "ये हमारी बदनसीबी है कि साड़ियां मऊ जिले में शहर के अलावा तमाम गांवों में बुनी जाती हैं। आजमगढ़ का मुबारकपुर इलाका भी हमारे जैसे बुनकरों के चलते आबाद है। कमोबेश साड़ियां तो पूर्वांचल से सभी जिलों में बनती हैं, लेकिन सिर्फ़ बिकने की जगह के कारण इन्हें बनारसी कहा जाता है। इन्हें बेचने के लिए मऊ में न कोई तय स्थान है और न जरूरी सुविधाएं। मूलभूत सुविधाओं की कमी और ऊबड़-खाबड़ रास्तों के चलते बाहर के खरीददार मऊ नहीं आते। हमारी ज्यादातर साड़ियाँ गद्दीदारों के जरिए बनारस, दिल्ली, कोलकाता, हैदराबाद जैसे शहरों में बिकने के लिए चली जाती हैं। बड़े शहरों से होते हुए हमारा हुनर विदेशों में भी पहुंच जाता है।"

तंगहाली नहीं छोड़ रही पीछा

आबाद अहमद बताते हैं, "दंगे के बाद किसी तरह साड़ी उद्योग पटरी पर लौटा। कारोबार को जैसे ही पंख लगे, तभी नोटबंदी आ गई। फिर जीएसटी आया तो बुनकरों का कमर ही तोड़ दिया। महामारी के दौर में मऊ में साड़ी की बिक्री के लिए बना स्थानीय बाज़ार पूरी तरह तबाह हो गया। बच्चे पढ़ नहीं पा रहे हैं। हमारा नाम आबाद जरूर हैं, मगर हम न जाने कब के बर्बाद हो चुके हैं। लॉकडाउन के बाद से बिजली का बिल जमा नहीं कर पाए हैं। लगता है कि चुनाव बाद सरकार हमसे एक साथ बिल वसूलेगी। तब हमें अपनी मशीन बेचनी पड़ेगी और मऊ छोड़कर कहीं बाहर जाना पड़ेगा।" 

बुनकर कॉलोनी के 50 साल के जमील अहमद अपने सात भाइयों और उनके बच्चों के साथ दो छोटी-छोटी कोठरियों में रहते हैं। 42 लोगों का यह परिवार शिफ्ट में बुनकरी करता है और शिफ्टवार सोता है। कुछ लोग सो रहे होते हैं तो कुछ सड़क पर टहलते हैं और अपने सोने की शिफ्ट का इंतजार करते हैं। अली अख्तर के चार बच्चे हैं। एक अंधेरे से कमरे में एक गड्ढेनुमा जगह के भीतर लकड़ी की पटरी लगाकर बैठे थे और अपने बेटे के साथ एक ख़ूबसूरत साड़ी बुनने में तल्लीन थे। ऊपर एक बल्ब लगा था, लेकिन जल नहीं रहा था, क्योंकि बिजली नहीं आ रही थी। पूछने पर बताया, "लूम पर दो साड़ी बुनने में पूरा दिन गुजर जाता है। साधारण साड़ी की बुनाई की मजदूरी पहले सौ रुपये थी। आर्थिक मंदी में कमाई घटकर 60 रुपये पर पहुंच गई। इनके पास लूम भी है। लगातार चौबीस घंटे तक परिजनों के लूम चलाने पर तैयार होती हैं चार साड़ियां। तब कमाई होती है फकत चार सौ रुपये। महज़ कुछ हज़ार रुपये में तैयार ये साड़ियां वाराणसी के बाज़ार में पहुंचकर ऊंचे दामों पर बेची जाती हैं, जबकि इन्हें बनाने वाले कारीगर पीढ़ियों से तंगहाली में जी रहे हैं।"

अख्तर कहते हैं, "भारी-भरकम बिजली के बिल ने हम सभी को बड़ा कर्जदार बना दिया है। बिल की अदायगी नहीं कर पा रहे हैं। सरकार अपने पैसे मांगेगी तो हम दे नहीं पाएंगे। तब एक ही रास्ता बचेगा और वह होगा जेल का। पहले इस पेशे से हमें कोई ज्यादा दिक़्क़त नहीं थी। परिवार के सभी सदस्य मिलकर ठीक-ठाक कमाई कर लेते थे। नोटबंदी के बाद से ही हमारे बुरे दिन आ गए और अब हम अपने पावरलूम पर सिर्फ़ मज़दूर बनकर रह गए हैं।" 

