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शेखर जोशी: हिंदी नई कहानी के ‘दाज्यू’ कर गए अपना देहदान

शेखर जोशी को अलविदा मत कहिएगा। वे अपने लेखन के अलावा अपनी देह के जरिये भी हमारे बीच कहीं न कहीं जीवित रहेंगे। जी हां, हिंदी का यह विरला कथाकार अपना देहदान कर गया है।
Shekhar Joshi

प्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी का मंगलवार दोपहर को निधन हो गया। वे 90 वर्ष के थे और पिछले कुछ समय से बीमार चल रहे थे। वह आंतों में संक्रमण से ग्रसित थे। उन्होंने ग़ाज़ियाबाद के वैशाली स्थित एक अस्पताल में अंतिम सांस ली। आज उनका पार्थिव शरीर देहदान के लिए ग्रेटर नोएडा स्थित शारदा अस्पताल को सौंपा जा रहा है।

शेखर जोशी का जन्म 10 सितम्बर, 1932 को अल्मोड़ा (उत्तराखंड) ज़िले के सोमेश्वर ओलिया गांव में हुआ था। उन्होंने हिंदी साहित्य को कोसी का घटवार, बदबू, दाज्यू (बड़ा भाई) जैसी अविस्मरणीय कहानियां दीं।

शेखर जोशी के निधन से साहित्यजगत में शोक की लहर है। सोशल मीडिया पर नये पुराने लेखक, पत्रकार, साहित्य के विद्यार्थी उन्हें श्रद्धांजलि दे रहे हैं। इनमें से कुछ टिप्पणियों के संपादित अंश यहां लिए जा रहे हैं।

हिंदी के प्रसिद्ध आलोचक अच्युतानंद मिश्र लिखते हैं—

“नई कहानी के अप्रतिम कहानीकार शेखर जोशी नहीं रहे। याद आता है 2012 में जबलपुर में उनसे मुलाकात हुई थी। उनसे बात करते हुए महसूस हुआ कि जो आत्मीयता, तरलता और संवेदनशीलता उनकी कहानियों में है, चरित्रों में है वस्तुतः वह उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है।

मैंने अपने जीवन में आज तक इतना सरल सहज मन का लेखक नहीं देखा। मेरे लिए वे कोसी का घटवार, बदबू, दाज्यू जैसी अविस्मरणीय कहानी के कथाकार थे। आख़िर क्या था शेखर जोशी की कहानियों में कि वे समय-काल, पीढ़ी- युग, सभ्यता-भाषा आदि की सीमाओं के पार चली आती थीं?

वह कौन सा चुम्बकत्व था, जिससे पाठक एक बार खिंचने के बाद शायद ही छूट पाता हो।

कौन होगा जो 'दाज्यू' पढ़कर दीवार की ओर मुंह करके रोया न हो? 'कोसी का घटवार' में जिस तरह की विरल प्रेम-संवेदना है, टूटने और छूटने के बीच बचाए रखने का जैसा मोह लगाव है, वैसा शायद ही कोई हो जिसने जीवन में महसूस न किया हो। पढ़कर विछोह के ममोड़ का दर्द किस अभागे के पेट में न उठा होगा? 'बदबू' जैसी कहानी ने कितने लोगों को अपने भीतर के नकार और प्रतिरोध को बचाए रखने की प्रेरणा दी होगी बताया नहीं जा सकता।

शेखर जोशी ने मामूली लोगों की गहन संवेदना की कहानियाँ लिखीं। ये कहानियाँ हमारे निकट के संसार का रोजनामचा थीं। उनमें छोटे-बड़े हर तरह के दुख थे, करुणा थी। नई कहानी ने एक से एक दुर्लभ कथाकार हिंदी को दिया, मगर शेखर जोशी की कहानियों में जो जीवन सृजित करुणा का बखान था, वह अन्यत्र नहीं है।

जब भी कोई अपने शहर, घर परिवार से दूर किसी बेगाने शहर को जाएगा उसके प्राण किसी दाज्यू की खोज में भटकेंगे। जब भी कोई लौटकर घर आएगा। अपने पुराने प्रेमी से मिलकर 'कोसी के घटवार' के नायक की तरह अपने को बेचैन पाएगा। पाने और खोने के बीच जीवन की मद्धिम लय को बार-बार सुनेगा। यही तो जीवन संगीत है। यह करुणा, यह बेचैनी, यह आत्मीयता, यही तो इस दुनिया का हासिल है। शेखर जोशी की कहानियों का मूल द्रव्य भी यही है।

अब वे नहीं  हैं। उनकी अविस्मरणीय कहानियाँ उनका स्मरण कराती रहेंगी।

अलविदा कथाकार!”

