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किसानों के विशाल आंदोलन के निर्माण में मददगार लोगों से मुलाक़ात

किसानों के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए उनके जूतों की मरम्मत, फटे कपड़ों की सिलाई, पुस्तकालय की स्थापना और आराम करने के लिए जगह तैयार करने जैसे कई कामों को पूरा करने के लिए पंजाब से आए युवा सेवा में लगे हुए हैं।
किसानों के विशाल आंदोलन के निर्माण में मददगार लोगों से मुलाक़ात

दिल्ली के सिंघू बॉर्डर पर एक चेकदार शर्ट और सफेद पगड़ी पहने और हाथ में जूते चमकाने वाला ब्रश लिए पंजाब के रोपड़ से आए अजीत पाल सिंह गुजरने वाले हर किसान से विनम्रता से उनके दागदार जूतों को साफ करने और चमकाने की गुजारिश करते हैं। कभी-कभी जूते फटे होने पर वे उनकी मरम्मत भी करते हैं।

वे अपने परिवार के 17 सदस्यों के साथ दिल्ली की सीमा पर तैनात हैं जो लंगर और अन्य सुविधा प्रदान करने के लिए व्यक्तिगत क्षमता से सेवा कर रहे हैं, सिंह ने बताया कि एक महीने पहले तक वे एक अलग नौकरी में थे और वे खुद की एक इवेंट मेनेजमेंट कंपनी चलाते थे। श्री अनंतपुर साहिब से दिल्ली सीमा तक की अपनी यात्रा को याद करते हुए उन्होने बताया कि हम लगभग 550 किलोमीटर पैदल चले, और राजमार्ग से सटे या आसपास के प्रमुख शहरों और गांवों में कृषि-क़ानूनों के बारे में प्रचार किया जिसमें विशेष ज़ोर इस बात पर था कि किसानों और आम लोगों पर इन क़ानूनों का क्या असर पड़ेगा।"

जब उनसे सवाल किया गया कि उन्होंने किसानों के जूते साफ करने या मरम्मत करने के काम को क्यों चुना, तो सिंह ने जवाब दिया कि, "जब हम यहां आए थे, तो हमने देखा कि काफी लोग अपनी सेवाएं दे रहे थे। फिर नज़र पड़ी तो देखा कि किसान फटे जूतों से जूझ रहे हैं इसलिए, मैं पास के बाजार गया, और जूतों की मरम्मत का सामान खरीद लाया और तभी से सभी को अपनी सेवाओं की पेशकश शुरू कर दी। मैंने यह काम क्यों शुरू किया? मेरे खयाल में ये न्काम इंसानियत पैदा करता है। हम अपने काम में लगे रहते हैं और अपने बारे में आमतौर कोई गुरूर नहीं करते हैं। यह मेरा जवाब है।”

कृषि-कानूनों और किसानों के आंदोलन पर सरकार की प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करते हुए, उन्होंने हंसी में कहा कि "इससे पहले कि मैं आपको जवाब दूं, मैं आपको एक कहावत बताता हूं। एक आदमी एक कपड़ा लेकर एक दर्जी के पास गया और उससे पैंट बनाने के लिए कहता है। पैंट बनाने के बजाय, दर्जी ने जो कुछ बना कर पहले से रखा है वह उसे ग्राहकों को बेचने की कोशिश में उसके लाभों गिनाने लगता है ताकि उसकी बिक्री हो सके। यही तर्क कृषि-कानूनों पर भी लागू होता है। किसी भी किसान ने इन कानूनों की मांग नहीं की थी। फिर भी, सरकार इसके लाभ बताने पर तुली हुई है। एक बार मजाक छोड़ भी दें तो सवाल ये उठता है कि क्या भारत केवल दो व्यक्तियों का है? वे इन क़ानूनों को पेश किए जाने से बहुत पहले से अनाज के भंडारण के लिए गोदामों का निर्माण कर रहे हैं। मुझे लगता है कि उनका षड्यंत्र अब काफी साफ नज़र आ रहा है।”

उन्होने आगे कहा कि “यह सही बात है कि इस सेवा में मेरे पैसे लग रहे हैं। लेकिन अगर भविष्य में आपके बच्चे और नाती-पोते आपसे आंदोलन में शरीक होने के बारे में पुछेंगे हैं तो आप क्या कहेंगे? मेरे दादा-दादी ने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। हम उनकी विरासत को कैसे आगे न बढ़ाएं?”, उन्होंने आंदोलन में भाग लेने की वजह से खोई आजीविका के बारे में सवाल करने पर यह जवाब दिया।  