फीका पड़ा साड़ियों का रंग

पहले दंगा, फिर नोटबंदी-जीएसटी के बाद मऊ के इस कारोबार पर कोरोनासुर ने ऐसा वार किया कि साड़ियों का गाढ़ा रंग फीका पड़ गया। लॉकडाउन के बाद से मऊ की साड़ियों की धाक कमजोर पड़ गई। बुनकर नेता ऐनुल मुजफ्फर कहते हैं, "पावरलूम पर दिन-रात खटते हैं। तब किसी तरह जल पाता है चूल्हा। लॉकडाउन में कुछ दिनों तक उधारी से काम चला, लेकिन अब वो भी नसीब नहीं। पेट खाली है। समझ में नहीं आ रहा है कि कैसे चलेगी जिंदगी?"

ऐनुल बताते हैं, "एक वो भी वक्त था जब मऊ के फनकारों के हाथों से बनी साड़ियां सिर्फ फैशन नहीं, परंपरा थीं। ऐसी परंपरा, जिसकी रस्म दुनिया भर में निभाई जाती रही है। शादी कहीं भी हो, दांपत्य का रिश्ता मऊ की रेशमी साड़ियों से ही गाढ़ा होता था। जिन घरों में ये रिश्ते बुने जाते हैं उसकी रवायत रफ्ता-रफ्ता धीमी पड़ती जा रही है।"

मऊ के रौजा, मलिक शाहीपुरा, अस्सी मदारी, नवापुरा, इस्लामपुरा, चांदपुरा, मिरजहादीपुरा, पहाड़पुरा, औरंगाबाद, मंसीपुरा, रघुनाथपुरा, श्रीबाग समेत समूचे जिले में पावरलूम की तादाद करीब 45 हजार हैं। साड़ियों की बिनकारी से हजारों लोगों की जिंदगी से जुड़ी है। इसी जिले का एक कस्बा है मुहम्मदाबाद गोहना। यहां हर घर में साड़ियां बुनी जाती हैं। चाइना से आयातित सिंथेटिक धागे, नायलान, डूपियान आदि के दामों में भारी बढ़ोतरी और यहां तैयार कोटा, मूंगा, डोरिया आदि साड़ियों की कीमत में गिरावट से बुनकर बेहाल हैं। खैराबाद, अतरारी, भीरा आदि गांवों में करीब 12 हजार से ज्यादा पावरलूम हैं। अकेले खैराबाद गांव में सात हजार के आसपास लूम चलते हैं। इस धंधे से करीब 20-25 हजार लोगों की रोजी-रोटी चलती है। अतरारी, वलीदपुर व भीरा के हजारों बुनकर इस धंधे के सहारे अपनी आजीविका चलाते हैं। 

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रेशमी धागा और अन्य रॉ-मैटेरियल के दाम में भारी बढ़ोतरी ने मऊ के साड़ी कारोबार को झकझोर कर रख दिया है। इस बीच चाइना सिल्क के दाम में भारी उछाल आया है। नायलान का धागा अचानक महंगा हो गया है। साड़ियां तैयार हो रही हैं उनके दाम गिर गए हैं। कोटा, मूंगा, टिसू, सिंथेटिक धागे से बनी जो साड़ियां बनारस और कोलकाता में 200 से 500 रुपये में आसानी से बिक जाया करती थीं, अब इन्हें कोई पूछने वाला ही नहीं है। बुनकर मुनव्वर अहमद कहते हैं, "मऊ में उन फनकारों की तादाद बहुत अधिक है जो रेशमी साड़ियों पर रिश्तों का रंग उकेरा करते थे। बुनकरों की जिंदगी का रंग तो बदरंग हुआ ही है, अब तो दो जून की रोटी का जुगाड़ कर पाना कठिन हो गया है। कोरोनाकाल में जिन बुनकरों ने साड़ियों का ताना-बाना लपेट दिया था, वो तो खुल ही नहीं पाए।"

