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सार्वजनिक शिक्षा को कमज़ोर करेगी नई शिक्षा नीति-2020

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से निर्देशित सरकार की यह शिक्षा नीति सरकारी शिक्षा तंत्र का विस्तार करने की बजाय सिकुड़ने की व्यवस्था करती है। दरअसल यह एक ख़तरनाक प्रस्ताव है देश की सार्वजनिक शिक्षा तंत्र को कमज़ोर करने की तरफ निर्णायक कदम है। यह हमारी सरकारों की शिक्षा के प्रति समझ भी काफी स्पष्ट करती है।
नई शिक्षा नीति

विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में (जहाँ सबसे ज्यादा युवा रहते है) मोदी सरकार के केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नई शिक्षा नीति का अनुमोदन संसद में बिना किसी चर्चा के कर दिया है। इतने विशाल और विविधता वाले देश जो अपने मज़बूत लोकतंत्र का दम भरता है वहां इतना महत्वपूर्ण निर्णय संसद में न होकर केंद्रीय मंत्रिमंडल में होना लोकतंत्र की हत्या नहीं तो क्या है? 

सवाल उठना लाज़मी है कि इस समय जब पूरे देश का ध्यान कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने, बदहाल अर्थव्यवस्था को बचाने और बेरोजगारी की विकराल समस्या से पार पाने की आशा अपनी सरकार से कर रहा है, तब ऐसी क्या आफत आ गई कि इतने महत्वपूर्ण निर्णय के लिए सरकार संसद के सत्र की प्रतीक्षा तक नहीं कर पाई। हालाँकि पिछले 6 वर्षो से नई शिक्षा नीति (NEP: New education policy) का मसला सरकार के पाले में ही अटका पड़ा था और सरकार ने सामान्य स्तिथियों में भी NEP के प्रस्ताव पर संसद में चर्चा करवाने की कोई तत्परता नहीं दिखाई। इससे ही पता चलता है कि सरकार की असल मंशा क्या है। छात्रों के लिए इस शिक्षा नीति का पहला सबक है कि लोकतंत्र को कमजोर कैसे करना है और कैसे एक लोकतान्त्रिक व्यवस्था में तानाशाहीपूर्ण निर्णय लागू करने हैं।

यह बात तो माननी पड़ेगी कि NEP का दस्तावेज एक अच्छा दस्तावेज है जिसमें से अधिकतर ऐसे शब्द निकाल दिए गए हैं जिन पर पिछले दस्तावेजों में आलोचना हो रही थी। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि दस्तावेज की मूल नीति में कोई बदलाव सरकार ने स्वीकार किया है बल्कि बड़ी चतुराई व कुशलता से केवल भाषा में बदलाव किये हैं। कुछ अच्छी चर्चाए हैं व चिंताए भी जताई गई है लेकिन उनके समाधान के लिए नीतिगत प्रस्ताव नहीं है। मसलन एक वाजिब चिंता जताई गई है कि उच्च शिक्षा में प्रवेश दर बढ़ाई जानी चाहिए, विशेषतौर पर जब भारत युवाओं का देश है, लेकिन इसके लिए नए संस्थान खोलने, नई जगह पर संस्था खोलने (सार्वजनिक) का कोई प्रस्ताव नहीं, है उल्टा कहा गया है कि उच्च शिक्षण संस्थाओं में छात्रों की कम से कम संख्या 3000 होनी चाहिए, मतलब बहुत से संस्थान बन्द हो जाएगें।

ऐसी ही स्थिति में स्कूली शिक्षा में भी है, एक तरफ चिंता की गई है कि करोड़ों छात्र ड्राप आउट (drop out)  के चलते स्कूलों से बाहर है, वही प्रावधान है कि छोटे स्कूल जिसमें छात्रों की संख्या कम है उनको बंद कर  दिया जाए।

नई शिक्षा नीति 2020 का दस्तावेज यह स्वीकार करता है कि वर्ष 2017-18 में एनएसएसओ के 75वें राउंड हाउसहोल्ड सर्वे के अनुसार, 6 से 17 वर्ष के बीच की उम्र के स्कूल न जाने वाले बच्चों की संख्या 3.22 करोड है। इसका मुख्य कारण है ड्राप आउट।

