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प्रवासी, असंगठित मज़दूरों के लिए बनाए गए कानून संकट में उनके किसी काम नहीं आए!

मज़दूर संगठनों ने न्यूज़क्लिक को बताया है कि वे काम के घण्टों में बढ़ोतरी किये जाने के खिलाफ न्यायालय की शरण में जाने का मन बना रहे हैं।
प्रवासी

कोलकता : विशेषज्ञों के अनुसार अंतरराज्यीय प्रवासी कामगार (रोजगार के नियमन और सेवा शर्तें) अधिनियम, 1979 (ISMW) और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा अधिनियम, 2008 (UWSS) ने किसी भी स्तर पर प्रवासी और असंगठित श्रमिकों के हितों को ध्यान में नहीं रखा है। एक ऐसे समय में जब प्रवासी श्रमिक ही इस नवीनतम कोरोनवायरस के संकट की वजह से सबसे बुरी तरह से प्रभावित हैं, उस दौर में दो कानून जो उनकी रक्षा करने के इरादे से बनाए गए थे, उनमें खामियाँ दिख रही हैं। इसके साथ ही प्रशासन के पास निर्दिष्ट उद्देश्यों और कल्याणकारी तत्वों को लागू करने के लिए धन के प्रावधान की कोई योजना इनकी प्राथमिकता में नजर नहीं आती।

विशेषज्ञों का मानना है कि कुछ राज्य सरकारों द्वारा हाल के दिनों में मज़दूरों के लिए काम के अतिरिक्त घंटों को ओवरटाइम के रूप में न मानकर काम के घंटे बढ़ाने के सम्बन्ध में उठाये गए कदम और देय मजदूरी की राशि के भुगतान के सम्बंध में फैक्ट्री अधिनियम, 1948 का उल्लंघन है और अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (आईएलओ) के कन्वेंशन संख्या 1 के विपरीत है।

इन दोनों मुद्दों पर विशेषज्ञों की राय जानने के लिए न्यूज़क्लिक ने उनसे बात की।

सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियंस (सीटू) के महासचिव तपन सेन के अनुसार आईएसएमडब्ल्यू (ISMW) अधिनियम जिस दिन से प्रभाव में आया था, जिसमें गृह राज्यों और मेजबान राज्यों की और से एक कल्याणकारी घटक के तौर पर प्रवासी श्रमिकों के पंजीकरण की व्यवस्था का प्रावधान रखा गया था, जिस दिन से प्रभावी हुआ उसी समय से इसका “उल्लंघन” हो रहा था। संसद में सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम की शर्त सम्बंधी संहिता विधेयक, 2019 को पेश किये जाने का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा "और अब जाकर नई दिल्ली सरकार इस अधिनियम को कहीं और मजबूत करने और इसके कार्यान्वयन के प्रति खुद को प्रतिबद्ध साबित करने के बजाय इस एक्ट को ही रद्द करने का प्रस्ताव पेश कर रही है।"

ऑल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (ऐटक) की महासचिव अमरजीत कौर के विचार में इस प्रासंगिक अधिनियम को दोबारा जाँचने या संशोधित करने के बजाय इसे लागू कराने को सुनिश्चित करने पर जोर दिया जाना चाहिए था। उन्होंने उल्लेख किया कि विचाराधीन कानूनों का पुनरावलोकन और संशोधन अत्यावश्यक है क्योंकि किसी भी कल्याणकारी योजना का कोई अर्थ नहीं रह जाता यदि किसी के ठहरने की व्यवस्था, सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच न हो तो यह पूरी तरह “अविवेकपूर्ण” है।

यूनाइटेड ट्रेड्स यूनियन कांग्रेस (UTUC) के महासचिव अशोक घोष का इसके बारे में मत भिन्न था। आपका मत था कि "आजीविका के लिए प्रवासन हर किसी का मौलिक अधिकार है" और यह पलायन का क्रम कई वर्षों से जारी है। लेकिन वर्तमान में कोरोनवायरस के कारण जारी संकट के दौरान मज़दूरों को अमानवीय परिस्थितियों से दो-चार होना पड़ रहा है। “अब तो यह संदेह होने लगा है कि क्या केंद्र इन फंसे हुए प्रवासी कामगारों को भारतीय नागरिक भी मान रहा है या नहीं, जो कि वे हैं और जिनके बारे में मोदी सरकार ने अपनी कोई चिंता नहीं दिखाई है।”