बुनकरों के हितों के लिए काम करने वाले मुमताज अहमद कहते हैं, " मऊ और आजमगढ़ में ऐसे बुनकरों की तादाद बहुत ज्यादा है जो बिनकारी बंद कर दूसरे धंधे करने लगे हैं। कोई चाय का ठेला लगा रहा, तो कोई पान की दुकान। हाथ से बुनी जाने बाली साड़ियों का रंग तो कुछ इस कदर बेरंग हो गया कि बुनकरों के सुनहरे ख्वाब दफन हो गए। बहुतों के पुश्तैनी धंधे बंद हैं। तंगहाली सबका पीछा कर रही है।" एखलाक अहमद बताते हैं, "हमारी कई पीढ़ियां गुजर गईं। बिनकारी का काम कभी बंद नहीं हुआ, लेकिन हमारे कारोबार की सांसें अब उखड़ने लगी हैं। हालात इतने बिगड़ गए हैं कि देश-विदेश से सीधे मिलने वाले आर्डर बंद हो गए।" 

पूर्वांचल में करीब 4 लाख 30 हजार लोग साड़ियों की बिनकारी करते हैं। इनके परिजनों को जोड़ दिया जाए तो इस धंधे से करीब सात लाख लोगों का सरोकार जुडता है। इनमें मऊ के बुनकरों की तादाद दो लाख के आसपास है। यहां साड़ी उद्योग का टर्नओवर करीब पांच सौ करोड़ सालाना है। मऊ के बुनकर कॉलोनी के नियाज बताते हैं, "बुनकरों की भलाई के लिए सरकारें योजनाएं तो बहुत बनाती हैं, लेकिन उन पर अमल नहीं हो पाता। पैसा आता है, मगर बुनकरों तक नहीं पहुंचता।" 

बिनकारी छोड़कर सब्जियां बेच रहे मोहम्मद शाहिद कहते हैं, "करघे धड़ाधड़ बंद हो रहे हैं तो हमारी सब्जियां भी कौन खरीदेगा। शायद कुछ लोग नमक-रोटी से गुजारा कर रहे होंगे। अब तो सब के सब बदहाल और रोटी के लिए मोहताज हैं।" 

बुनकरी छोड़ सब्जियां बेच रहे मो.शाहिद

पलायन को मजबूर हैं बुनकर

मुमताज अहमद के घर पर पावरलूम की दो मशीनें लगी हैं और घर की औरतें इन मशीनों पर काम करती हैं। मुमताज कहते हैं, "लॉकडाउन की वजह से सब कुछ बंद हो गया है। कपड़ा तैयार करने के लिए न कच्चा माल मिल रहा है और न ही तैयार माल बिक पा रहा है।" अपनी बेहाली को लेकर मुमताज सरकार के रवैये पर भी नाराज हैं। वह कहते हैं, "देश के सामाजिक-आर्थिक विकास में हथकरघा उद्योग के महत्व के बारे में जागरुकता फैलाने के मकसद से केंद्र सरकार ने जुलाई, 2015 में 7 अगस्त को राष्ट्रीय हथकरघा दिवस घोषित किया था। इस ऐलान के बावजूद बावजूद बुनकरों की माली हालत में कोई सुधार नहीं हुआ।"

मऊ जिले की एक बुनकर बस्ती कासिमपुर के नौशाद अपने घर पर ही दो पावरलूम चलाते हैं। उनकी मां, पत्नी और दो बहनें साड़ी बनाने का काम करती हैं। एक लूम ख़राब है। पहले घर के लोग जुटकर दो-तीन साड़ियां बुन लेते थे और गुजारा हो जाता था। बुनाई का रेट घट जाने की वजह से धंधा घाटे में चल रहा है। गुजारा करना कठिन हो गया है। कासिमपुर में ज़्यादातर लोगों के घरों में पावरलूम हैं और यही सभी का इकलौता कारोबार है। 

बुनकर नईम कहते हैं, "देश भर में छाई आर्थिक सुस्ती का असर इस उद्योग पर और इससे जुड़े लोगों पर भी पड़ रहा है। मोहल्ले के दूसरे लोग बातचीत के दौरान कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में यहां से सैकड़ों लोग रोज़गार की तलाश में दूसरे देशों में या फिर भारत के ही विभिन्न हिस्सों में चले गए।" नईम यह भी कहते हैं, "12 से 14 घंटे की जी-तोड़ मेहनत के बाद यदि पेट भरने तक के लाले पड़ें तो भला कौन इस धंधे में रुका रहेगा। बहुत से लोगों की मजबूरी है कि वो बाहर नहीं जा सकते, तो यहीं पड़े हैं।" 