सिंघू पर बने मुख्य मंच से करीब एक किलोमीटर दूर, बरनाला जिले से आए दलवीर सिंह हैं जो  किसानों के कपड़े सिलने वाली सिलाई मशीन से सेवा के लिए बैठे हैं। न्यूजक्लिक से बात करते हुए, सिंह ने बताया कि उन्होंने पहली बार 19 दिसंबर को सिंघू और टिकरी सीमा पर चल रहे प्रदर्शन स्थलों का दौरा किया था। मैंने देखा कि कई किसान फटी हुई शर्ट और पैंट पहने घूम रहे हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि उनके कपड़े क्यों फटे हैं तो उन्होंने कहा कि ये सब हरियाणा पुलिस के साथ हाथापाई का नतीजा है। बाद में, मैंने ट्रॉलियों में बैठे किसानों के बीच एक छोटा सा सर्वेक्षण किया कि क्या क्या उनके पास उनके कपड़े सिलने के लिए कोई दर्जी मौजूद है। उन्होंने बताया कि दर्जी का पता लगाना मुश्किल है। मैं 20 दिसंबर को घर लौटा और अपने परिवार से कहा कि हमें अपनी सेवाएँ किसानों को देनी चाहिए। मेरे परिवार ने मेरे इस निवेदन को सहजता से स्वीकार कर लिया। इसलिए, मैं अपनी दुकान बंद कर सेवा करने के लिए यहां चला आया।"

यह पूछे जाने पर कि वह इस काम के चलते खोई हुई आय की भरपाई कैसे करेंगे, सिंह ने जवाब दिया कि, “मैं सिलाई के काम में इसलिए व्यस्त था क्योंकि किसान कमा रहे थे। अगर वे अपनी जमीन खो देंगे तो मेरे पास कौन आएगा? जब हम गुलाम थे, तो वह एक देश था जो हम पर शासन कर रहा था। यहां, दो व्यक्तियों का भी कुछ ऐसा ही इरादा है। मेरे पास ज़मीन तो नहीं है, पर ज़मीर जरूर है। 

सिलाई मशीन के बगल में बैठी जसविंदर कौर जो कि फतेहगढ़ साहिब जिले से आई है। एक कोट की सिलाई में व्यस्त कौर ने न्यूज़क्लिक को बताया कि, “मैं घर पर भी यही काम करती हूँ। अगर हमारे बच्चे दिल्ली में लड़ रहे हैं तो मैं घर में क्या करूंगी? इसलिए, मैं यहां आंदोलन में भाग लेने आ गई।”

उनसे बात करने पर ग्रामीण संकट के खिलाफ किसानों के बीच गहरी नाराजगी का पता चलता है, जिसमें बेरोजगारी, फसलों के भुगतान में देरी और केंद्र की नीतियां शामिल हैं। 15 एकड़ जमीन की मालकिन कौर ने बताया कि वह पिछले दो साल से मिलों से गन्ने के भुगतान का इंतजार कर रही है। “मुझे नहीं पता कि पैसा कब आएगा। अन्य फसलों के लिए भी कोई दर तय नहीं है, और कमाई का कोई अन्य तरीका भी नहीं है। हमारे शिक्षित नौजवान नौकरियों की तलाश में भटक रहे हैं। वे मजबूरी में खेती से जुड़े हैं। मेरी बेटी जो कि एक प्रशिक्षित नर्स है वह घर में भैंस का दूध दूहती है। क्या मोदी को इसके बारे में जानकारी नहीं है? सबसे पहले, उन्होंने नोटबंदी के जरिए हमारी बचत को छीन लिया। अब, वे इन कानूनों को लाए है।

विरोध प्रदर्शन में बुजुर्गों और महिलाओं की भागीदारी पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बारे में बात करते हुए उन्होंने बताया कि, “हम अपने बच्चों को अकेले यहां नहीं छोड़ेंगे। यदि मोदी अपने कानूनों के बारे में इतने आश्वस्त हैं, तो वे सीधे किसानों के प्रतिनिधियों से बात क्यों नहीं करते हैं? अगर उन्हे लगता है कि हम उनके निर्दयी अहंकार के कारण वापस लौट आएंगे, तो यह   उनकी भूल है।”

