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संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है मोदी सरकार!

हक़ीक़त यह है कि संसद का यह सत्र उसी तरह चल रहा है जिस तरह सरकार चलाना चाहती है। कथित हंगामे के बीच सरकार का अपने जन विरोधी एजेंडा पर अमल धड़ल्ले से जारी है।
संसद

संसद के मानसून सत्र की कार्यवाही को लेकर मीडिया में जिस तरह की खबरें आ रही हैं, उससे लग रहा है कि विपक्ष फालतू मुद्दों को लेकर हंगामा कर रहा है, जिसके चलते संसद में कोई काम नहीं हो पा रहा है। सरकार की ओर से भी कुछ इसी तरह की प्रतिक्रिया आ रही है और विपक्ष पर गैर जिम्मेदाराना बर्ताव का आरोप लगाया जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी नाराजगी जताते हुए कह रहे हैं कि विपक्ष संसद को ठप कर लोकतंत्र और जनता का अपमान कर रहा है। मगर हकीकत यह है कि संसद का यह सत्र उसी तरह चल रहा है जिस तरह सरकार चलाना चाहती है। कथित हंगामे के बीच सरकार का अपने जन विरोधी एजेंडा पर अमल धड़ल्ले से जारी है।

मानसून सत्र इसी तरह से चलने के संकेत सरकार की ओर से सत्र शुरू होने के एक दिन पहले से ही मिलना शुरू हो गए थे। केंद्रीय मंत्रियों और सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के नेताओं की ओर से एक सुर में कहा जा रहा था कि संसद सत्र को पटरी से उतारने यानी संसद नहीं चलने देने के लिए पेगासस जासूसी मामले का खुलासा किया गया है। गृह मंत्री अमित शाह ने भी अपने चिर-परिचित अंदाज में इस मामले की 'क्रोनोलॉजी’ समझाई। उन्होंने कहा कि इस तरह की चीजों से कुछ लोग देश के विकास को पटरी से उतारना चाहते हैं।

सत्र के दौरान अभी तक भी सरकार की ओर से यही कहा जा रहा है। सरकार और सरकारी पार्टी की ओर से संसद न चलने देने का 'कुछ ताकतों’ का 'मकसद’ तो बताया जा रहा है, मगर बडा सवाल है कि कौन ऐसा कर रहा है और ऐसा होने से रोकने यानी संसद को सुचारू रूप से चलाने के लिए सरकार क्या कर रही है? सवाल यह भी है कि संसद नहीं चलने का फायदा किसे हो रहा है?

दरअसल अब इस बात का किसी के लिए कोई मतलब नहीं रह गया है कि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर आम जनता की कमाई का कितना पैसा खर्च होता है। सरकार यह कह कर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड सकती कि विपक्ष संसद नहीं चलने दे रहा है। संसद की कार्यवाही सुचारू रूप से चले, यह जिम्मेदारी मूल रूप से सरकार की है। लेकिन सरकार के लिए यह जिम्मेदारी निभाना 'कुछ खास परिस्थिति’ में राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा होता है, लिहाजा वह भी नहीं चाहती कि संसद में सुचारू रूप से काम हो।

संसद की कार्यवाही सही तरीके से चले और किसी न किसी मसले को लेकर विवाद और शोर-शराबा चलता रहे, यह विपक्ष के लिए नहीं, बल्कि सरकार के सुविधाजनक होता है। ऐसी स्थिति में सरकार कई मुश्किल सवालों के जवाब देने से बच जाती है। विपक्ष आम लोगों से जुड़े मुद्दे नहीं उठा पाता है। जहां तक विधायी कामकाज का सवाल है तो वह सरकार अपने बहुमत के बूते करा लेती है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से ज़रूरी विधेयक और यहां तक कि बजट भी बिना किसी बहस के पारित कराया जा रहा है।

