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मिड डे मिल रसोईया सिर्फ़ 1650 रुपये महीने में काम करने को मजबूर! 

"हम लोगों को स्कूल में जितना काम करना पड़ता है। उस हिसाब से वेतन नहीं मिलता है। इतने पैसे में परिवार नहीं चलता है।"
mid day meal

मिड-डे-मील (एमडीएम) योजना के तहत स्कूलों में बच्चों के लिए खाना बनाने वाली रसोईये को वेतन के तौर पर प्रति महीने सिर्फ और सिर्फ 1650 रुपये ही मिलता है। और वह भी साल में दस महीने का ही उन्हें भुगतान होता है जबकि दो महीने का उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता है। इतने कम वेतन पर हर कार्य दिवस में करीब 6 घंटों तक स्कूलों में उन्हें काम करना पड़ता है। उनके काम की बात करें तो खाना बनाने, बच्चों को खाना परोसने से लेकर बर्तन धोने तक की उनकी जिम्मेदारी है। बता दें कि स्कूलों में बतौर रसोईये वही महिलाएं या पुरुष काम करते हैं जो आर्थिक रुप से बेहद कमजोर हैं। रसोइया के तौर पर ज्यादातर महिलाएं ही जुड़ी हुई हैं। उन महिलाओं की तादाद ज्यादा है जो विधवा हैं या जिनके पति बीमार रहते हैं। ऐसे में वे अपने बच्चों और परिवार का खर्च पूरा करने के लिए इस काम में लगी हैं।

बताया जाता है कि इस योजना के तहत जब स्कूलों में बच्चों के लिए खाना बनाने का काम शुरू हुआ था तो इन रसोइये को खाना बनाने के लिए 50 पैसा प्रति बच्चा मिलता था। यानी एक बच्चे का खाना बनाने पर 50 पैसा। धीरे-धीरे उनका पैसा बढ़ता गया और अब जाकर 1650 रुपये प्रति महीना तक पहुंचा है जो कि बेहद चिंताजनक है। इस क्रम में उनका वेतन बढ़ाने को लेकर रसोईया संघ की ओर से कई आंदोलन वगैरह भी किए गए तब जाकर उनका वेतन यहां तक पहुंचा है जो कि अभी भी न्यूनतम मजदूरी के मानक से बेहद कम है। उनके ऊपर अपने परिवार की तमाम तरह की जिम्मेदारी होती हैं, बच्चों की पढ़ाई से लेकर इलाज समेत अन्य प्रकार भी कई जिम्मेदारियां होती हैं। ऐसे में कोई भी यह सोच सकता है कि इतने कम वेतन में कोई भी व्यक्ति अपने परिवार का भरण पोषण आखिर कैसे कर सकता है। उनके ऊपर काम का बोझ ज्यादा है लेकिन पैसे कम हैं। 

इसी कड़ी में न्यूज़क्लिक ने गत शनिवार को समस्तीपुर जिले के सरायरंजन प्रखंड के कुछ स्कूलों का दौरा किया जहां एमडीएम योजना के तहत खाना बनाने वाली रसोईये से बातचीत की गई। 

पैसा कम होने के चलते बच्चों को ट्यूशन नहीं दे पाते

सरायरंजन स्थित कल्याणपुर के उत्क्रमित मध्य विद्यालय की रसोईया बसंती देवी अपनी पीड़ा बयान करते हुए कहती हैं, “हमारे पति का साल 2010 में निधन हो गया। इसके बाद घर का खर्च चलाने के लिए कोई आय का स्रोत नहीं था तो वर्ष 2011 में स्कूल में रसोईया के तौर पर काम शुरू किए। हम लोगों को 1650 रुपये महीना मिलता है। इतने में बाल-बच्चों का खर्च पूरा नहीं हो पाता। बच्चों को पढ़ने के लिए सरकारी स्कूल में भेजते हैं लेकिन पैसा न होने के चलते उनको अलग से ट्यूशन नहीं दे पाते हैं। साल के बारह महीने में से दस महीने की ही तनख्वाह मिलती है। हमलोग बहुत कष्ट से जीवन गुजारते हैं। इतनी कम तनख्वाह में बेहतर तरीके से बच्चों को पढ़ा नहीं सकते हैं। हम लोग जब स्कूल आते हैं तो झाड़ू लगाते हैं, पोछा लगाते हैं, खाना बनाते हैं, बच्चों को खिलाते हैं, प्लेट धोते हैं, सारा काम करते हैं, तब भी हम लोगों को सही से पैसा नहीं मिलता है। स्कूल में सात-सात घंटा काम करते हैं। इसी सबको देखते हुए चाहते हैं कि सरकार हमलोगों का मानदेय बढ़ाए ताकि जीवन कुछ बेहतर हो सके। कोई खेत में भी मजदूरी करता है तो उसे दो सौ रूपये रोज मिलता है। हमलोग स्कूल में रिस्क उठा कर बच्चों का खाना बनाते हैं। तो हमलोगों को कम से कम सम्मानजनक मानदेय मिले ताकि घर परिवार का गुजारा हो सके। हमलोगों को परिवार में काफी संकट से गुजरना पड़ता है। और साल में जो दस महीने का तनख्वाह मिलता है उसके बजाय बारह महीने का मिले।”

