अगला क़दम : अदालतों को यूएपीए का दुरुपयोग करने वाले अधिकारियों को दंडित करना चाहिए
कई लोगों का मानना था कि पूर्वोत्तर दिल्ली में फरवरी 2020 में हुए दंगों के सिलसिले में पुलिस की जांच एक बेतुका ढोंग थी, इसका इस्तेमाल नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन की अगुवाई करने वाले नागरिक कार्यकर्ताओं को पीड़ा देने के लिए गढ़ा गया था। उन्होंने दावा किया कि उनके खिलाफ दंगे भड़काने के आरोप झूठे हैं। उन्होंने कहा कि कुछ कार्यकर्ताओं पर गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए) के तहत मामला इसलिए दर्ज किया गया था, क्योंकि इसके जमानत के प्रावधान काफी कड़े हैं, इस प्रकार उन्हें अपराधी बनाकर जेल से अपनी बेगुनाही साबित करने को कहा गया। उन्होंने तर्क दिया कि प्रक्रिया अपने में एक सजा है।
आम तौर पर जिसे आम धारणा माना जाता है, दिल्ली उच्च न्यायालय ने उसके खिलाफ जाकर कई लोगों के दिल से डर को दूर कर दिया और आसिफ इकबाल तन्हा, नताशा नरवाल और देवांगना कलिता को जमानत दे दी, इन तीनों को एफआईआर संख्या 59/2020 में यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था, जिसमें दिल्ली में दंगे भड़काने की साजिश रचने के आरोप 15 कार्यकर्ताओं पर आरोप लगाए गए थे। इस फैंसले के बाद तीनों को कुछ राहत मिलनी चाहिए। हालांकि, दिल्ली की एक निचली अदालत ने तिहाड़ जेल से तत्काल रिहाई की मांग करने वाली नरवाल और कलिता की याचिका पर अपना आदेश सुरक्षित रखा है। तन्हा पहले ही अंतरिम जमानत पर जेल से बाहर आ चुके थे। उनकी जमानत अर्जी पर दिल्ली हाई कोर्ट के तीन अलग-अलग आदेशों के खिलाफ दिल्ली पुलिस ने अब सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है।
फिर भी, उच्च न्यायालय के आदेश अन्य नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के लिए भी सुगम होने चाहिए, जिनके बारे में व्यापक तौर पर यह माना जाता है कि दिल्ली पुलिस अपनी जांच के जरिए केंद्र सरकार का विरोध और उसके प्रति असंतोष व्यक्त करने वालों कितना ज़ोखिम उठाना पड सकता है से अवगत कराना चाहती थी। तन्हा, नरवाल और कलिता को जमानत देते हुए, दिल्ली उच्च न्यायालय ने न केवल विरोध के अधिकार को बरकरार रखा है, बल्कि केस के उस आधार को भी खारिज कर दिया है जिसे दिल्ली पुलिस ने एफआईआर संख्या 59 में अपनी भारी-भरकम चार्जशीट में दर्शाया है।
वास्तव में, दिल्ली उच्च न्यायालय यूएपीए को मनमाने ढंग से लागू करने की पुलिस की प्रवृत्ति से नाराज़ था। तन्हा को जमानत देने वाले दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के पैराग्राफ संख्या 66 से यह नाराज़गी स्पष्ट हो जाती है: "आरोपपत्र में, किसी भी खास, विशेष, तथ्यात्मक आरोपों का पूर्ण अभाव है, क्योंकि सारे आरोप शब्दाडंबर युक्त आरोप हैं जिनका कोई आधार नहीं है।“
दो न्यायाधीश- न्यायमूर्ति सिद्धार्थ मृदुल और न्यायमूर्ति अनूप जयराम भंभानी- ने कहा कि तीनों के खिलाफ आरोप तथ्यात्मक और खास नहीं हैं, उनकी अस्पष्टता केवल यूएपीए की धारा 15,17, या 18 के साथ उन पर हमला करने के उदेश्य से बमबारी भाषा में लिखी गई थी। धारा 15 परिभाषित करती है कि आतंकवादी गतिविधि क्या होती हैं, धारा 17 उन कामों को अंजाम देने के लिए धन जुटाने के दंड से संबंधित है, और धारा 18 आतंकवादी योजना को लागू करने की साजिश की सजा से संबंधित है।