इसी दस्तावेज के अनुसार, “कक्षा छठी  से आठवीं का जीईआर 90.9 प्रतिशत है, जबकि कक्षा, 9-10 और 11-12 के लिए यह क्रमश केवल 79.3% और 56.5% है। यह आंकडे यह दर्शाते है कि किस तरह कक्षा 5 और विशेष रूप से कक्षा 8 के बाद नामांकित छात्रों का एक महत्वपूर्ण अनुपात शिक्षा प्रणाली से बाहर हो जाता है।” बच्चे दाखिला तो ले लेते हैं परन्तु कई वजहों से बीच में ही स्कूल छोड़ देते हैं। इनकी उनकी सामाजिक आर्थिक पृष्टभूमि जो अलग-अलग तरह से उनकी शिक्षा में भी बाधा खड़ी करती हैं। इसके अलावा ऐसे कई क्षेत्र है जहां स्कूल न होने या शिक्षा के लिए प्रेरणा न होने के कारण बच्चे स्कूल छोड़ने पर मज़बूर हो जाते हैं।

लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि मानो सरकार सच्चाई स्वीकार करने को तैयार ही नहीं है बल्कि बड़े ही सुन्दर और लुभावने परन्तु खोखले तर्क प्रस्तुत करती नजर आती है। इन करोड़ों छात्रों को सार्वजनिक स्कूलों में लाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता हैं जरूरत है ज्यादा विद्यालय खोलने की और विद्यालयों को मज़बूत करने की। लेकिन NEP तो इसके उल्टा ही प्रस्ताव देती है और कम छात्रों वाले स्कूलों को विभिन्न कारण सुझाकर बंद करने या मर्ज करने का प्रावधान करती है।

मानव संसाधन मंत्रालय की साइट पर उपलब्ध नई शिक्षा नीति के दस्तावेज के बिदु 7.2 में कहा गया है कि, “इन कम संख्या वाले स्कूलों ले चलते शिक्षकों के नियोजन के साथ-साथ महत्वपूर्ण भौतिक संसाधनों के उपलब्धता की दृष्टि से अच्छे स्कूलों का संचालन जटिल होने के साथ-साथ व्यवाहरिक नहीं है।” हालांकि युक्तिकरण की आड़ में पहले ही भारत में लाखों स्कूल बंद करने की कवायद चल रही हैं। भारत में 28% प्राथमिक विद्यालय ऐसे है जहां छात्रों की संख्या 30 से कम है तथा ऊपर प्राइमरी विद्यालयों ये ऐसे विद्यालय की संख्या 14.8 प्रतिशत हैं। यह स्थिति चिंता पैदा करती है कि भारत में छात्रों की संख्या बढ़ने की बावजूद सरकारी स्कूलों में हालात ऐसे क्यों है, कमिया कहां है और कैसे दुरूस्त की जा सकती है परन्तु बड़ी ही सुगमता से इस पूरे प्रश्न से ही बचा गया है। इन कारणों पर चर्चा करने के मायने ही है सरकारी शिक्षा को ठीक करने की ओर पहला कदम बढ़ाना। परन्तु बाजारवाद के जमाने में इस ओर कदम नहीं उठते।

उच्च शिक्षा में कमोबेश स्थिति और भी निराशाजनक हैं जहां जी.ई.आर ही केवल 25 प्रतिशत से कम हैं। मायने यह हैं कि हमारे नौजवानों का केवल एक चौथाई हिस्सा ही उच्च शिक्षा में प्रवेश ले पा रहा है और 100 में से 75 नौजवानों के लिए उच्च शिक्षण संस्थाओं के दरवाज़े अभी नहीं खुलते। इस समस्या को नई शिक्षा नीति स्वीकार तो करती है परन्तु समाधान सुझाने के बजाय जो प्रावधान प्रस्तुत करता है, वह समस्या को और भी गंभीर बनाते हैं।             

नई शिक्षा नीति वर्ष 2035 तक उच्च शिक्षा में जीईआर को 50% पहुचाने का लक्ष्य निर्धारित कर रही है वही बल दिया गया है कि उच्च शिक्षा के क्षेत्र में छोटे संस्थान प्रभावी नहीं है। सभी उच्च शिक्षण संस्थानों में छात्रों की संख्या औसतन 3000 करने का लक्ष्य रखा गया है। दस्तावेज में उच्च शिक्षा के भाग 10.1 में कहा गया है कि ‘उच्चतर शिक्षा के बारे में इस नीति का मुख्य जोर उच्चतर शिक्षा संस्थानों को बडे एवं बह-विषयक विश्विद्यालयों, कॉलेजों और एचईआई कलस्टरों / नॉलेज हबों में स्थानांतररत करके उच्चतर शिक्षा के विखंडन को समाप्त करना है।

