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मुकुल रॉय की वापसी टीएमसी और बीजेपी की आइडियोलॉजी पर भी सवाल खड़े करती है

मुकुल की ये मजबूरियां ही हैं कि वो न बीजेपी से वफ़ा कर पाए और न ही टीएमसी से। वैसे ये बीजेपी और टीएमसी की भी मजबूरियां ही हैं जो एक ने दाग़ी नेता को तुरंत भर्ती कर लिया तो दूसरे ने मौका मिलते ही झट से घर वापसी करवा ली।
मुकुल रॉय
Image courtesy : Newslaundry

“कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ कोई बेवफ़ा नहीं होता”

बशीर बद्र का ये शेर हाल ही में दल बदल कर बीजेपी से टीएमसी में आए मुकुल रॉय पर बेहद सटीक बैठता है। मुकुल की ये मजबूरियां ही हैं कि वो न बीजेपी से वफ़ा कर पाए और न ही टीएमसी से। वैसे ये बीजेपी और टीएमसी की भी मजबूरियां ही हैं जो एक ने दागी नेता को तुरंत भर्ती कर लिया तो दूसरे ने मौका मिलते ही झट से घर वापसी करवा ली। ये मुकुल के साथ ही साथ दोनों पार्टियों की आइडियोलॉजी पर भी सवाल खड़े करती है। वैसे राजनीति में कुछ भी स्थिर नहीं होता लेकिन बंगाल में जारी इस उठापठक को देख कर इतना जरूर कहा जा रहा है कि यहां चुनाव के बाद भी ‘खेला’ जारी है।

मुकुल रॉय टीएमसी छोड़कर बीजेपी में जाने वाले पहले नेता थे। उनके बाद अर्जुन सिंह, सब्यसाची दत्त, शोभन चटर्जी, शुभेंदु अधिकारी और राजीव बनर्जी जैसे कई नेता बीजेपी में शामिल हुए थे। अब मुकुल की घर वापसी ने बीजेपी को पश्चिम बंगाल में भारी झटका दिया है। राजनीति के हलकों में यह अटकलें तेज़ हो गईं हैं कि क्या एक बार फिर मुकुल से ही घर वापसी मामले की पुनरावृत्ति होगी? अभी मुकुल आए हैं, क्या उनके पीछे और भी आएंगे?

कहे अनकहे ममता बनर्जी ने इस बात को माना है कि मुकुल रॉय ने पांच साल से भी कम समय में बीजेपी को बंगाल में एक ताकतवर विरोधी के रूप में खड़ा किया, जिसका कभी राज्य में कुछ खास नाम भी नहीं था। उन्होंने ममता के लिए राजनीतिक दहशत पैदा की। चूंकि बीजेपी ने शुभेंदु अधिकारी को विपक्ष का नेता बनाकर रॉय का कद कम कर दिया, इसलिए ममता बनर्जी ने रॉय के गुस्से का इस्तेमाल कर अपने विरोधी के सबसे खास तुरुप के इक्के को दोबारा अपने खेमे में मिला लिया।

भले ही टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी मुकुल रॉय की घर वापसी पर उन्हें टीएमसी परिवार के सदस्य बताकर कोई मतभेद न होने की बात कह रहीं हों लेकिन ये ममता और मकुल के मतभेद ही थे जिसके चलते नवंबर, 2017 में मुकुल बीजेपी में शामिल हुए थे। अब ममता ने मुकुल की वापसी पर "ओल्ड इज़ ऑलवेज़ गोल्ड" की जो बात कही उसके भी कई राजनीतिक मायने हैं। राज्य में कोरोना महामारी की परिस्थिति सुधरने के बाद अब कोलकाता नगर निगम समेत 100 से ज़्यादा नगर निकायों के चुनाव होने हैं। ऐसे में मुकुल की वापसी टीएमसी के लिए बेहद अहम है। उनको संगठन की धुरी माना जाता है। ये उनकी दक्षता का ही कमाल है कि उन्होंने बंगाल में महज तीन सीटों पर सिमटी बीजेपी को 77 सीटों का स्वाद चखा दिया। यही कारण है कि मुकुल को 'बंगाल की राजनीति का चाणक्य' भी कहा जाता है। अब मुकुल रॉय का यूं पाला बदलना बीजेपी के लिए 2024 के लोकसभा चुनावों में भारी मुश्किलें पैदा कर सकता है।

