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गर्भवती महिलाओं को लेकर बैंकों का नया नियम भेदभावपूर्ण

इंडियन बैंक ने तीन महीने या उससे अधिक समय की गर्भवती महिलाओं को नौकरी के लिए ‘‘अस्थायी रूप से अयोग्य’’ करार दिया है। देश के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है, जो ऐसे फैसलों के बाद और कम हो सकती है।
pregnant woman
'प्रतीकात्मक फ़ोटो'

दिल्ली महिला आयोग और तमाम महिला संगठनों ने एक बार फिर इंडियन बैंक के उस दिशा-निर्देश पर कड़ी आपत्ति जताई है, जिसमें बैंक ने तीन महीने या उससे अधिक समय की गर्भवती महिलाओं को नौकरी के लिए ‘‘अस्थायी रूप से अयोग्य’’ करार दिया है। दिल्ली महिला आयोग ने इंडियन बैंक को एक नोटिस जारी कर भर्ती के लिए जारी किये गए नए दिशा निर्देशों को वापस लेने की मांग की है, तो वहीं रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया यानी आरबीआई से इस मामले में सख्त कार्रवाई की बात कही है।

दिल्ली महिला आयोग ने अपने नोटिस में कहा कि इंडियन बैंक का यह कदम भेदभावपूर्ण और अवैध है क्योंकि यह 'सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020' के तहत प्रदान किए गए मातृत्व लाभों के विपरीत है। इसके अलावा यह लिंग के आधार पर भेदभाव करता है जो भारत के संविधान के तहत प्रदत्त मौलिक अधिकारों के खिलाफ है। आयोग ने इंडियन बैंक को 23 जून तक मामले की विस्तृत रिपोर्ट उपलब्ध कराने को कहा है।

इस संबंध में आयोग ने भारतीय रिजर्व बैंक को पत्र लिखा है। आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर को लिखे गए पत्र में कहा है कि एसबीआई और इंडियन बैंक जैसे बैंकों ने महिला विरोधी दिशा-निर्देश जारी किए हैं, इनको रोकने की आवश्यकता है। आयोग ने आरबीआई गवर्नर से इस मामले में हस्तक्षेप करने और देश के सभी बैंकों को महिलाओं के साथ भेदभाव करने वाले अवैध और असंवैधानिक नियम बनाने से रोकने के लिए दिशा निर्देश जारी करने को कहा है। इसके साथ ही आयोग ने आरबीआई गवर्नर से इस मामले की जांच करने और इस तरह के भेदभावपूर्ण दिशानिर्देश जारी करने वाले बैंक अधिकारियों की जवाबदेही तय करने का भी अनुरोध किया है।

बता दें कि इससे पहले, जनवरी में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) ने भी एक ऐसा ही सर्कुलर जारी किया था, जिसके तहत तीन माह से अधिक अवधि की गर्भवती महिला उम्मीदवारों को ‘‘अस्थायी रूप से अयोग्य’’ माने जाने की बात कही गई थी। इस प्रावधान को श्रमिक संगठनों और दिल्ली के महिला आयोग समेत समाज के कई तबकों ने महिला-विरोधी बताते हुए निरस्त करने की मांग की थी। इसके बाद एसबीआई को इस नियम को ठंडे बस्ते में डालना पड़ा था। तब बैंक ने कहा था कि आम लोगों की भावनाओं का आदर करते हुए भर्ती संबंधी नए निर्देशों को स्थगित कर दिया है।

क्या है पूरा मामला?

अक्सर देखा गया है कि गैर संगठित क्षेत्र की कंपनियों के मालिक उन कर्मचारी महिलाओं को निकाल देते हैं जिन्हें मातृत्व अवकाश की ज़रूरत होती है। उनके अनुसार यह तथ्य कि उनकी महिला कर्मचारी गर्भवती है, यह गर्भ उक्त कर्मचारी के काम करने की क्षमता में हस्तक्षेप करती है। खबरों के मुताबिक हाल ही में इंडियन बैंक की ओर से जारी नए दिशा-निर्देशों में कहा गया है कि महिला उम्मीदवार, जो 12 सप्ताह या उससे अधिक की गर्भवती है, उन्हें अस्थायी रूप से अयोग्य घोषित किया जाना चाहिए। इसमें कहा गया है कि डिलीवरी के छह सप्ताह बाद फिर जांच की जाएगी और फिर इसके बाद ही उन्हें नौकरी पर आने की इजाजत दी जाएगी। बैंक की इस नीति के कारण गर्भवती महिलाओं के नौकरी में शामिल होने में देरी होगी और वह अपनी वरिष्ठता खो देंगी।

