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राजकोषीय घाटे से ज्यादा ज़रूरी है आम लोगों की ज़िंदगी की बेहतरी!

उद्योगपतियों को सशक्त कर विकास की नीति की बजाए लोगों को सशक्त कर विकास की नीति की तरफ बढ़ना होगा। राजकोषीय घाटे से जुड़ी बाध्यताओं पर गौर करने की बजाय लोगों के जीवन पर गौर करना होगा।
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अक्सर आपने टीवी पर आने वाले और बड़े-बड़े बिजनेस अखबारों में कॉलम लिखने वाले पत्रकारों और विश्लेषकों से सुना होगा कि सरकार के पास पैसा नहीं है। वह करें भी तो क्या करें? और अगर सरकार राजकोषीय घाटा बढ़ाती जाएगी तो अर्थव्यवस्था अनियंत्रित हो जाएगी। अर्थव्यवस्था को नुकसान झेलना पड़ेगा।

यह राय मौजूदा अर्थव्यवस्था की दुनिया में इतनी अधिक हावी है कि कोई इसके अलावा दूसरी रायों को सुनना भी नहीं चाहता। और अगर दूसरी राय आती है तो कई तरह के लेबल लगाकर उसे खारिज कर दिया जाता है। जैसे यह वामपंथी है, समाजवादी है। ऐसे मॉडल फेल हो चुके हैं। इनकी कोई जरूरत नहीं?

अगर मोटे तौर पर समझें तो राजकोषीय घाटा यानी सरकार अपनी कमाई से ज्यादा जब खर्च का प्रावधान करती है तो खर्च और कमाई के बीच का अंतर राजकोषीय घाटा होता है। कहने का मतलब यह है कि अगर सरकार का राजस्व यानी कमाई 100 रुपए की है और सरकार ने ₹110 खर्च करने का प्रावधान कर दिया। तो ₹10 का अंतर राजकोषीय घाटा होता है।

साल 1990 के बाद के बाद पनपे आर्थिक विश्लेषकों का इस पर इतना अधिक जोर रहा कि साल 2003 में राजकोषीय घाटे से जुड़ा हुआ कानून बना। इसी के तहत यह लक्ष्य रखा गया है कि धीरे-धीरे राजकोषीय घाटे को कुल जीडीपी के 3 फ़ीसदी से कम पर ही रखना है। तब से सरकार लोगों की जरूरतों की बजाए केवल राजकोषीय घाटे के आंकड़े को लेकर चिंतित रहती है। सारा फोकस यही रहता है कि बजट में खर्च का प्रावधान यह सोचकर नहीं करना है कि लोगों की जरूरत क्या है? अर्थव्यवस्था की परिस्थिति क्या है? बल्कि केवल इसे देखना है कि राजकोषीय घाटा बहुत अधिक न हो. तो चलिए बजट के मद्देनजर राजकोषीय घाटे से जुड़े भ्रम को समझते हैं। यह समझते हैं कि क्यों भारत जैसे विकासशील और गरीब मुल्क के लिए राजकोषीय घाटा पर बहुत अधिक चिंतित होना लोगों की जरूरत से मुंह फेर लेने जैसा है?

सबसे पहले अर्थव्यवस्था को लेकर एक समानीय सी बात जिसकी अनदेखी हर जगह कर दी जाती है। अर्थव्यवस्था का मतलब पैसे का प्रबंधन नहीं होता है। यह सोच हमें गलत निष्कर्षों तक ले जाती है। अर्थव्यवस्था का मतलब होता है संसाधनों का इस तरीके से बंटवारा कि सब लोग गरिमा पूर्ण जीवन जी पाएं। और इसके लिए पैसा एक तरह के औजार का काम करता है। सामान और सेवाओं के लेनदेन का जरिया होता है।

इस आधार पर अगर भारतीय अर्थव्यवस्था को देखा जाए। तो भारतीय अर्थव्यवस्था में आर्थिक विषमता की खाई साल 1990 के बाद से लेकर अब तक खतरनाक रूप लेते आई है।