महंगी बिजली ने तोड़ दिए सपने

मऊ में तमाम ऐसे बुनकर हैं जो कर्ज लेकर और गहने आदि गिरवी रखकर छोटी-मोटी दुकान चला रहे हैं, ताकि परिवार का गुजारा हो सके। पूर्वांचल में बुनकरों की सबसे बड़ी मांग बिजली बिल में सब्सिडी को लेकर है, जिसमें इस साल जनवरी से बदलाव कर दिए गए हैं। दरअसल पिछले साल दिसंबर योगी आदित्यनाथ कैबिनेट ने तय किया था कि अब पावरलूम बुनकरों को फ्लैट रेट की बजाय हर महीने मीटर रीडिंग के हिसाब से बिल आएगा और एक निश्चित संख्या तक बिल में छूट दी जाएगी। मऊ के बुनकर अख्तर कहते हैं, "पहले एक लूम चलाने का बिल 70 रुपये देते थे। सरकार ने फ्लैट रेट कम नहीं किया तो बिजली का बिल 2500 से 3000 तक आ जाएगा। ऐसे में बुनकरों का पेट कैसे भर पाएगा?"

साल 2006 में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार ने यूपी के बुनकरों को सब्सिडी के साथ बिजली का फ्लैट रेट 0.5 हॉर्स पावर के लिए 65 रुपये कर दिया था। वहीं एक हॉर्स पावर लूम के लिए बुनकर से 130 रुपये वसूले जाते थे। 10 साल तक बुनकरों को सब्सिडी का लाभ मिला लेकिन साल 2015-16 में यह योजना हथकरघा और वस्त्रोद्योग विभाग के हवाले कर दी गई। 

ये है मऊ की बुनकर कालोनी

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक बुनकरों को बिजली की सब्सिडी देने के लिए विभाग को सालाना 150 करोड़ रुपये का बजट आवंटित है, लेकिन बिजली रेट बढ़ने से सब्सिडी की धनराशि बढ़ते-बढ़ते सालाना 950 करोड़ रुपये पहुंच गई। इसके चलते 31 मार्च 2018 तक हथकरघा विभाग पर ऊर्जा विभाग का 3682 करोड़ रुपये से ज्यादा का बकाया हो गया। 

योगी सरकार ने पावरलूम बुनकरों को फ्लैट रेट पर विद्युत आपूर्ति के चलते सब्सिडी के बढ़ते बोझ से निजात पाने और गलत इस्तेमाल रोकने के लिए योजना में बदलाव करने का फैसला किया। इसके तहत अब पावरलूम बुनकरों को फ्लैट रेट की बजाय हर महीने बिजली यूनिट की एक निश्चित संख्या तक बिल में छूट दी जाएगी। छोटे पावरलूम (0.5 हॉर्स पावर तक) को 120 यूनिट और बड़े पावरलूम (एक हॉर्स पावर तक) को 240 यूनिट हर महीने की सीमा तक 3.5 रुपये प्रति यूनिट की दर से बिजली रेट में छूट देने का प्रावधान किया। इसके बाद पूर्वांचल के बुनकर हड़ताल पर चले गए। बाद में वाराणसी के बुनकरों का एक प्रतिनिधित्व सीएम से मिला। योगी ने बुनकरों को मदद की आश तो दिलाई, लेकिन बात फिर वहीं अटक गई।

बुनकर नेता अतीक अंसारी कहते हैं, "पावरलूम में स्किल्ड लेबर हैं। इससे काफी विदेशी मुद्रा का अर्जन होता है। साथ ही पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता है। टेक्सटाइल कारोबार से सरकार को हर साल 12 हजार करोड़ रुपये जीएसटी मिलती है। फिर भी सरकार कपड़ा कारोबार पर ध्यान नहीं दे रही है। बुनकर चाहते हैं कि पहले की तरह ही यूपी में बिजली का फिक्स्ड रेट तय कर दिया जाए।"