संसद का मौजूदा मानसून सत्र 19 जुलाई से शुरू हुआ है जो कि घोषित कार्यक्रम के मुताबिक 13 अगस्त तक जारी रहना है। अभी तक 14 कार्यदिवसों में एक भी दिन संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही सुचारू रूप से नहीं चली है और बचे हुए 5 कार्य दिवसों में भी ऐसा होने के कोई आसार दिखाई नहीं देते हैं। दोनों सदनों में विपक्ष शुरू दिन से मांग कर रहा है कि पेगासस जासूसी मामले पर बहस कराई जाए। विपक्ष का कहना है कि यह देश की संप्रभुता, लोकतंत्र और लोगों की निजता से जुड़ा मुद्दा है। लेकिन सरकार इसे फिजूल का मुद्दा करार देकर बहस कराने से इंकार कर रही है। विपक्षी सांसदों की नारेबाजी के बीच सरकार महत्वपूर्ण विधेयकों को बिना बहस के पारित कराए जा रही है। कहने की आवश्यक नहीं कि इस काम में लोकसभा स्पीकर और राज्यसभा के सभापति भी परोक्ष रूप से सरकार के मददगार बने हुए हैं।

संसद के चालू सत्र में विपक्ष के विरोध और उसकी मांगों को नजरअंदाज करते हुए सरकार ने अभी तक लगभग एक दर्जन अहम विधेयक बिना बहस के पारित कराए हैं, जिनमें सरकारी क्षेत्र की चारों सामान्य बीमा कंपनियों को निजी हाथों में सौंपने वाला विधेयक भी शामिल है। इन सभी विधेयकों को पारित कराने में औसतन सात मिनट प्रति विधेयक खर्च हुए हैं। ऐसे में राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के सदस्य डेरेक ओ’ब्रायन का यह कटाक्ष उचित ही है कि सरकार विधेयक पारित करा रही है या पापड़ी-चाट बना रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ओ’ब्रायन के इस बयान पर नाराजगी जताते हुए इसे संसद, लोकतंत्र और देश की जनता का अपमान बताया है।

वैसे प्रधानमंत्री मोदी और उनके अन्य मंत्री विपक्षी दलों पर यह आरोप आमतौर पर संसद के हर सत्र के दौरान या उसके खत्म होने पर लगाते ही हैं। सत्र शुरू होने के पहले वे कहते हैं कि सरकार हर मुद्दे पर बहस के लिए तैयार है, लेकिन जब सत्र शुरू होता है तो सरकार की यह तैयारी बिल्कुल भी नहीं दिखती। विपक्ष महत्वपूर्ण मसलों पर बहस की मांग करता रहता है और सरकार उसकी अनदेखी करते हुए अपने बहुमत के दम पर शोर-शराबे के बीच विधेयक पारित कराती रहती है। इसी सबके बीच प्रधानमंत्री विपक्ष के व्यवहार के व्यवहार को अलोकतांत्रिक बताते रहते हैं। जबकि हकीकत यह है कि संसद को अप्रसांगिक बनाने वाले जितने काम पिछले सात साल के दौरान हुए हैं, उतने पहले कभी नहीं हुए।

सात साल पहले प्रधानमंत्री का पद संभालते वक्त जब नरेंद्र मोदी ने संसद के प्रति सम्मान जताते हुए उसकी सीढ़ियों पर माथा टेका था और दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने पर संविधान के आगे शीश झुकाया था तो उनकी खूब वाह-वाही हुई थी, लेकिन आम तौर पर उनका व्यवहार उनकी उस भावना के विपरीत ही रहा है। खुद प्रधानमंत्री संसद सत्र के दौरान ज्यादातर समय संसद से बाहर ही रहते हैं। लोकसभा और राज्यसभा में वे उसी दिन आते हैं जिस दिन उन्हें भाषण देना होता है। पिछले सात साल के दौरान कई महत्वपूर्ण फैसले उन्होंने संसद की मंजूरी के बगैर ही किए हैं। कई कानूनों को अध्यादेश के जरिए लागू करने में अनावश्यक जल्दबाजी की है और कई विधेयकों, यहां तक कि संविधान संशोधन विधेयकों को भी स्थापित संसदीय प्रक्रिया और मान्य परंपराओं को नजरअंदाज कर बिना बहस के पारित कराया है। यही नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा और सीधे आम लोगों से जुड़े मुद्दों पर बहस से भी उनकी सरकार बचती रही है और विपक्ष की आवाज को दबाया गया है, जैसा कि इस समय पेगासस जासूसी मामले और केंद्रीय कृषि कानूनों को लेकर हो रहा है।

