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तुर्किये में एर्दोगन की वापसी के मायने

दुनिया भर की: एर्दोगन की जीत ने देश में घरेलू मोर्चे पर यह भी साबित कर दिया कि न तो महंगाई, न खराब अर्थव्यवस्था और न ही कुछ समय पहले फ़रवरी में आए भीषण भूकंप से हुए विनाश को निपटने में नाकामी आम लोगों के लिए कोई मुद्दा बन पाए।
Recep Tayyip Erdoğan

पहले तुर्की और अब नाम बदलकर तुर्किये के रूप में पहचाने जाने वाले देश में राष्ट्रपति पद के चुनाव में रेचेप तैय्यप एर्दोगन (कुछ जगह इसका उच्चारण अर्दोआन भी किया जाता है) लगातार तीसरी बार चुनाव जीत गए हैं। रविवार को हुए दूसरे दौर के मतदान के बाद एर्दोगन को 52 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। उनके मुकाबले में खड़े कमाल कलचदारलू को 48 फीसदी से थोड़ा कम वोट मिले हैं।

अमेरिका परस्त नाटो संगठन के सदस्य देशों में से एक तुर्किये में पहले दौर का मतदान 14 मई को हुआ था और उसमें राष्ट्रपति पद के लिए खड़े हुए तमाम उम्मीदवारों में से किसी को भी 50 फीसदी से ज्यादा वोट नहीं मिले थे। लिहाजा तमाम उमीदवारों में से सबसे ज्यादा वोट पाने वाले दो प्रत्याशियों के बीच दूसरे दौर का मुकाबला हुआ। हालांकि पहले दौर के मतदान से पहले तमाम विश्लेषकों की नजर में एर्दोगन की स्थिति कमजोर चल रही थी लेकिन मतदान का दिन नजदीक आते-आते मौजूदा राष्ट्रपति ने बाजी पलटी। वह पहले दौर में ही जीत हासिल करने से थोड़ा ही पीछे रह गए थे लेकिन उस समय भी उनके पास कलचदारलू पर करीब पांच फीसदी की बढ़त हासिल थी। उससे यह तय सा माना जा रहा था कि एर्दोगन ही फिर से राष्ट्रपति बनेंगे।

एर्दोगन 2014 में पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए थे। हालांकि उससे पहले वह 2003 में तुर्किये के प्रधानमंत्री बने थे और तीन कार्यकाल तक प्रधानमंत्री भी रहे। इस तरह तुर्किये में सत्ता के संचालन का उनका तीसरा दशक इस ताजा जीत से शुरू हो रहा है। 2014 में वह राष्ट्रपति पद के लिए इसलिए खड़े हुए क्योंकि वह तीन कार्यकाल तक प्रधानमंत्री रहने के बाद फिर से प्रधानमंत्री नहीं बन सकते थे। लेकिन जब वह पहली बार राष्ट्रपति बने थे तो उस समय राष्ट्रपति के पद के पास इतने अधिकार नहीं थे। 2017 में उन्होंने एक जनमत संग्रह के जरिये राष्ट्रपति पद के लिए काफी ताकत जुटा ली थी। यानी जब प्रधामंत्री थे तब भी ताकत हाथ में थी और फिर राष्ट्रपति बने तो नए सिरे से ताकत कब्जा ली।

भले ही तुर्किये नाटो का सदस्य देश है लेकिन एर्दोगन का यह रुख काफी कुछ उनके दोस्त रूसी राष्ट्रपति पुतिन सरीखा है जो अपनी मर्जी से रूस के प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति बनते रहे और सत्ता को हमेशा अपने कब्जे में रखा। लेकिन यह वो दौर था जब एर्दोगन की जस्टिस एंड डेवलपमेंट (एके) पार्टी तुर्किये की संसद में खासा बहुमत रखती थी। यह पार्टी एर्दोगन ने अगस्त 2001 में स्थापित की थी और तब से वह उसके अध्यक्ष बने हुए हैं।

एक देश, इतिहास, भूगोल और संस्कृति के लिहाज से तुर्किये बड़ी अहमियत रखता है। एक समय में यहां के ओटोमन साम्राज्य का विस्तार दक्षिण-पूर्वी यूरोप, पश्चिम एशिया और उत्तर अफ्रीका तक था। पहले विश्व युद्ध के बाद तुर्किये को बांटने की अंग्रेजी हुकूमत की कोशिशों के खिलाफ भारत में भी 1919 से 1924 तक ख़िलाफ़त आंदोलन चला। मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क ने गणतांत्रिक तुर्किये के पहले राष्ट्रपति के तौर पर एक प्रगतिशील व सेकुलर पहचान कायम की। अब यह बात भले ही अजीब लगे लेकिन हकीकत है कि कमाल अतातुर्क के राष्ट्रपति रहते हुए ही नवंबर 1938 में गुजर जाने के बाद से एर्दोगन को ही तुर्किये का सबसे कद्दावर व प्रभावशाली नेता के तौर पर माना जाता है। यह बात अजीब इसलिए लगती है क्योंकि कमाल अतातुर्क ने देश को एक सेकुलर जमीन दी थी जबकि एर्दोगन को उस छवि के इस्लामीकरण का जिम्मेदार माना जाता है, खास तौर पर बाद के दौर में।