जिसमे में प्रत्येक का लक्ष्य 3,000 या उससे भी अधिक छात्रों का उत्थान करना होगा”। कहा गया है कि भारत में उच्च शिक्षण संस्थानों की संख्या कम की जाएगी परन्तु इन संस्थानों में छात्रों की संख्या बढ़ाई जाएगी जिसका उच्च शिक्षा में उच्च प्रवेश का लक्ष्य हासिल किया जाएगा। ऐसा संसाधनों में बेहतर इस्तेमाल करने के नाम पर किया जाएगा। यह प्रस्ताव हमारे देश की भौगोलिक, सामाजिक व आर्थिक पृष्ठभूमि से कोसों दूर हैं। जरूरत है ग्रामीण व दुर्गम क्षेत्रों में नए उच्च शिक्षण संस्थान खोलने की ताकि इन क्षेत्रों में छात्रों को भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने का मौका मिले। इन क्षेत्रों में उपस्थित संस्थानों को मजबूत किया जाए। परन्तु एनईपी ठीक इसके विपरीत काम करती नज़र आती है। उसके लागू होने के बाद उच्च शिक्षण संस्थान बड़े शहरों तक सीमित हो जाएगें।

नवउदारवादी आर्थिक नीतियों से निर्देशित सरकार की यह शिक्षा नीति सरकारी शिक्षा तंत्र का विस्तार करने की बजाय सिकुड़ने की व्यवस्था करती हैं। संसाधनों के बेहतर उपयोग के नाम अथवा बड़े संस्थानों में छात्रों के लिए बेहतर शिक्षण वातावरण की ढाल के पीछे यह शिक्षण संस्थानों (स्कूली व उच्च) को बंद करने में अभी तक के प्रयासों को एक नीति के तौर पर स्थापित करती है। दरअसल यह एक ख़तरनाक प्रस्ताव है देश की सार्वजनिक शिक्षा तंत्र को कमज़ोर करने की तरफ निर्णायक कदम हैं। यह हमारी सरकारों की शिक्षा के प्रति समझ भी काफी स्पष्ट करती है।

यह सर्वविदित है कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के इस दौर में कल्याणकारी राज्य की धारणा कमजोर हुई है। भाजपा सरकार तो इन नीतियों को बड़ी बेशर्मी से लागू कर रही है। वो नागरिकों के जीवन को बाजार के हवाले छोड़ रही है। तमाम कमजोरियों के बावजूद भारत में सरकारी शिक्षा की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हालांकि इसका बड़े स्तर पर निजीकरण व व्यापारीकरण पहले से हो रखा है। लेकिन अभी तक सरकारों की यही नीति थी कि निजी शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा दिया जाए परन्तु सरकारी शिक्षा तंत्र को भी जारी रखा जाएं। इसी नीति के चलते पिछले दशक में निजी शिक्षण संस्थानों की तुलना में सरकारी शिक्षा संस्थानों की संख्या में बहुत कम वृद्धि हुई है। परन्तु नई शिक्षा नीति एक कदम आगे जाकर सरकारी शिक्षण संस्थाओं की संख्या को कम करने का प्रावधान देती है। इसका सीधा सा मतलब है कि इन संस्थाओं में पढ़ाई कर रहे छात्रों की शिक्षा छूट जाएगी।

पिछले कुछ वर्षों से शिक्षा क्षेत्र में एक चलन सा बन गया है कि निजी शिक्षण संस्थाओं को बढ़ावा देने के तर्क को न्यायचोति दिखाने के लिए उनके नाम के सामने बिना मुनाफे में ये दान से चलने वाले संस्थान लिख दिया जाए। यही चलन इस शिक्षा नीति में भी प्रयोग किया है। सरकारी शिक्षण संस्थाओं की संख्या में कमी, दरअसल निजी संस्थाओं में लिए ही रास्ता सुगम करती है। आपने उच्च प्रवेश दर निर्धारित भी है, नए सरकारी संस्थाएं खोलते नहीं है। बल्कि बंद करने है तो जाहिर सी बात है कि छात्र निजी संस्थाओं में प्रवेश लेने के लिए ही बाध्य होगें बशर्ते वह इन संस्थाओं की भारी भरकम फीस अदा कर पाएं अन्यथा शिक्षा का सपना छोड़ दें।