परिवार का गुजारा नहीं होता

सरायरंजन स्थित आदर्श मध्य विद्यालय की रसोईया पूनम देवी बताती हैं, "हम तेरह साल से स्कूल में काम कर रहे हैं। इतना कम वेतन मिलता है कि परिवार का गुजारा नहीं होता है। यहां भी बहुत काम करना पड़ता है। बार-बार हड़ताल पर जाते हैं लेकिन वेतन बढ़ नहीं रहा है। हम लोगों का भी शौक है कि बच्चों का भविष्य बेहतर बनाएं, उनको बेहतर शिक्षा दें लेकिन पैसा कम मिलने के चलते उनके लिए कुछ नहीं कर पाते हैं। परिवार में छह सदस्य हैं। इतना कम वेतन मिलता है कि परिवार का खर्च भी नहीं चल पाता है। ऐसे में बच्चों की बेहतर पढ़ाई के लिए पैसा कहां ला पाएंगे। घर में कोई बीमार पड़ जाता है पैसे का अभाव हो जाता है। इलाज भी सही ढ़ंग से नहीं हो पाता है। हम सरकार से यही कहेंगे कि हम लोगों का वेतन मुनासिब हो। इतना पैसा मिल जाए कि घर खर्च चल सके।"

वेतन पंद्रह हजार रुपये मिले

इसी स्कूल की एक अन्य रसोईया मित्रा देवी कहती हैं, “अभी स्कूल मॉर्निंग में चल रहा है इसलिए सुबह छह बजे स्कूल आते हैं और बारह-साढ़े बारह में स्कूल से जाते हैं। हम लोगों को स्कूल में बहुत काम करना पड़ता है। उस हिसाब से वेतन नहीं मिलता है। इतने पैसों में परिवार नहीं चलता है। हमारा मानदेय बढ़ना चाहिए और कम से कम हम लोगों का वेतन पंद्रह हजार रुपये होना चाहिए। परिवार में पांच लोग है। एक लड़का और दो लड़की है। लड़का काम करने के लायक नहीं है। रसोईया का कोई वैल्यू नहीं है। हर चीज का दाम काफी बढ़ गया है। ऐसे में परिवार का खर्च नहीं चल पाता है।” 

रसोईया को चतुर्थ-वर्गीय कर्मचारी का दर्जा मिले

बिहार राज्य विद्यालय रसोईया संघ के राज्य सचिव परशुराम पाठक फोन से हुई बातचीत में कहते हैं, “साल 2012 में हम लोग ये रसोइया संघ बनाए। इससे पहले विभिन्न एनजीओ के माध्यम से स्कूलों में मिड डे मिल चलता था। पचास पैसा प्रति बच्चा खाना बनता था। टेम्सू से स्कूल-स्कूल खाना पहुंचाया जाता था। नवादा में खाना बनाने के दौरान एक घटना घटी जिसमें रसोईया का शरीर जल गया। जिसके बाद हम लोगों ने इस संगठन का गठन किया। तब से हम लोग रसोईया के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं। हम लोग चाहते हैं कि इनको शिक्षा विभाग के चतुर्थ वर्गीय कर्मचारी के रुप में मान्यता मिलनी चाहिए। काफी लड़ाई लड़ने के बाद वेतन धीरे-धीरे बढ़कर साढ़े सोलह सौ रुपये हुआ। उनको वेतन मिलने में अभी भी कई तरह की समस्या है। उनको नियमित भुगतान भी नहीं होता है। मार्च और जून महीने का उनको भुगतान नहीं किया जाता है। इस पर कोई ध्यान नहीं देता है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश के मुताबिक जो न्यूनतम मजदूरी तय है उस हिसाब से वेतन दिया जाना चाहिए। उस हिसाब से सरकार की तरफ से घोर अपराध किया जा रहा है। रिटायरमेंट को लेकर यह तय किया गया है कि रसोईया को साठ वर्ष की उम्र में रिटायर कर देना है। लेकिन रिटायरमेंट के बाद का इनके लिए पीएफ और पेंशन जैसे कोई लाभ की व्यवस्था नहीं है। गांव-समाज में जो सबसे गरीब तबका है, जो सबसे निचले पायदान पर हैं वही लोग इसमें काम करते हैं। इसमें दलित, विधवा और अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाएँ जुड़ी हुई हैं। हमारी मांग यही है कि वेतन को लेकर नीति आयोग द्वारा तय 21 हजार रुपये प्रति महीने के हिसाब से रसोईया को मिले जिससे उनके परिवार का खर्च चल सके।” 

इतने कम पैसे में रसोईए को स्कूलों में 6-7 घंटे तक काम लेना उनके परिवार और बच्चों के साथ घोर अन्याय है। इस काम में वही लोग जुड़े हैं जो आर्थिक रुप से बेहद कमजोर हैं और जिनके परिवार में कमाने वाला कोई पुरूष सदस्य नहीं है। ये रसोईया बेहद मजबूरी में स्कूलों में खाना बनाती हैं। ज्यादा समय स्कूल में काम करने के बाद थक-हार चुकी इन रसोईए को कम वेतन मिलने के चलते दूसरे काम भी करने पड़ते हैं ताकि परिवार का खर्च चल सके। ऐसे में जरूरी है कि काम के अनुसार उनका सम्मानजनक वेतन तय हो ताकि वे खुद को पीड़ित न महसूस कर सकें।

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