मार्सेलस इन्वेस्टमेंट के सौरभ मुखर्जी और हर्ष शाह का विश्लेषण बताता है कि भारत की 20 बड़ी कंपनियों के पास भारत की अर्थव्यवस्था में होने वाले कुल मुनाफे का 70 फ़ीसदी हिस्सा है। साल 1990 में मुनाफे में हिस्सेदारी का यह आंकड़ा महज 14 फ़ीसदी हुआ करता था। यानी 1990 के बाद बड़ी कंपनियों ने संसाधन के हिसाब से उनका हक खूब मारा है जिनकी संसाधनों तक पहुंच हमेशा से कम ही रही है। ऑक्सफैम की मौजूदा रिपोर्ट बताती है कि भारत के 100 अरबपतियों की संपत्ति का बंटवारा अगर  सबसे गरीब तकरीबन 14 करोड लोगों में कर दिया जाए तो हर व्यक्ति को ₹90 हजार मिल सकते हैं। कहने का मतलब यह है कि संसाधनों पर बहुत बड़ी भारतीय आबादी की पकड़ बहुत कमजोर है। या यह कह लीजिए कि बहुत बड़ी आबादी दूसरों के मुकाबले बहुत ही कमतर जिंदगी जीने के लिए मजबूर है। यह सब तब से होता आ रहा है जब से जीडीपी की उछाल पर सरकारों ने खूब वाहवाही लूटी है। हालांकि पिछले साल महामारी की वजह से लचर में पड़ी अर्थव्यवस्था और अधिक गड्ढे में गिर चुकी है।

ऐसे में क्या किया जा सकता है? केवल अर्थव्यवस्था को उबारने को लेकर अब तक चली आ रही बहस की तरफ से सोचें तो यह कहा जा सकता है कि राजकोषीय घाटे पर लगी सीमा में कुछ छूट देना चाहिए। यानी राजकोषीय घाटा 3 फ़ीसदी से कम रखने का कानून है तो इसे बढ़ाकर अधिक से अधिक 6 से 7 फ़ीसदी तक ले जाया जाए। तकरीबन यही बात अधिकांश आर्थिक विश्लेषक कह रहे हैं।


लेकिन अगर अर्थव्यवस्था उबारने की बजाए आम जन जीवन की जिंदगी के बेहतरी के बारे में सोचा जाए तो दूसरे ढंग से सोचा जा सकता है। उस ढंग से सोचा जा सकता है जिसमें राजकोषीय घाटे की कोई परवाह नहीं की जाती है। परवाह इस बात की जाती है कि आम लोगों का जीवन सुधरे। उनकी परचेसिंग पावर कैपेसिटी बड़े। यानी मांग बढ़े और अर्थव्यवस्था पटरी पर चली आए। उसका विकास हो।

इसका तरीका है कि जिन लोगों के पास रोजगार नहीं है, उन्हें रोजगार दिया जाए। जिन्हें अपने काम की कम कीमत मिल रही है। उन्हें उनके काम की वाजिब कीमत दी जाए। क्योंकि आर्थिक विषमता से यह जाहिर है कि उत्पादन हो रहा है। लेकिन उत्पादन से मिलने वाला लाभ केवल कुछ खास वर्ग तक सीमित है। उसका सही तरीके से बंटवारा नहीं हो रहा है।

जैसे किसानों की मांग ही ले लीजिए। वह अपनी उपज की वाजिब कीमत के लिए एमएसपी की लीगल गारंटी मांग रहे हैं। जो उन्हें नहीं मिलती है। किसान उत्पादन कर रहे हैं। लोग उपभोग कर रहे हैं। लेकिन किसानों को उनकी उपज की वाजिब कीमत नहीं मिल रही है। यह वाजिब कीमत किसानों को दी जा सकती है। यह मिलेगी तो अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ेगी। अर्थव्यवस्था पटरी पर आने की तरफ़ बढ़ेगी। ऐसे ही बहुत सारे उपाय हैं।