एनईपी में इस पर पूर्ण बल दिया गया है कि निजी शिक्षा संस्थानों को बढ़ावा दिया जाए। हालांकि यह कहा गया है कि इन्हें छात्रों व अविभावकों को लूटने को दिया जाएगा जो एक छलावे से कम नहीं है क्योंकि दस्तावेज़ स्पष्ट करता है कि नीतिगत तौर पर पर निजी शिक्षण संस्थानों को बढ़ावा देने के लिए उन पर नियन्त्रण कम करना होगा व उनको फीस तय करने व बढ़ाने की खुली छूट देनी होगी ।

जैसा कि  भाजपा के तथाकथित स्वर्णिम भारत में था और भविष्य के भारत में भी होगा, नई शिक्षा नीति में भी दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित तबको के लिए शब्दों का अकाल है। देश की 80 फ़ीसदी आबादी दलित, मुस्लिम, ओबीसी, आदिवासी और अति पिछड़ा वर्ग है। उनमें से ज़्यादातर छात्र जो कक्षा एक में दाख़िला लेते हैं वो 12वीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लोकतंत्र व संविधान की मजबूरी के चलते जिक्र तो करना ही पड़ना था तो केवल संवैधानिक प्रावधानों को जारी रखने की बात दोहराई गई है। यहां तक कि पूरे दस्तावेज में सभी वंचित समुदायों के लिए केवल Socially and Economically Disadvantaged Groups ( (SEDG ) शब्द से ही काम चलाया है और हैरत भरे तरीके से दलितों, आदिवासियों और अन्य वंचित तबको और विशेष जरूरतों वाले छात्रों के लिए इसी शब्द का प्रयोग किया है।

इसी से हमारी सरकार की समावेशी शिक्षा के नज़रिए के बारे में पता चलता है। पूरे दस्तावेज में कहीं भी आरक्षण को सही से लागू करने कि मंशा नज़र नहीं आती है और इस शब्द का प्रयोग ही नहीं किया गया है। दावा किया जा रहा है कि यह एक समावेशी शिक्षा नीति है परन्तु असल में सच्चाई ठीक इसके विपरीत है। नई शिक्षा नीति में वोकेशनल कोर्स के नाम पर ग़रीब और निचले तबके के छात्रों को मुख्यधारा से अलग करने की एक कोशिश है। स्किल इंडिया मिशन के बहाने ऐसे लोगों को कम दिहाड़ी के दुकानों पर मज़दूरी करने के लिए धकेल दिया जाएगा। 

स्पष्ट तौर पर शिक्षा नीति देश के सार्वजनिक शिक्षा के बुनियादी ढांचे को पलटने का काम करेगी। बहुमत होने के बावजूद ऐसी नीति को संसद में पास करवाना आसान नहीं था इसलिए सरकार ने संसद में चर्चा न कर संकट के समय का फायदा उठाते हुए पिछले दरवाजे से लागू करवाया है। यही है मोदी जी का संकट में अवसर, अवसर जनता के लिए नहीं परन्तु जनता के खिलाफ। इससे पहले भी सरकार इसी संकट का फायदा उठाते हुए मज़दूरों के खिलाफ निर्णय लेते हुए श्रम कानूनों में बड़े फेरबदल कर चुकी है, किसानों और किसानी की कमर तोड़ने के लिए तीन अध्यादेश ला चुकी है।

इसी अवसर का फायदा उठाकर देश की जनता की सार्वजानिक सम्पति 'सार्वजनिक उपक्रमों ' की सेल लगाए हुए है;  रेल को भी बेच रही है। इस शिक्षा नीति से वंचित समुदाय के छात्रों के लिए शिक्षा का सपना साकार करना मुश्किल होगा और निजी हिस्सेदारी शिक्षा में बढ़ेगी जिसका मकसद केवल लाभ होगा। सरकार ने तो कर दिखाया अब देश के छात्रों, शिक्षा समुदाय और आम जान को तय करना  कि देश का भविष्य क्या होगा?

(लेखक अखिल भारतीय खेत मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। आप स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (SFI) के महासचिव भी रह चुके हैं।) 

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