यह आहट '74 जैसे छात्र-युवा आंदोलन की है!
17 सितम्बर प्रधानमंत्री मोदी का जन्मदिन था। वे 70 साल के हो गए। भाजपा ने इस अवसर पर 14 सितम्बर से 20 सितम्बर तक सेवा सप्ताह के रूप में मनाने का आह्वान किया था। उसका क्या हुआ, यह तो कहीं सार्वजनिक चर्चा में नहीं है, हो सकता है उनके कार्यालयों में कुछ हो रहा हो।
पर इसी अवसर पर बेरोजगारी के महासंकट से जूझ रहे छात्र-युवाओं ने राष्ट्रीय बेरोजगारी दिवस का जो आह्वान किया था, वह #NationalUnemploymentDay और #राष्ट्रीयबेरोजगारीदिवस जरूर पूरे दिन सोशल मीडिया में टॉप ट्रेंड करता रहा, यह 46 लाख बार शेयर किया गया!
छात्र-नौजवान इलाहाबाद से लेकर अमृतसर तक, कोल्हापुर से लेकर भोजपुर-समस्तीपुर तक सड़क पर उतरे।
पूरे देश में जगह जगह छात्रों-नौजवानों पर लाठीचार्ज और गिरफ्तारी की खबरें हैं। लखनऊ में सारे नियम-कानून, मर्यादा को तार-तार करते विश्वविद्यालय की छात्रा को बेहद आपत्तिजनक ढंग से दबोचे मर्द पुलिस वाले कि तस्वीर वायरल हो रही है।
शाम को BHU से लेकर आरा, सिवान, पटना पूरे बिहार से मशाल जुलूस के वीडियो आते रहे।
"छात्र-युवा की जली मशाल, भागे तानाशाह और दलाल!"
ट्विटर पर मोदीजी के जन्मदिन के शुभकामना संदेशों को बहुत पीछे छोड़ते हुए नौजवानों का ट्विटर स्टॉर्म #17Sept17hrs17minutes पर छाया रहा।
सुनते हैं, ट्विटर पर कुछ खेल करने की कोशिश हुई लेकिन वह युवाओं के तूफान के आगे टिक न सकी।
प्रधानमंत्री का चर्चित जुमला उधार लिया जाय, तो यह सचमुच 73 साल में आज़ाद भारत में पहली बार हो रहा है कि प्रधानमंत्री के जन्मदिन को युवापीढ़ी अपनी बेरोजगारी की पीड़ा से जोड़ रही है और प्रतिवाद दिवस के रूप में मना रही है।
यह विडंबना और मुखर हो उठती है जब हम याद करते हैं कि यह वही प्रधानमंत्री हैं, कल तक युवा पीढी जिनकी दीवानी थी। मोदी मोदी का नारा देश में ही नहीं भरतीय जहाँ भी हैं, विदेशों तक में सालों तक गूंजता रहा।
यह दरअसल सपनों के टूटने का दर्द है और इसके जिम्मेदार मोदी जी स्वयं हैं-- पहले उम्मीदें पैदा करना फिर उन्हें बेरहमी से तोड़ देना! स्वाभाविक है, जिससे जितनी अधिक उम्मीदें होती हैं, उम्मीदें पूरी न होने पर उससे उतनी ही अधिक निराशा होती हैं।
सच्चाई तो यह है कि 2014 का पूरा चुनाव ही मोदी जी ने विकास और सर्वोपरि रोजगार के सवाल पर लड़ा और जीता था, हिन्दू हृदय सम्राट की छवि ने भले ही उन्हें लाभ दिया पर वह थी पृष्ठभूमि में ही।
दरअसल, मनमोहन सिंह के कार्यकाल के उत्तरार्ध में विकास दर गिरने लगी थी। जॉबलेस ग्रोथ का पैटर्न तो पहले से ही था, गिरती विकास दर के साथ बेरोजगारी का संकट और गहराने लगा था और उसी के साथ रोजगार की तलाश में लगे युवाओं की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। जनता की नब्ज पकड़ने में माहिर मोदी जी ने नौजवानों में बढ़ते गुस्से की इस under-current को भांप लिया था और उन्होंने इसे भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
याद करिये, कैसे कैसे सपने उन्होंने रोजगारविहीन विकास के लिए मनमोहन सिंह सरकार को घेरते हुए नौजवानों को दिखाये थे, पहले प्रतिवर्ष 1 करोड़ रोजगार सृजन का वायदा हुआ, बाद में वह बढ़कर हर साल 2 करोड़ रोजगार पर पहुंच गया और चुनाव आते आते BJP के चुनाव घोषणा पत्र में रोजगार सृजन को महत्वपूर्ण प्राथमिकता घोषित कर दिया गया।
भारत को चीन की तरह दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने का सपना दिखाया गया, कि घर-घर उत्पादन होने लगेगा और चीनी माल की तरह हमारा माल भी पूरी दुनिया में छा जाएगा। गुजरात मॉडल की गढ़ी गयी छवि से उत्तर भारत के अन्य राज्यों में यह पुख्ता धारणा बनाई गई कि गुजरात मॉडल की तर्ज पर पूरा देश विकास और रोजगारमय हो जाएगा।
लोकलुभावन मेक इन इंडिया-स्टार्टअप इंडिया-स्किल इंडिया जैसी योजनाओं द्वारा भारत को रोजगार से भर देने का सपना दिखाया गया। अब इनकी चर्चा भी नहीं होती।
बारंबार अपने भाषणों में यह बताते हुए कि भारत की 65 % आबादी 35 साल से कम उम्र की है, मोदी जी ने कहा कि भारत नौजवानों का देश है, इस डेमोग्राफिक डिविडेंड का इस्तेमाल करते हुए देश को विश्वगुरु बनाने का उन्होंने सपना दिखाया।
पर आज युवाओं के वे सारे सपने धूल धूसरित हो चुके हैं। आज जब मोदी जी आत्मनिर्भर भारत का जुमला उछालते हैं, तो नौजवानों को लगता है वे उनका मजाक उड़ा रहे हैं, जब वे पकौड़ा तलने की बात करते हैं तो उन्हें लगता है कि उनके जले पर नमक छिड़का जा रहा है।
6 साल में 12 करोड़ रोजगार देने का वायदा था, पर CMIE के अनुसार 12 करोड़ रोजगार पिछले 6 महीने में चले गए थे, जिसमें 2 करोड़ वैतनिक नौकरियाँ हैं।
बेरोजगारी दर, अकल्पनीय, न भूतो न भविष्यति, आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार 9.1 % !!