अब सवाल वही आता है कि ऐसा करने से राजकोषीय घाटा बहुत बढ़ जाएगा।

लेकिन यह समझने वाली बात है कि हमारे देश में यह चिंतन पद्धति रही है कि पूंजी पतियों को खूब पैसा देकर ही विकास होगा। पूंजीपतियों के पास पैसा होगा तो उद्योग धंधे लगेंगे और लोगों को रोजगार मिलेगा। लेकिन यही नहीं हो रहा है। रोजगार बीच में ही खत्म हो जा रहा है। अर्थव्यवस्था को लेकर जॉब्लेस ग्रोथ इसे ही कहा जाता है। यही होते चला जा रहा है।

एक अनुमान है कि मौजूदा समय में भारत की अर्थव्यवस्था में 95 लाख रुपए का कुल कर्जा तैर रहा है। जब यह कर्जा अगले 5 साल में 2 गुना हो जाएगा। तभी जाकर भारत की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन यानी 50 खरब की अर्थव्यवस्था बन पाएगी।

इसी नजरिए के आधार पर बैंकों द्वारा बड़े सस्ते दर पर उद्योग पतियों को खूब पैसा दिया जाता है। अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक ने बैंकों की चरमराती स्थिति पर न्यूज़क्लिक पर एक लेख लिखा है। उस लेख में वह बताते हैं कि किस तरह से उद्योगपतियों को सस्ते दर में लोन देने की नीति बनाई जाती है। आरबीआई को भी पता होता है कि पैसा डूबेगा लेकिन फिर भी पैसा बैंकों के जरिए उद्योगपतियों को मिलता है।

प्रभात पटनायक ऐसा करने के पीछे यही कारण देते हैं कि हर तरह की सरकारी हस्तक्षेप से मुक्त होती अर्थव्यवस्थाओं की यही मंशा होती है कि वे लोगों को सशक्त करने की वजह उद्योगपतियों को सशक्त करें। आम लोगों को रोजगार देकर और कई तरह की बुनियादी सुविधाएं देकर अर्थव्यवस्था में मांग पैदा करने की बजाय बोझ  निजी उद्योग पतियों पर डाल दें। इसीलिए देश की राजकोषीय नीति बनाई जाती है। जिसके तहत यह नियम बनता है कि सरकार कुल जीडीपी के 3 फ़ीसदी से अधिक के घाटे से आगे नहीं बढ़ सकती है।

अर्थशास्त्री प्रभात पटनायक एक उदाहरण के तौर पर समझाते हैं कि मान लीजिए कि हम एक ऐसे देश में रह रहे होते जहां नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के बजाए निवेश पर कड़े सरकारी नियंत्रण वाली व्यवस्था होती। तब मांग को पूरा करने के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट निजी उद्यमियों की जगह सरकार के जरिए पूरे किए जाते। सरकार इनके लिए राजकोषीय घाटे जैसी बाध्यकारी नियमों पर ज्यादा गौर नहीं करती। इसके लिए पैसे की पूर्ति बैंको द्वारा सरकार को लोन देकर की जाती। उस स्थिति में बैंकों के बैलेंस शीट में सरकारी लोन संपत्ति की तरह होता। लेकिन इससे बैंकों की संपत्ति की क्वालिटी नहीं गिरती, क्योंकि सरकार द्वारा लिए गए लोन में कोई ख़तरा नहीं होता, उनके पास कई तरह का विकल्प होता है। वह धनिकों पर अधिक कर लगाकर इसे वसूल सकते हैं। इस तरह से बैंकों की स्थिति खराब नहीं होती।

चूंकि सरकार द्वारा खर्च किया जाता इसलिए मुनाफे कमाने की लालच कम होती है। जो लोग भी सरकार के अंदर काम करते, उन्हें अच्छी सैलरी मिलती। यह एक ऐसा सिस्टम होता जहां पर बैंकों की बर्बादी कम होती। आम लोग सशक्त होते।

लेकिन इसके लिए नजरिया बदलना पड़ेगा। उद्योगपतियों को सशक्त कर विकास की नीति की बजाए लोगों को सशक्त कर विकास की नीति की तरफ बढ़ना होगा। राजकोषीय घाटे से जुड़ी बाध्यताओं पर गौर करने की बजाय लोगों के जीवन पर गौर करना होगा। और इसके मुताबिक बजट से जुड़ी योजनाएं बनानी होंगी।

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