ऐसा नहीं है कि हाईकोर्ट ने तीनों को दंगों में कोई भी भूमिका निभाने के आरोप से बरी कर दिया है। लेकिन वे निश्चित रूप से आतंकवादी गतिविधि में शामिल नहीं थे, उच्च न्यायालय का सुझाव स्पष्ट है। न्यायाधीशों ने बाद में पैरा 66 में जो कहा, और उससे यह साबित होता है: कि "अपीलकर्ता [तन्हा] ने जो भी अन्य अपराध किए हों या नहीं किए हों, कम से कम प्रथम दृष्टया, हुकूमत हमें यह समझाने में असमर्थ रही कि अपीलकर्ता के खिलाफ आरोप यूएपीए की धारा 15, 17, या 18 [के] के तहत अपराध दिखाते हैं।”
न्यायाधीशों का यह अवलोकन यूएपीए के आवेदन को आपराधिक कृत्यों के एक छोटे उपसमूह तक सीमित रखता है। यूएपीए के इतिहास पर चर्चा करते हुए, न्यायाधीशों ने कहा कि इसे "भारत की रक्षा' पर गहन प्रभाव के मामलों से निपटने के लिए बनाया गया था, ये इससे कम या ज्यादा कुछ नहीं है।" आतंकवाद को अन्य अपराधों से अलग करना होगा, भले ही वे अपनी प्रकृति और सीमा में कितने भी "गंभीर या जघन्य" क्यों न हो। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो, और जैसा कि अक्सर कहा जाता है, सभी आतंकवादी अपराधी होते हैं लेकिन सभी अपराधी आतंकवादी नहीं होते।
न्यायाधीशों ने कहा कि धारा 15 के तहत "आतंकवादी अधिनियम की परिभाषा" व्यापक और अस्पष्ट है। उन्होंने कहा कि "वाक्यांश आतंकवाद के आवश्यक चरित्र का हिस्सा होना चाहिए,"। तो फिर आतंकवाद क्या है? वे सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का हवाला देते हैं जो आतंकवाद के सार को छेड़ने की कोशिश करते हैं। उदाहरण के लिए, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज एंड अदरस बनाम यूनियन ऑफ इंडिया में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि आतंकवाद के रूप में समझे जाने वाले हिंसक कृत्य का प्रभाव "अंतर-राज्यीय, अंतर्राष्ट्रीय या सीमा-पार चरित्र का है। यह पूरे देश और भारतीयता की अदृश्य शक्ति के मामले में एक चुनौती है जो इस महान राष्ट्र को एक साथ बांधती है..."
उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने दिवंगत न्यायमूर्ति एम हिदायतुल्ला का हवाला देते हुए कहा, जिन्होंने राम मनोहर लोहिया बनाम बिहार राज्य के मामले में कहा था कि कानून का कोई भी उल्लंघन हमेशा आदेश को प्रभावित करता है, लेकिन इससे पहले कि यह सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करे, इसे बड़े पैमाने पर समुदाय को भी प्रभावित करना चाहिए। अपराधों के बीच अंतर की डिग्री हैं। "किसी को तीन संकेंद्रित वृत्तों की कल्पना करनी होगी। कानून और व्यवस्था सबसे बड़े सर्कल का प्रतिनिधित्व करती है जिसके भीतर अगला सर्कल सार्वजनिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करता है और सबसे छोटा सर्कल राज्य की सुरक्षा का प्रतिनिधित्व करता है, ”जस्टिस हिदायतुल्ला ने उक्त बातें अपने आदेश में कही थी।
आतंकवाद निस्संदेह राष्ट्र की सुरक्षा को खतरे में डालता है। हालाँकि, एक अपमानजनक अदालती लड़ाई उन लोगों की प्रतीक्षा कर रही है जो जमानत पर हैं, और इसलिए दिल्ली उच्च न्यायालय ने सोचा, प्रथम दृष्टया, वे ऐसे कृत्यों में शामिल नहीं थे जिन्हें आतंकवाद के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता था। यही कारण है कि तीनों को जमानत देने का उनका आदेश प्राथमिकी संख्या 59 में दिल्ली पुलिस के मामले को खोखला कर देती है, जिसमें आरोपितों पर आरोप है कि उन्होंने हुकूमत को सीएए को वापस लेने के लिए मजबूर करने के लिए हिंसा की थी।
उच्च न्यायालय ने यह साबित करने का भार अभियोजन पक्ष (यानि हुकूमत) पर डाल दिया है कि वह साबित करे कि यूएपीए के आरोपियों को जमानत क्यों नहीं दी जानी चाहिए। यूएपीए आतंकवादी और विघटनकारी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम और आतंकवाद रोकथाम अधिनियम से अलग है, जिसके तहत अदालत को यह आकलन करने की जरूरत थी कि क्या आरोपी कथित अपराध के "दोषी नहीं" थे। न्यायाधीशों ने कहा, "इसलिए, प्रथम दृष्टया आधार पर आरोपों को खारिज करने का बोझ बचाव पक्ष पर स्पष्ट रूप से था।"