ट्रेड यूनियन कोऑर्डिनेशन सेंटर (टीयूसीसी) के अध्यक्ष प्रबीर बनर्जी का कहना था कि इस समय तो ऐसा लग रहा है मानो “हम सभी ने अपने-आप को अंतर-राज्यीय प्रवासी मज़दूरों की बदहाली तक समेट लिया हो। उनके कष्टों की तो कोई सीमा ही नहीं है क्योंकि जब हम देखते हैं कि अपने पैतृक निवास तक पहुंचने के लिए श्रमिक सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा पैदल ही तय किये जा रहे हैं जो कि निश्चित रूप से हमारे देश के हालात पर एक दुखद टिप्पणी बयां करती है।”

बनर्जी उल्लेख करते हैं, “लेकिन जिन श्रमिकों को एक ही राज्य में एक जिले से दूसरे जिले की यात्रा करनी पड़ रही है, उन्हें भी बेहद मुश्किलों से जूझना पड़ रहा है। उदाहरण के तौर पर ईंट भट्टों में काम करके अपनी आजीविका कमाने वाले मज़दूर।” वे आगे कहते हैं कि तेलंगाना में "नियम कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए श्रमिकों के अंतहीन शोषण" के उदाहरण देखने को मिल रहे हैं, जहां पर राजधानी शहर परियोजना और उससे सम्बंधित विकास परियोजनाओं पर इफरात में पैसा खर्च किया जा रहा है। बनर्जी के विचार में इस प्रोजेक्ट में जिसकी लागत 1,000 करोड़ रुपये है, यह आज की ज़रूरतों को देखते हुए सर्वथा अनुचित है।

प्रोफेसर के.आर. श्याम सुंदर जो कि एक श्रमिक अर्थशास्त्री हैं, आप जमशेदपुर स्थित जेवियर स्कूल ऑफ मैनेजमेंट संकाय के सदस्य हैं, का कहना था कि यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है कि न तो "राज्य सरकारें और न ही नई दिल्ली ने आईएसएमई अधिनियम को गंभीरता से लिया है।” इसमें मेजबान और गृह राज्य इन दोनों राज्यों में प्रवासी श्रमिकों के पंजीकरण की आवश्यकता होती है और जो लोग ठेकेदारों के माध्यम से आते हैं इसे उन पंजीकृत प्रवासी श्रमिकों के कल्याण के लिए मुहैया कराया जाता है। यदि औपचारिक तौर पर इस चैनल से आने वाले श्रमिकों को पंजीकृत नहीं किया गया तो इस अधिनियम के तहत उन्हें कानूनी तौर पर हक मिल सके इसे लागू नहीं किया जा सकता है। वे उल्लेख करते हैं, "त्रासदी यह है कि ऐसी स्थिति में वे अपने हकों से वंचित रह जाएंगे, भले ही उन प्रवासियों की कुल संख्या का अपेक्षाकृत कम प्रतिशत -औपचारिक और स्वैच्छिक हो।"

उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस और उसके परिणामस्वरूप लॉकडाउन के चलते "बेबस श्रमिकों के दर्दनाक और आत्मघाती पलायन की मुहिम ने आज उनकी बात को मुख्यधारा की बहस में शामिल करा दिया है, वरना इनके हालात की किसी को परवाह नहीं थी।" आज के हालात ने औद्योगिक सम्बन्धों की प्रणाली में शासन की विफलताओं को उघाड़कर रख दिया है, वे आगे उल्लेख करते हुए कहते हैं कि यही वह समय है जब विकास की प्रक्रिया में प्रवासी श्रमिकों की भूमिका को न सिर्फ कानूनी तौर पर बल्कि राजनीतिक और सामाजिक तौर पर भी पहचाना जा रहा है।

श्रम मामलों की वकील रामप्रिया गोपालकृष्णन के अनुसार, प्रवासी श्रमिकों की "दयनीय" स्थिति ने आईएसएमडब्ल्यू अधिनियम की खामियों को उघाड़कर रख दिया है। वे इस बात का उल्लेख करती हैं कि यह कानून सिर्फ उन प्रवासी मज़दूरों पर लागू होता है जो बिचौलिए ठेकेकारों के माध्यम से अन्य राज्यों में रोजगार के लिए भर्ती किए जाते हैं। यदि अन्य राज्यों में इन प्रवासी श्रमिकों की नियोक्ताओं द्वारा सीधे भर्ती की जाती है तो यह नियम उन पर पर लागू नहीं होता। वे आगे कहती हैं कि इसके अलावा यह अधिनियम सिर्फ उन्हीं प्रतिष्ठानों पर लागू होते हैं जहाँ पर दूसरे प्रदेशों से आये हुए पांच या उससे अधिक प्रवासी श्रमिक काम पर हैं। इसके अलावा अधिनियम के तहत ऐसे प्रतिष्ठानों के पंजीकृत होने का भी प्रावधान है। इसमें प्रवासी श्रमिकों के पंजीकरण की आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार, कानूनी ढांचे में बदलाव की आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वह इस शब्द के वास्तविक अर्थों में समावेशी स्वरूप अख्तियार कर सके।

