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भ्रामक बयान के चलते मनरेगा के प्रति केंद्र की प्रतिबद्धता सवालों के घेरे में

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने शनिवार को इस बात से इनकार कर दिया कि इस ग्रामीण रोज़गार योजना को किसी तरह से धन की कमी का सामना करना पड़ रहा है। हालांकि, इसे लेकर नागरिक समाज के लोगों की ओर से जो प्रतिक्रिया आयी, उसके मुताबिक़ यह इनकार "कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ देती है।"

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प्रतीकात्मक फ़ोटो

कार्यकर्ताओं ने चालू वित्त वर्ष में ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के लिए उपलब्ध धन की कमी पर मीडिया रिपोर्टों पर केंद्र की ओर से आयी प्रतिक्रिया पर यह आरोप लगाते हुए सवाल उठाया है कि यह "भ्रामक" है और यह कई उठाये गये सवालों को "अनुत्तरित" ही छोड़ देता है।

पिछले हफ़्ते शनिवार को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने कहा कि वह महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम क़ानून (MGNREGA) के उचित कार्यान्वयन को लेकर "प्रतिबद्ध" है और भरोसा दिया कि जब भी ज़रूरी हो, क़ानून के मुताबिक़ "मज़दूरी और सामग्रियों की ख़रीद के लिए भुगतान को लेकर धन जारी किया जेयागा।"

राज्य सरकारों के सहयोग से इस रोज़गार योजना के कार्यान्वयन की निगरानी करने वाले केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD) की ओर से प्रेस को जारी यह बयान एक नागरिक समाज समूह की एक रिपोर्ट के जवाब में आया था। इस समूह ने संकेत दिया था कि आने वाले महीनों में इस योजना के तहत रोज़गार सृजन इसलिए ज़बरदस्त तौर पर प्रभावित होगा, क्योंकि इस वित्तीय वर्ष के लिए तक़रीबन सभी आवंटित निधि का पहले ही इस्तेमाल किया जा चुका है।

पीपुल्स एक्शन फ़ॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी (PAEG) की ओर से इस साल की अप्रैल-सितंबर अवधि के लिए तैयार की गयी "नरेगा नेशनल ट्रैकर" रिपोर्ट ने पाया गया कि वित्त वर्ष 2021-22 में मनरेगा के लिए आवंटित 73,000 करोड़ रुपये में से तक़रीबन 90% का इस्तेमाल किया जा चुका है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल सहित देश के कम से कम बीस राज्यों में शुद्ध शेष राशि नकारात्मक है, यानी कि कुल उपलब्ध धन में से कुल व्यय और चालू वर्ष में किये गये ख़र्चों के बाद भुगतान की देनदारी बची हुई है।

इसके अलावा, बेंगलुरु स्थित लिबटेक इंडिया ने इसी अवधि के दौरान 10 राज्यों में इस ग्रामीण रोज़गार योजना के तहत 18 लाख मज़दूरी ट्रांजेक्शन के एक अध्ययन में पाया कि केंद्र सरकार की ओर  से किये गये इस ट्रांजेक्शन का 71 फ़ीसदी अनिवार्य अवधि से ज़्यादा में किया गया।

इस एक्ट के मुताबिक़ यह योजना प्रति वर्ष प्रति परिवार को 100 दिनों तक का रोज़गार मुहैया कराती है।इसमें काम के मस्टर रोल के पूरा होने के 15 दिनों के भीतर श्रमिकों को मज़दूरी का भुगतान करना अनिवार्य है, ऐसा न करने पर इस योजना के तहत दर्ज किये गये श्रमिक अर्जित मज़दूरी के 0.05% प्रति दिन के विलंब मुआवज़े के हक़दार होते हैं।

सोमवार को प्रेस को जारी एक बयान में पीएईजी ने कहा कि केंद्र की ओर से शनिवार को दी गयी प्रतिक्रिया "कई सवालों को अनुत्तरित छोड़ देती है" और मांग के आधार पर योजना के तहत काम मुहैया कराये जाने का उसका वादा "खोखला दिखायी देता है।"

केंद्र ने शनिवार को दावा किया था कि चालू वित्त वर्ष के दौरान अब तक राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों को 63,793 करोड़ रुपये जारी किये जा चुके हैं, जिनमें से 8,921 करोड़ रुपये वेतन देनदारी को पूरा करने के लिए हैं।