भौगोलिक लिहाज से तुर्किये बहुत अहम जगह पर है। जमीनी लिहाज से वह एशिया और यूरोप को जोड़ता है। उसका पूर्वी सिरा पश्चिम एशिया के संकटग्रस्त सीरिया व इराक के इलाकों से जुड़ा और पश्चिमी सिरा यूरोप में ग्रीस व बुल्गारिया से। समुद्री लिहाज से उसके उत्तर में काला सागर (ब्लैक सी) है। काला सागर के दूसरी तरफ यूक्रेन व रूस हैं। तुर्किये का दक्षिण-पश्चिमी हिसा भूमध्य सागर (मैडिटेरैनियन सी) पर है। यही भूमध्य सागर अपने सबसे पूर्वी सिरे पर पुर्तगाल व मोरक्को के बीच से अटलांटिक महासागर में जा मिलता है और इधर तुर्किये के नीचे वह मिस्र की स्वेज नहर के जरिये हिंद महासागर से भी जुड़ता है।

तुर्किये का सबसे प्रसिद्ध इस्तांबुल शहर अपने ठीक बीच से गुजरने वाली नहर से काले सागर को भूमध्य सागर से जोड़ता है। यानी रणनीतिक लिहाज से काले सागर के देशों को हिंद महासागर व अंटलांटिक महासागर से जोड़ने वाला रास्ता तुर्किये नियंत्रित करता है। इस भौगोलिक दृष्टि से रूस-यूक्रेन युद्ध में तुर्किये व एर्दोगन की भूमिका भी कम नहीं रही है।

तुर्किये की पीड़ाएं और भी हैं। वह कहने को एशियाई देश है लेकिन उसकी चाहत हमेशा से यूरोप से जुड़ने की रही है। उधर तुर्किये से आशंकित रहने वाले यूरोप के देश इसका विरोध करते रहे हैं। इसीलिए तमाम कोशिशों के बावजूद और नाटो का हिस्सा होने के बाद भी तुर्किये की यूरोपीय संघ का सदस्य बनने की इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई। इस्तांबुल की आबोहवा और संस्कृति यूरोपीय शैली की है और वह यूरोपीय सैलानियों में बहुत लोकप्रिय है। उसकी यह तकलीफ इस बात से और बढ़ जाती है कि पश्चिम एशिया के ज्यादा नजदीक, लेबनान के बहुत निकट समुद्र में बैठा साइप्रस जैसा देश यूरोपीय संघ का सदस्य है, लेकिन तुर्किये नहीं।

रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध के दौर में नाटो की नीतियों के सिलसिले में भी एर्दोगन काफी मुखर रहे। फिनलैंड व स्वीडन को नाटो की सदस्यता देने के मुद्दे पर भी तुर्किये निरंतर विरोध में रहा। नाटो में सारे फैसले आम सहमति से लिए जाने की परंपरा है। चूंकि कुर्द बागियों को यूरोप के देशों से मिल रहे समर्थन से तुर्किये हमेशा से खफ़ा रहा है, इसलिए वह रूसी हमले के मद्देनजर फिनलैंड व स्वीडन की नाटो की सदस्यता के आवेदन में अड़ंगा लगाता रहा। बहरहाल, तमाम बातचीत व सौदेबाजी के बाद आखिरकार तुर्किये ने इसके लिए रजामंदी दे दी। हालांकि रूस से अपनी नजदीकी और यूक्रेन-रूस युद्ध को लेकर अपना तटस्थ रवैया तुर्किये ने अभी छोड़ा नहीं है।

एर्दोगन की जीत ने देश में घरेलू मोर्चे पर यह भी साबित कर दिया कि न तो महंगाई, न खराब अर्थव्यवस्था और न ही कुछ समय पहले फ़रवरी में आए भीषण भूकंप से हुए विनाश को निपटने में नाकामी आम लोगों के लिए कोई मुद्दा बन पाए। देश की सांस्कृतिक चेतना के इस्लामीकरण की कोशिशें भी माहौल न बना पाईं, न ही महिलाओं की आजादी पर अंकुश लगाने की उनकी दलीलें। प्रधानमंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के आखिरी सालों में ही उनपर निरंकुशता और तानाशाह रवैये के आरोप लगने लगे थे। उनका भी फर्क नहीं पड़ा। आधुनिकीकरण और विकास की बिसात जरूर उन्होंने बिछाए रखी, और सत्ता पर पकड़ कमजोर नहीं होने दी- 2015 में पार्टी के संसद में बहुमत खोने और 2016 में तख्तापलट की बड़ी कोशिश के बावजूद। इन चुनावों में भी यूरोप व भूमध्यसागर से लगे देश के संपन्न इलाकों और दक्षिणी इलाकों में एर्दोगन को जीत नहीं मिली। लेकिन उत्तर व मध्य के अपेक्षाकृत कम संपन्न इलाके उनके खेवनहार साबित हुए। मेयर व संसद के चुनावों में अपेक्षाकृत कम जीत मिलने के बावजूद राष्ट्रपति पद का चुनाव वह निकाल ही ले गए।

एर्दोगन की जीत से यूरोप व अमेरिका बहुत सहज तो नहीं होंगे, लेकिन उनके पास उन्हें साथ लेकर चलने के अलावा अब कोई रास्ता भी न होगा।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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