2008 के यूडब्ल्यूएसएस अधिनियम के बारे में सेन का कहना था कि जब यह मात्र विधेयक के तौर पर था, तो इसे कांग्रेस की अगुवाई वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार द्वारा "असंगठित क्षेत्र में नेशनल कमीशन फॉर इंटरप्राइजेज इन अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर (NCEUS) और श्रम मामलों पर बनाई गई पार्लियामेंट्री स्टैंडिंग कमेटी द्वारा पेश की गई सभी मज़दूर समर्थक सिफारिशों की अनदेखी" करके आगे बढ़ाया गया था।

उनका मत था कि उस समय भी अधिनियम में संलग्न अधिकांश कल्याणकारी और सामाजिक सुरक्षा योजनाएं उन लोगों के लिए थीं जो गरीबी की रेखा से नीचे रह रहे थे। लेकिन उन मामलों में भी योग्यता की परिभाषा और आय के स्तर को इतना "प्रतिबंधक" बनाकर रखा गया था कि बहुसंख्यक असंगठित मज़दूरों के लिए इसका कोई औचित्य नहीं था।

इसके बजाय संशोधन के माध्यम से इसमें बेहतरी के लिए सुधार किये जाएँ, केंद्र ने एक नए सामाजिक सुरक्षा संहिता विधेयक, 2019 को प्रस्तावित किया है, जिसमें कल्याणकारी कार्यों के लिए नियोक्ताओं से उपकर संग्रह कर फण्ड इकट्ठा करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है। सेन के अनुसार अपवाद के तौर पर सिर्फ निर्माण क्षेत्र के लिए इसे प्रस्तावित किया गया है।

कौर का कहना था कि दरअसल इस अधिनियम के साथ ही समस्या है। उन्होंने उल्लेख किया कि इसमें कोई दिशा निर्देश नहीं थे और न ही संसाधनों को खड़ा करने सम्बंधी कोई दिशा निर्देश ही उल्लिखित थे।  "इसमें राज्य सरकारों की जिम्मेदारियों को परिभाषित नहीं किया गया है और न ही केंद्र ने अपने उपर कोई जिम्मेदारी ली है।"

घोष के अनुसार ऐसे कानूनों कोई औचित्य नहीं रह जाता यदि इन्हें सार्वभौमिक तौर पर सबके लिए लागू नहीं किया जा सके। पश्चिम बंगाल के बारे में आपका कहना है कि यहाँ पर राज्य सरकार के लिए श्रमिक कोई बुनियादी मुद्दा नहीं रहा है। बनर्जी के अनुसार वाम मोर्चा सरकार ने इस कानून पर कुछ काम करने के प्रयास पश्चिम बंगाल में किए थे। लेकिन तृणमूल कांग्रेस मंत्रालय के लिए  "पार्टी-बाजी करना कहीं बेहतर विकल्प है।”

प्रो. श्याम सुंदर के अनुसार 2008 अधिनियम एक "फिजूल की चीज" साबित हुई, जब इसे NCEUS की सिफारिशों से आंका गया था। इसके तहत सामाजिक सुरक्षा निधि की कोई व्यवस्था नहीं की गई थी, और जल्दबाजी में तत्कालीन कल्याणकारी योजनाओं को इसके दायरे में लाया गया था। राष्ट्रीय सामाजिक सुरक्षा बोर्ड के गठन का लक्ष्य बस कागजों में ही बनकर रह गया था। जिला प्रशासन की और से पहचान पत्र जारी किये जाने थे, जो विशिष्ट पहचान संख्या वाले स्मार्ट कार्ड साबित होते। और वे एक जगह से दूसरे जगह के लिए पोर्टेबल थे। प्रो. श्याम सुंदर कहते हैं, "इस अधिनियम के संबंध में शासन की विफलता, संकट के इस दौर में पूरी तरह से दृष्टिगोचर हो रही है।"