दरअसल संसद की गरिमा और सम्मान तो इस बात में है कि उसकी नियमित बैठकें हों। उन बैठकों में दोनों सदनों के नेता ज्यादा से ज्यादा समय मौजूद रहे, विधायी मामलों ज्यादा से ज्यादा चर्चा हो और आम सहमति बनाने के प्रयास हों। अगर आम सहमति नहीं बने तो ऐसे विषय संसदीय समितियों को भेजे जाएं और अगर राष्ट्रीय महत्व का कोई मुद्दा हो तो उस पर विचार के लिए दोनों सदनों की प्रवर समिति बने या संयुक्त संसदीय समिति बनाई जाए। इन समितियों की नियमित बैठक हो और इन बैठकों में सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विषय के विशेषज्ञों की राय सुनें और वस्तुनिष्ठ तरीके से अपनी राय बनाएं।

उल्लेखनीय है कि इन संसदीय समितियों का काम कोई फैसला करना नहीं होता है, बल्कि जिन मसलों पर संसद में ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हो सकती, उन विषयों को या विधेयकों को संसदीय समितियों के पास भेजा जाता है, जहां विषय के विशेषज्ञ उस मसले के बारे में समझाते हैं। उसके हर पहलू पर विचार किया जाता है। फिर उस आधार पर समिति एक रिपोर्ट तैयार करके संसद को देती है। अंतिम फैसला संसद को ही करना होता है। लेकिन मौजूदा सरकार ने इन संसदीय समितियों को लगभग अप्रासंगिक या गैरजरूरी बना दिया है। अव्वल तो लोकसभा और राज्यसभा सचिवालय की ओर से किसी न किसी बहाने समिति की बैठक ही नहीं होने दी जाती है। अगर किसी समिति की बैठक होती भी हैं तो उसके सदस्य पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर विचार नहीं करते हैं। सत्तापक्ष अपने बहुमत के दम पर संसद की स्थायी समितियों के काम में बाधा डालता है और रिपोर्ट मंजूर नहीं होने देता है।

पिछले साल यानी 2020 में संसद मे पेश किया गया कोई भी विधेयक संबंधित मंत्रालय की संसदीय समिति को नहीं भेजा गया था। इस साल भी अभी तक यही स्थिति है। इस बार अनोखी स्थिति यह भी है कि शोर-शराबे के बीच सरकार औसतन सात मिनट के भीतर एक विधेयक पारित करा रही है। विपक्ष पेगासस जासूसी मामले और केंद्रीय कृषि कानूनों पर बहस की मांग कर रहा है, जिससे हंगामे की स्थिति पैदा हो रही है। सरकार इस 'संसदीय आपदा’ को अपने लिए अवसर मानते हुए बिना बहस कराए धडल्ले से एक के बाद एक विधेयक पारित कराती जा रही है। वास्तव में संसद का, लोकतांत्रिक परंपराओं का जनता का अपमान इस तरह से विधेयक पारित कराने से हो रहा है, लेकिन प्रधानमंत्री विपक्ष पर तोहमत जड रहे हैं। इससे जाहिर होता है कि सरकार संसद को अपने रसोईघर की तरह इस्तेमाल कर रही है, जहां वही पक रहा है जो सरकार चाहती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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