उबरने में लग जाएंगे कई साल 

उत्तर प्रदेश बुनकर फ़ोरम के अध्यक्ष अरशद जमाल कहते हैं कि मऊ के साथ पूर्वांचल में साड़ी कारोबार की मंदी पिछले तीन साल में बढ़ी है। अरशद के मुताबिक़, "नोटबंदी के बाद मंदी का दौर आया और वह अब तक नहीं कम हो सका। रही सही क़सर जीएसटी और बाद में कोरोना महामारी ने पूरी कर दी।" वहीं मऊ के वरिष्ठ पत्रकार रंजीत राय इसके लिए सरकारी नीतियों को भी ज़िम्मेदार बताते हैं। वह कहते हैं, "यूपी में पहले 21 कताई मिलें थीं जिनसे बुनकरों को आसानी से सस्ता धागा मिल जाता था। आज सारी मिलें बंद हैं। मजबूरन, बुनकरों को महंगे दामों पर धागा और नायलॉन लेना पड़ता है। कुछ साल पहले इलाहाबाद की एक कताई मिल को दोबारा शुरू करने की कोशिश हुई, मगर सारी कवायद भी फेल हो गई। जो भी सरकारी नीतियां बनती हैं वो ज़्यादातर बुनकरों के बजाय व्यापारियों के फ़ायदे की होती हैं।"

रंजीत यह भी कहते हैं, "बुनकरों के कल्याण के लिए सरकार ने कई योजनाएं शुरू की हैं। मसलन, स्वास्थ्य बीमा योजना, पॉवरलूम सब्सिडी योजना, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, हथकरघा संवर्धन सहायता योजना। सरकारी जटिलता और अधिकारियों की कार्यशैली बुनकरों का मनोबल को तोड़ देती है। ज्यादातर बुनकरों के बच्चों के नसीब में न तो पढ़ाई है और न ही चिकित्सा सुविधाएं। सरकार सीधे बुनकरों की मदद दे तभी स्थिति सुधर पाएगी।"

मऊ में सिल्क, कॉटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनछुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी साड़ियां बनाई जाती हैं जिनका श्रीलंका, स्वीटजरलैंड, कनाडा, मारीशस, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, नेपाल समेत दूसरे देशों में निर्यात भी होता है। मऊ के बुनकर बस्ती के मोहम्मद तलहा कहते हैं, "हम महामारी को ही दोष क्यों दें। लगातार दुश्वारियां झेल रहे मऊ के साड़ी उद्योग को अब तक ब्रांड एम्बेस्डर भी नसीब नहीं हो सका। मऊ में सिल्क से बने कपड़ों के लोग आज भी मुरीद हैं, पर खामी बस यह है कि दुनिया के बदलते मिजाज को वह अपनी ओर खींच नहीं पा रहा है। इसका बड़ा कारण यह है सरकार ने हमारी साड़ियों को बचाने के लिए न तो प्रचार किया, न कोई ब्रांड एम्बेस्डर ढूंढा। जरूरत है बनारस के साड़ी उद्योग में जान फूंकने की। दुनिया भर में बनारसी बुनकारी का प्रचार करने की, अन्यथा पूर्वांचल के इस कारोबार को मिटने से कोई नहीं रोक सकता।" इसी बस्ती के आफताब कहते हैं, "दो दशक पहले मऊ के बुनकरों के हाथों से बने कपड़ों की धूम पूरे पूर्वांचल के साथ ही साथ देश में लंबे समय तक रही, लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा और बढ़ती हुई महंगाई की मार से अब यह कारोबार बंदी की कगार पर खड़ा होता नजर आ रहा है। महंगाई की मार से हथकरघा उद्योग पहले से ही बेहाल है। पावरलूम की खटपट का शोर धीमा पड़ने लगा है। पीढ़ियों से हुनरमंद हाथों से लिबास बुनने वाली यह जमात संसाधनों की कमी और सरकार की बेरुखी से तबाह होती दिख रही हैं।"

पावरलूम चलाते मऊ के मो.तलहा और उनकी पत्नी

बनारसी वस्त्र उद्योग एसोसिएशन के संरक्षक अशोक धवन को लगता है कि पूर्वांचल का साड़ी कारोबार अब बंदी के कगार पर पहुंच गया है। अभी तक जो नुकसान हुआ है उससे उबरने में हमें कई साल तक का समय लग जाएगा। बुनकर तो परेशान हैं ही, व्यापारी भी बहुत परेशान हैं। कई लाख लोग इस कारोबार से जुड़े हैं, सब संकट में हैं। सरकार को इसे बचाने के लिए जल्द से जल्द प्रभावी कदम उठाने होंगे।" 

(लेखक बनारस स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।) 

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