हालांकि,पीएईजी की ओर से सोमवार तक मनरेगा के वित्तीय विवरण के विश्लेषण से पता चलता है कि चालू वित्तीय वर्ष के लिए संचित व्यय 52,993 करोड़ रुपये है, जबकि इस समय इसकी लंबित देनदारी 9,075 करोड़ रुपये है। इसके अलावा, पिछले वित्तीय वर्ष से कुल लंबित देनदारियां 17,451 करोड़ रुपये हैं।

पीएईजी ने सोमवार को कहा था, “इससे 79,518 करोड़ रुपये तक की राशि बढ़ जाती है, जिसका मतलब है कि भारत सरकार इस सिलसिले में पहले से ही कम से कम 6,518 करोड़ रुपये के घाटे में चल रही है। इसके चलते (भी) पारिश्रमिक के भुगतान में देरी हो रही है।"

मज़दूर किसान शक्ति संगठन के संस्थापक सदस्य निखिल डे ने मंगलवार को न्यूज़क्लिक को बताया कि पीएईजी की यह रिपोर्ट इस बात पर रौशनी डालती है कि ग्रामीण रोज़गार कार्यक्रम के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध कराने की "तत्काल" ज़रूरत है। उन्होंने बताया कि उक्त योजना के लिए कुल बजट आवंटन, पिछले साल के संशोधित बजट से 34% कम था।

डे, जो पीएईजी के कार्यकारी समूह के सदस्य भी हैं, ने कहा, "मनरेगा, जो कि ग्रामीण श्रमिकों की जीवन रेखा है, क़ानून के मुताबिक़ कभी भी बजट से नहीं, बल्कि मांग से बाधित होता है।” उन्होंने कहा कि इसका मतलब है कि यह सुनिश्चित करना केंद्र सरकार की "वैधानिक ज़िम्मेदारी" है कि मनरेगा के लिए पर्याप्त धन उपलब्ध हो और श्रमिकों को उनके काम और भुगतान,दोनों समय पर हो।

उनके मुताबिक़, ग्रामीण श्रमिकों के भीतर पहले से ही ज़बरदस्त संकट चल रहा था, जो कि पिछले साल से कोविड-19 महामारी के कारण और गहरा गया था। डे ने कहा, "मज़दूरी के भुगतान(मनरेगा के तहत) में हुई देरी के संकट का नतीजा ही है कि ग्रामीण श्रमिक पर क़र्ज़ बढ़ रहा है।"

इस बीच, केंद्र ने शनिवार को यह भी कहा कि इस ग्रामीण रोज़गार योजना के तहत मज़दूरी भुगतान को अलग-अलग जाति श्रेणियों में विभाजित करने वाली इस साल की शुरुआत में लिये गये उसके विवादास्पद फ़ैसले को आगे "सुव्यवस्थित" किया जा रहा है।

ग्रामीण विकास मंत्रालय (MoRD) ने इस साल 2 मार्च को सभी राज्य सरकारों को एक एडवाइजरी भेजी थी, जिसमें उन्हें रोजगार गारंटी कार्यक्रम के तहत वित्तीय वर्ष 2021-22 से अनुसूचित जाति (SCs), अनुसूचित जनजाति (STs) और अन्य के लिए मज़दूरी भुगतान को अलग-अलग श्रेणियों में विभाजित करने के निर्देश दिये गये थे।

पिछले हफ़्ते लिबटेक इंडिया ने कहा,”यह क़दम असल में ग्रामीण योजना की "सार्वभौमिकता के बिल्कुल विपरीत" है और इसने गांवों में श्रमिकों के बीच ‘जाति-आधारित तनाव और धार्मिक तनाव’ को प्रेरित किया है और उन अधिकारियों के कार्यभार को भी बढ़ा दिया है, जो "कम से कम 3 बार" ग्राम ब्लॉक स्तर पर योजना के कार्यान्वयन की निगरानी करते हैं।

पीएईजी ने सोमवार को इस बात को फिर दोहराया कि मनरेगा के तहत मज़दूरी भुगतान का जाति-आधारित अलगाव "निरर्थक और क़ानूनी रूप से संदिग्ध है।" इसने इस बात की मांग करते हुए कहा कि इस क़दम को जल्द से जल्द रद्द किये जाने की ज़रूरत है।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

https://www.newsclick.in/Misleading-Statement-Puts-Centre-Commitment-Towards-MGNREGA-Question

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