बैंक के इस फैसले की विभिन्न महिला संगठनों ने भी आलोचना की है। अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ (ए़़डवा) ने 12 सप्ताह से अधिक गर्भवती महिला उम्मीदवारों को नियुक्त नहीं करने के इंडियन बैंक के महिला विरोधी निर्णय की निंदा की और कहा कि यह महिलाओं के खिलाफ अत्यधिक भेदभावपूर्ण है। वहीं वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण को लिखे पत्र में आल इंडिया वर्किंग वुमन फोरम ने इस कदम को इंडियन बैंक का स्त्री विरोधी रवैया बताया है। संगठन के पत्र के मुताबिक गर्भावस्था को अनुपयुक्त श्रेणी में रखना मातृत्व का अपमान है। गर्भावस्था एक प्राकृतिक घटना है और यह न केवल महिला का जन्म देने का मौलिक अधिकार है बल्कि मानव जाति के अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है।

दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष स्वाति मालीवाल ने कहा कि यह बिल्कुल भी स्वीकार नहीं है कि एक गर्भवती महिला को अस्थायी रूप से अनफिट कहा जाए और काम के अवसरों से वंचित किया जाए। यह पितृसत्तात्मक मानसिकता और कुप्रथा को दशार्ता है जो अभी भी हमारे समाज में प्रचलित है। नियम भेदभावपूर्ण और अवैध हैं और इसे तुरंत वापस लिया जाना चाहिए।

क्या है व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और कार्य स्थिति संहिता, 2020?

यह संहिता सामाजिक सुरक्षा से जुड़े नौ कानूनों, जैसे कर्मचारी प्रॉविडेंट फंड एक्ट, 1952, मातृत्व लाभ एक्ट, 1961 और असंगठित श्रमिक सामाजिक सुरक्षा एक्ट, 2008 का स्थान लेती है। सामाजिक सुरक्षा उन उपायों को कहा जाता है जोकि श्रमिकों को स्वास्थ्य सेवा संबंधी सुविधा और आय सुरक्षा के प्रावधान को सुनिश्चित करते हैं।

सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 (36 एफ 2020) के तहत मातृत्व लाभ प्रावधानों के ख़िलाफ़ किसी भी महिला को नियुक्त नहीं किया जाएगा। शौचालय, वॉशरूम, पेयजल, महिला कर्मचारी के प्रवेश और निकास से संबंधित जगहों सहित कार्यस्थल पर पूरी तरह रोशनी होनी चाहिए। जहां महिलाएं काम करती हैं वहां नज़दीक ही शौचालय और पीने के पानी की सुविधा भी होनी चाहिए। सुरक्षित और स्वस्थ कार्य स्थितियां प्रदान करें ताकि कोई महिला कर्मचारी अपनी नौकरी के संबंध में किसी चीज़ से वंचित ना रहे। कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम, 2013 (2013 के 14) के प्रावधान का अनुपालन किया जाएगा।

श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बेहद कम

बता दें कि भारत में गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद महिला कर्मचारियों के अधिकारों की रक्षा के लिए, भारतीय कानून अधिकांश प्रतिष्ठानों के लिए महिला कर्मचारियों को मातृत्व लाभ देना अनिवार्य बनाता है। भारत में इस तरह का पहला कानून प्रसूति प्रसुविधा अधिनियम, 1961 था। इसे मातृत्व लाभ अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है। साल 2017 में इसे संशोधित किया गया और इसमें गर्भवती महिलाओं और नई माँओं के लिए कुछ नए प्रावधान जोड़े गए। भारत में मातृत्व लाभ मुख्य रूप से मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 द्वारा शासित होता है।

यह अधिनियम 10 या अधिक कर्मचारियों को नियोजित करने वाले सभी प्रतिष्ठानों पर लागू होता है। जैसे कारखानों, खानों, बागानों, सरकारी प्रतिष्ठानों, दुकानों और प्रतिष्ठानों को प्रासंगिक लागू कानून के तहत, या केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित किसी भी अन्य प्रतिष्ठान पर लागू होता है। मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 ने अधिनियम के तहत प्रदान किए जा रहे मातृत्व लाभ को और बढ़ा दिया। मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 का मकसद महिला कर्मचारियों को मातृत्व अवकाश और लाभ प्रदान करना और महिलाओं और उनके बच्चे के पूर्ण और स्वस्थ रखरखाव की व्यवस्था करके मातृत्व की उनकी गरिमा की रक्षा करना है।

गौरतलब है कि भारत के श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बेहद कम है, जो ऐसे फैसलों के बाद ये और कम हो सकती है। इस तरह की नीतियां और नियम महिलाओं के लिए नई चुनौतियां खड़ी कर सकते हैं। विश्व बैंक के मुताबिक़ भारत में साल 2020 में महिलाओं की श्रम शक्ति में ज़िम्मेदारी लगभग 19 प्रतिशत है जबकि पुरुषों की 76 प्रतिशत है। इस भागीदारी को बढ़ाने के लिए भी महिलाओं को हर क्षेत्र में आगे लाना ज़रूरी है। लेकिन सबसे पहले ऐसे महिला विरोधी नियमों पर सख्त रोक लगाने की जरूरत है, जो महिलाओं को कार्यबल में आने से ही रोक देते हैं।

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