हालांकि, यूएपीए की धारा 43डी (5) के तहत, जो धारा जमानत से संबंधित है, उसमें अभियोजन पक्ष को यह साबित करना होगा कि आरोपी के खिलाफ लगाए गए आतंकवाद के आरोप "प्रथम दृष्टया" सच हैं। इस प्रकार, यह किसी व्यक्ति पर आतंकवाद का आरोप नहीं लगा सकते है और उन्हे उनकी स्वतंत्रता से वंचित करने को आधार नहीं बना सकता है। जो व्यक्ति अभियुक्त या आरोपी को उसकी स्वतंत्रता से वंचित करना चाहता है, उसे प्रथम दृष्टया यह साबित करना होगा कि उसने कोई आतंकवादी कार्य किया है या ऐसा करने की साजिश में वह शामिल था।
इस दृष्टिकोण से, दिल्ली उच्च न्यायालय असंतुष्टों को आतंकवादी के रूप में पेश करने, उन्हें जेल में डालने और उनके मुकदमे के लंबित रहने तक, जो अक्सर वर्षों तक चलता रहता है, व अपने आदेश से हुकुमत की प्रवृत्ति को सीमित करता है। 2019 में यूएपीए के तहत कम से कम 1,126 मामले दर्ज किए गए थे, जो 2015 में 897 ऐसे मामलों के मुक़ाबले बड़ी वृद्धि थी।
फिर भी यह बहस का विषय है कि क्या पुलिस अपने तरीकों में सुधार करेगी या अपने वैचारिक विरोधियों या कर्तव्यनिष्ठ असंतुष्टों को यूएपीए के तहत आरोपित कर उन्हें सुधारने के लिए अपने राजनीतिक आकाओं की इच्छाओं को पूरा करने से परहेज करेगी। फिर भले ही सुप्रीम कोर्ट 15 जून को दिल्ली हाई कोर्ट के ट्रिपल बेल ऑर्डर को बरकरार रखे। आखिर में तो जांच अधिकारियों को पदोन्नति या पुरस्कार या प्रशंसा-प्राप्ति का लाभ मिलेगा ही।
दरअसल, पिछले साल जब गृह मंत्रालय ने उत्कृष्टता का पदक दिल्ली पुलिस अधिकारी राजेश देव को दिया था, जो पूर्वोत्तर दिल्ली में 2020 के दंगों की जांच के लिए गठित विशेष जांच दल का नेतृत्व कर रहे थे। यह पदक राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के अधिकारी विक्रम खलाटे को भी दिया गया था, जो 2018 की भीमा कोरेगांव हिंसा की जांच कर रहे थे, जब इस मामले को पुणे पुलिस से हटाकर उनके संगठन यानि एनआईए को दे दिया गया था। यही पदक शिवाजी पवार को पर भी दिया गया था, जिन्होंने सबसे पहले भीमा कोरेगांव केस में पुणे पुलिस की जांच की अगुवाई की थी, जिसमें 16 बुद्धिजीवियों और कार्यकर्ताओं को यूएपीए के तहत कैद किया गया था।
पुलिस अधिकारी अक्सर सत्ता में पार्टी के इशारे पर यूएपीए का इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि उन्हें इस तरह फैसले लेने का हिसाब नहीं देना होता है। ये आरोपी ही हैं जो जेल में तब तक सड़ते हैं जब तक कि उन्हे जमानत नहीं मिल जाती या अदालत द्वारा उन्हे बरी नहीं कर दिया जाता। सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय हेगड़े कहते हैं, "यदि पुलिस तन्हा, नरवाल और कलिता के केस में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा जमानत पर दिए आए आदेश के बाद भी अपने तरीके से सुधार करने में विफल रहती है, तो शायद न्यायपालिका का अगला कदम उन अधिकारियों को दंडित करना होना चाहिए जो आतंकवाद के कृत्यों के लिए आम लोगों/कार्यकर्ताओं पर यूएपीए के तहत मुक़दमा दर्ज़ करते हैं, ऐसे कृत्य जो उन्होने कभी किए ही नहीं थे। तभी पुलिस अधिकारी उन राजनीतिक आकाओं की अवहेलना कर पाएंगे जो असंतुष्टों और वैचारिक शत्रुओं को चुप कराने के लिए कठोर कानूनों का दुरुपयोग करने पर जोर देते हैं।
लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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