आज 24 लाख सरकारी पद सरकारी नौकरियों में खाली पड़े हैं, जिन्हें समयबद्ध ढंग से भरा नहीं जा रहा, 7-7 साल तक लटकाया जा रहा है और ढेर सारे पदों को समाप्त किया जा रहा है। नए पदों के सृजन पर रोक लगी हुई है। रेल समेत तमाम सरकारी क्षेत्र का निजीकरण किया जा रहा है , जिसका परिणाम बड़े पैमाने पर नौकरियों का खात्मा होगा। चारों ओर सरकारी नौकरियों में भी आउटसोर्सिंग, ठेका का बोलबाला है।
तात्कालिक तौर पर जिस एक बात ने युवाओं को उकसाने में आग में घी का काम किया है, वह यह है कि अब गुजरात मॉडल पर UP में भी सरकारी नौकरी मिलने पर शुरू के 5 साल संविदा पर काम करना होगा, उसके बाद ही यदि शासन-प्रशासन आपसे सन्तुष्ट रहा तो आप की नौकरी पक्की होगी। इस बीच छंटनी की तलवार आपके सर पर लटकती रहेगी।
हालात बेहद खौफनाक होते जा रहे हैं, अवसादग्रस्त होते नौजवानों की आत्महत्या का आंकड़ा किसानों को पीछे छोड़ चुका है। कहा जा रहा है कि शिक्षित बेरोजगारी की दृष्टि से भारत एक Ticking टाइम बम के ऊपर बैठा हुआ है।
लेकिन अब मोदी जी ने शुतुरमुर्गी शैली अख्तियार कर ली है। अब वे रोजगार के सवाल पर, नौजवानों के सवाल पर बोलते ही नहीं, डेढ़ घण्टे के 15 अगस्त के भाषण में इतने बड़े राष्ट्रीय संकट का कोई जिक्र भी नहीं, न ही सरकार के बजट भाषण में या राष्ट्रपति के अभिभाषण में कोई चर्चा।
सबसे दुःखद यह है कि जब वे अपवादस्वरूप इस पर बोलते भी हैं तो मजाक उड़ाते हैं, तंज करते हैं, पूरे issue को trivialise करते हैं !
कभी वे पकौड़े तलने का जुमला उछाल देते हैं, तो कभी वे कहते हैं कि जिनकी दलाली मेरी सरकार ने बंद करवा दी है वे ही बेरोजगारी का सवाल उठा रहे हैं, पिछले दिनों उन्होंने विपक्षी नेताओं पर व्यंग करते हुए कहा कि मैं ऐसा कोई काम नहीं करूंगा जिससे आपकी बेरोजगारी कभी खत्म हो !
यह सब नौजवानों के साथ कितना भद्दा मजाक है ?
क्या बेरोजगार नौजवान विपक्ष के नेताओं के रोजगार के लिए लाठी खा रहे और लहूलुहान हो रहे हैं। क्या बेरोजगारी का सवाल कोई बनावटी सवाल है जिसे केवल विपक्ष के नेता उठा रहे हैं? यह दरअसल बेरोजगारी संकट की गम्भीरता को dilute करने और diversion की उनकी शातिर style है।
पर अब ये सब नुस्खे पुराने पड़ चुके हैं। छात्र-युवा अब इस सब से झांसे में आने वाले नहीं हैं। नौजवान अब मोदीजी से ही सीखकर उन्हें सबक सिखाने का मन बना चुके हैं।
बेहतर होता प्रधानमंत्री जी आज अपने जीवन के इस महत्वपूर्ण पड़ाव पर जरा ठहर कर अतीत के पन्ने पलटते, अपने वायदे याद करते और युवाओं को इस नाउम्मीदी और मोहभंग से निकालने हेतु सबके लिए रोजगार सृजन की दिशा में कुछ ठोस प्रयास करते।
पर इसके लिए उन्हें बड़े नीतिगत बदलाव करने होंगे, अम्बानी, अडानी समेत अपने चहेते कारपोरेट घरानों और वित्तीय महाप्रभुओं के मोहपाश से निकलना होगा !
क्या वे इसका साहस जुटा पाएंगे?
वरना हालात 74 के छात्र-युवा आंदोलन जैसे बनते दिख रहे हैं जिसने अंततः इंदिरा गांधी की तानाशाही का अंत किया था।
यह तय है कि मोदी जी के कार्यकाल के बचे अगले साढ़े तीन साल नौजवान अब उनको चैन से नहीं बैठने देंगे और सबके लिए रोजगार का नारा संसद से सड़क तक गूंजता रहेगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।