विरोध स्थल पर मौजूद मोगा जिले से आए लवप्रीत सिंह के साथ न्यूजक्लिक की हुई मुलाकात में बताया कि उन्होने सांझी सत या साझा चौपाल की स्थापना की है। इस जगह का इस्तेमाल पुस्तकालय, अस्थायी स्कूल और आराम करने के स्थान के रूप में किया जा रहा है ताकि विरोध प्रदर्शन में आए किसानों, पुरुषों और महिलाओं दोनों को आराम के साथ पढ़ाई का भी आनंद मिल सके। 

लवप्रीत ने आंदोलन में योगदान देने के लिए इमीरेशन एजेंसी में नौकरी छोड़ दी है। “जब मैं यहाँ आया, तो मुझे आराम करने के लिए कोई जगह नहीं मिली। मुझे लगा कि हमें ऐसी जगह की जरूरत है। इसलिए, मैंने एक जगह बनाई। जब मैंने लोगों को इस जगह को बनाने के लिए योगदान के लिए कहा तो एक व्यक्ति ने कहा कि वह तम्बू की व्यवस्था कर देगा। अन्य लोग चटाई, रस्सी और अन्य सामान लाए। जब लोग आराम करने यहाँ आते हैं, तो वे अक्सर किताबें माँगते हैं। इसलिए, हमने कुछ पुस्तकों की भी व्यवस्था की है। एक लेखक जिसने सोमवार को हमसे मुलाकात की थी उन्होने अपने लिखे दो उपन्यासों सहित 67 पुस्तकों का दान किया है। एक लड़की जो पास की झुग्गियों में बच्चों को पढ़ा रही थी, उसने इस जगह का इस्तेमाल करने के लिए हमसे संपर्क किया। अब, वह यहाँ पढ़ाती है, ”उन्होंने बताया।

भले ही अभी तक किसानों के आंदोलन का कोई परिणाम दिखाई नहीं दे रहा हैं, लेकिन सिंह ने इस बात को माना कि इस आंदोलन से पंजाब के युवाओं पर मादक पदार्थों और बूटलेगर्स की लगी छाप से छुटकारा मिलने में मदद मिली है। उन्होंने बताया कि, “अब, लोग हमें रोल मॉडल के रूप में देखते हैं। मुझे लगता है कि एक साहसी युवा नेतृत्व इस आंदोलन से उभर सकता है। युवा जो अच्छी तरह से पढ़ा-लिखा होता है, वह समाज में सुधार के बारे में सोचता है। मुझे लगता है कि यह स्वतंत्रता से पहल के समय जैसा है जिसने भगत सिंह और करतार सिंह सराभा जैसे लोगों का निर्माण किया था।”

हालांकि उन्हें अब यकीन नहीं है कि वे अपनी पुरानी नौकरी पर वापस लौट सकते हैं, इसलिए सिंह ने बताया कि वे लोगों को संगठित करना चाहते हैं ताकि समाज में व्याप्त जातिवाद के खिलाफ काम किया जा सके। 

उन्होंने अपने जाति के अनुभव को बताते हुए कहा कि, “मैंने हमेशा पाया कि गाँव दो खंडों में विभाजित रहता है। पक्के घर, हरियाली, स्वच्छता, सड़कें और सुविधाएं हमेशा जाट समुदाय के इलाकों में पायी जाती है। जीर्ण-शीर्ण घर, गंदा वातावरण निचली जातियों के हिस्से आता है। फिर भी, लोग उसी यथास्थिति को बनाए रखना चाहते है। जब मेरी पंचायत को 28 लाख रुपये मिले तो लोग श्मशान भूमि का पुनर्निर्माण करना चाहते थे। मैंने कहा कि इस काम को टाला जा सकता है। क्योंकि दूसरी तरफ सड़कें बनाना महत्वपूर्ण है।”

उन्होंने भविष्य के प्रति आशा व्यक्त करते हुए कहा, “उस समय, दूसरी तरफ के लोगों ने कहा कि वे श्मशान इसलिए मांग रहे हैं क्योंकि आप लोग अशिक्षित हैं। मैं ये बात सुन हक्का-बक्का रह गया था। ये वही लोग थे जो वर्षों से हम तक शिक्षा की पहुंच को रोक रहे थे, और अब वे हमें दोष दे रहे हैं। हम अक्सर भगत सिंह की बात करते हैं। वे जातिवादी और सांप्रदायिक भारत नहीं चाहते थे। तो, यह एक लंबा संघर्ष है। यह केवल कृषि कानूनों तक सीमित नहीं है।”

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें।

Meet the Ones Building the Edifice of Farmers’ Movement

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