31 मार्च, 2020 को देश के विभिन्न हिस्सों में प्रवासी मज़दूरों की शिकायतों के निवारण के लिए रिट याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश एस.ए.बोबडे और न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव ने कहा था: "यह सर्वविदित है कि व्याकुलता गंभीर रूप से मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित कर सकती है... प्रवासियों की दुश्चिंताओं और भय को पुलिस और अन्य अधिकारियों द्वारा समझा जाना चाहिए... उन्हें प्रवासियों के साथ मानवीय तौर पर पेश आना चाहिए... हम उम्मीद करते हैं कि संबंधित लोग गरीबों, महिलाओं और बच्चों की आशंकाओं को समझने का प्रयास करेंगे और उनके साथ दयालुता का व्यवहार करेंगे।”

प्रस्तावित कानून में कारखाना मालिक मज़दूरों को 12 घंटे काम पर लगाने की अनुमति दी जा रही है, लेकिन इस अतिरिक्त चार घंटे के काम को ओवरटाइम के तौर पर नहीं गिना जा रहा है, क्योंकि ओवरटाइम के तौर पर अगर इसे मानेंगे तो मजदूरी डबल रेट पर देनी होती है। इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि अप्रैल महीने की अलग-अलग तारीखों में सरकारी अधिसूचना का सहारा लेकर गुजरात, एमपी और हिमाचल प्रदेश की सरकारों (सभी भारतीय जनता पार्टी शासित राज्य) ने इसे अपनाया। अधिसूचना मार्ग का सहारा पंजाब सरकार की ओर से भी लिया गया। गोपालकृष्णन ने बताया कि गुजरात, एमपी और हिमाचल ने फैक्ट्रीज एक्ट, 1948 की धारा 5 के तहत प्रदान की गई शक्तियों का उपयोग किया था। ये अधिसूचनाएं मौजूदा सार्वजनिक आपातकाल को आधार बनाकर जारी की गई थीं और यह सिर्फ तीन महीने के लिए वैध हैं, अर्थात जुलाई 2020 के मध्य तक।

वहीं कांग्रेस शासित राज्य पंजाब ने अधिनियम की धारा 65 के तहत शक्ति को उपयोग में लाकर काम के घंटे बढ़ाये हैं "जो काम के एक असाधारण दबाव से निपटने के लिए आवश्यक लचीलापन प्रदान करता है।" लेकिन इस बात के निर्देश नहीं करता कि सामान्य दर पर ही मजदूरी का भुगतान किया जाएगा। इसलिए इसमें यह भावार्थ निकाले जाने की गुंजाइश बनी रहती है कि अतिरिक्त चार घंटे के लिए दुगुनी दर से ओवरटाइम मजदूरी का भुगतान किया जाए। जबकि अन्य तीन राज्यों में ली गई कार्रवाई से यह अर्थ निकलते हैं कि ओवरटाइम काम की मजदूरी का भुगतान नहीं होने जा रहा है।

2014 से ही केंद्र इस कोशिश में लगा था कि फैक्ट्री एक्ट में संशोधन कर सके और काम के घंटे बढ़ा दिए जाएँ। लेकिन ट्रेड यूनियनों के कड़े प्रतिरोध के कारण यह सफल नहीं हो सका है। अधिसूचना मार्ग का सहारा इसीलिए लिया जा रहा है ताकि ट्रेड यूनियनों के साथ पूर्व परामर्श से बचा जा सके।

न्यूज़क्लिक से अपनी बात में गोपालकृष्णन इस बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं कि इस प्रकार काम के घंटे को बढ़ाना आईएलओ के कन्वेंशन संख्या 1 के विपरीत है,  जिसे भारत द्वारा अनुमोदित किया गया है और जो अधिकतम आठ घंटे और सप्ताह में 48 घंटे काम लेने की इजाजत देता है।

शोध के निष्कर्षों का हवाला देते हुए  श्रम अर्थशास्त्री की ओर से कहा गया कि काम के घंटे बढ़ाकर आर्थिक दक्षता को बढ़ा पाने की संभावना नहीं रहती क्योंकि लंबे समय तक काम करते रहने से थकान होती है,  कार्य-जीवन में संतुलन नहीं रहता और यहां तक कि काम के दौरान दुर्घटनाओं की संभावना भी बढ़ जाती है।

यूटीयूसी के महासचिव और टीयूसीसी के अध्यक्ष ने न्यूज़क्लिक से वार्ता के दौरान इस बात के संकेत दिए हैं कि लॉकडाउन हटने के बाद और हालात सामान्य होने की ओर बढ़ने के बाद, वे इस मामले को किसी उपयुक्त न्यायालय के समक्ष रखने को लेकर गंभीरता से विचार करेंगे।

अंग्रेज़ी में लिखा मूल आलेख आप नीचे लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

‘Migrant, Unorganised Workers Acts Worst Examples of Disregard’

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