ममता बनर्जी का कहना है कि बीजेपी सीबीआई और ईडी का डर दिखा कर मुकुल को अपने साथ ले गई थी। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या अब मुकुल का सीबीआई और ईडी का डर खत्म हो गया है। क्या अब वे आश्वस्त हैं कि उन पर नारदा स्टिंग मामले में कोई कार्रवाई नहीं होगी। इसका जवाब फिलहाल शायद किसी के पास नहीं है लेकिन मुकुल की नाराज़गी और महत्वकांक्षाओं का जवाब सभी के पास जरूर है।

राजनीति के जानकार मानते हैं कि मुकुल को बीजेपी में कभी वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हक़दार थे। विपक्ष के नेता के तौर पर शुभेंदु अधिकारी को बिठा दिया गया। जिन उम्मीदों के साथ वे बीजेपी में शामिल हुए थे वो पूरी नहीं हुईं। प्रदेश नेतृत्व ने उनको ख़ास तवज्जो नहीं दी। ऊपर से उनकी पत्नी कृष्णा जो बीते महीने से ही कोलकाता के एक निजी अस्पताल में नाज़ुक  हालात में भर्ती हैं, उनकी प्रदेश या केंद्र के किसी बीजेपी नेता ने ख़ैर-ख़बर नहीं ली। इससे मुकुल काफ़ी नाराज़ बताए जाते जा रहे थे। जिसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से उनको फ़ोन भी किया गया था। लेकिन ममता बनर्जी के भतीजे और टीएमसी सांसद अभिषेक बनर्जी मुकुल रॉय की कोरोना संक्रमित पत्नी को देखने अस्पताल पहुँचे थे तो उनके घर वापसी के कयासों को बल मिल गया था।

मुकुल रॉय के साथ ही उनके बेटे शुभ्रांशु ने भी टीएमसी ज्वाइन कर ली। शुभ्रांशु लगातार बाग़ी तेवर अपनाए हुए थे। पहले उन्होंने अपने एक ट्वीट में पार्टी को टीएमसी की आलोचना करने की बजाय आत्ममंथन की सलाह दी थी और उसके बाद पत्रकारों से बातचीत में ममता बनर्जी और अभिषेक की भी सराहना की थी।

गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव 2021 के बाद मुकुल लगभग राजनीति से अलग ही दिखे। विधायक के तौर पर शपथ लेने के बाद उनको सार्वजनिक तौर पर किसी कार्यक्रम में नहीं देखा गया। कहा जा रहा है कि उन्होंने विधानसभा चुनाव भी काफ़ी अनिच्छा से ही लड़ा था। वो तो जीत गए, लेकिन उनके बेटे बीजपुर सीट से हार गए। यह मुकुल के लिए एक झटका ही था।

बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष ने मुकुल की घर वापसी पर कहा कि कोई भी किसी पार्टी में जाने के लिए स्वतंत्र है। उनके आने से तो कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ था। अब देखते हैं जाने से क्या नुक़सान होगा। वैसे बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष और मुकुल रॉय के बीच पहले से ही छत्तीस का आंकड़ा रहा है। लेकिन ये बात किसी से छिपी नहीं है कि मुकुल रॉय की वजह से ही बीजेपी को ख़ासकर वर्ष 2018 के पंचायत और 2019 के लोकसभा चुनावों में काफ़ी फ़ायदा मिला था। कहा जाता है कि सभी बागियों को मुकुल ही बीजेपी में लेकर आए थे, उन्होंने प्रदेश में बीजेपी को संगठित किया, सभी विधानसभा सीटों पर उम्मीदवार दिए और राज्य में बीजेपी की जमीन तैयार करने के लिए जी-जान एक कर दिया। अब जब बीजेपी का साथ उन्होंने छोड़ दिया है तो इसका खामियाजा तो जरूर पार्टी को उठाना पड़ेगा। अब हालांकि इसकी भी बहुत उम्मीद नहीं है की उन्हें टीएमसी में वही जगह और सम्मान मिले जो पहले कभी हुआ करता था।

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