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प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार प्रियदर्शन लिखते हैं—

“नब्बे बरस के भरे-पूरे, स्वस्थ और सक्रिय जीवन के बाद मृत्यु शोक का विषय नहीं होनी चाहिए। मगर फिर भी एक कसक रह जाती है, एक टीस- कुछ खो देने की।

अपने अंतिम समय तक- यानी अस्पताल ले जाए जाने की मजबूरी से पहले- वे अपनी किताब को अंतिम रूप दे रहे थे। इसके पहले उन्होंने 'मेरा ओलियागांव' जैसी प्यारी सी किताब लिखी और कई कविताएं भी लिखीं।

इसी साल उन्होंने अपने जीवन के 90 साल पूरे किए थे। इस अवसर पर एक छोटा सा पारिवारिक आयोजन भी हुआ था। लेकिन इससे कहीं ज्यादा बड़ा उत्सव हिंदी की उसकी विराट दुनिया में मनाया जा रहा था जो अपने लेखक को वर्षों से नहीं बल्कि दशकों से पहचानती थी।

शेखर जोशी आधुनिक हिंदी कथा के प्रथम पांक्तेय लेखकों में रहे। 'कोसी का घटवार', 'दाज्यू' या 'नौरंगी बीमार है' जैसी उनकी कई कहानियां पाठकों की स्मृति में बिल्कुल गड़ी हुई हैं। वे पहाड़ में पैदा हुए थे, पहाड़ को ताउम्र अपनी पीठ पर ढोते रहे,  अपनी रचनाओं में लिखते रहे, लेकिन इसके समानांतर वे इलाहाबाद के भी लेखक थे। ज्ञानरंजन, अमरकांत, मार्कंडेय, दूधनाथ सिंह और रवींद्र कालिया जैसे जिन लेखकों को इलाहाबाद अपना मानता रहा, और जिनसे इलाहाबाद छूटा भी नहीं, उनमें शेखर जोशी भी एक थे। उनके बेटे संजय जोशी ने बताया कि उनकी एक किताब इलाहाबाद पर भी प्रकाशित होने वाली है।”

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लेखक चंद्रेश्वर ने लिखा—

“हिन्दी कहानी के आख़िरी 'उस्ताद' शेखर जोशी नहीं रहे! वे हाल ही में पिछले 10 सितंबर 2022 को 90 साल की आयु पूरी कर चुके थे और लेखन में सक्रिय थे। वे हिन्दी के अप्रतिम कहानीकार, संस्मरणकार और गद्यकार के साथ-साथ कवि भी थे। उनकी कई कहानियाँ- 'दाज्यू', 'कोसी का घटवार', 'बदबू' ,'मेंटल',  'उस्ताद', 'बौरेया कोदो', 'आशीर्वचन', 'नौरंगी बीमार है'  एवं 'आदमी का डर' आदि मेरी स्मृतियों  में रची-बसी हैं। वे जितने अच्छे कहानीकार थे उतने ही सरल-सहज इंसान भी थे| उनका जाना हिन्दी कहानी के एक युग का अवसान है। हिन्दी की नयी कहानी में एक त्रयी इलाहाबाद से अमरकांत, मार्कण्डेय और शेखर जोशी की भी बनी थी। उस त्रयी के आख़िरी स्तंभ शेखर जोशी ही बचे हुए थे। उनके जाने से हिन्दी कहानी और गद्य के क्षेत्र में जो रिक्तता पैदा हुयी है,उसको भर पाना आसान नहीं होगा।”

कथाकार मार्कण्डेय जी की बेटी स्वास्ति ठाकुर अपनी यादें यूं साझा करती हैं—

“शेखर जोशी चाचा जी से मेरे बचपन की कितनी यादें जुड़ी हुई हैं!! पापा (कथाकार मार्कण्डेय जी) के चलते शेखर जोशी जी और उनके पूरे परिवार से बचपन से बेहद घनिष्ठता थी। लेखकों की गोष्ठी अक्सर 2 डी मिण्टो रोड , इलाहाबाद पर होती थी। शेखर जी उसमें हमेशा शामिल रहते थे। भैरव प्रसाद जी, मार्कण्डेय जी और शेखर जोशी जी की त्रयी उस वक्त इलाहाबाद में मशहूर थी और अक्सर कॉफ़ी हाउस में ये तीनों एक ही मेज पर नजर आते थे। बाद में पापा और अमरकांत जी के साथ उनकी त्रयी इलाहाबाद की कथा-त्रयी के रूप में साहित्य जगत में प्रसिद्ध हुई। पापा के जाने के बाद शेखर जी जब तक इलाहाबाद में रहे, अभिभावक की तरह रहे। जब वे मिलते तो असीम आत्मीयता से मिलते थे। वे अपना गहरा लगाव प्रदर्शित करते थे। मार्कण्डेय जी पर जब इलाहाबाद में पहला कार्यक्रम हुआ, तो उन्होंने ही उस कार्यक्रम की अध्यक्षता की।

आज उनके जाने से साहित्य समाज की क्षति तो हुई ही, इलाहाबाद के लेखकों की वह आखिरी कड़ी भी टूट गयी, जो इलाहाबाद को एक साहित्यिक गढ़ के रूप में अहसास कराती थी।”

हिंदी के आलोचक और जन संस्कृति मंच से जुड़े आशुतोष लिखते हैं—

शेखर दा उन लेखकों में थे, जिन्हें हिंदी में जितना आदर मिला उतना ही भरपूर प्यार। प्यार शायद कुछ ज़्यादा ही। ध्यान से देखें तो उनकी अधिकतर प्रसिद्ध कहानियां खोए हुए प्यार की कहानियां हैं। पूँजी की यांत्रिक सभ्यता के पसारे में खोए हुए मानवीय प्यार की। दाज्यू, कोसी का घटवार, मेंटल....! वे एक ही साथ मानवीय श्रम के सौंदर्य और उसकी विडम्बना के चितेरे हैं।

लेखन ही नहीं, समूचे व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था कि आप उनके सामने होते ही प्यार से भर उठते हैं। उनके जाने के बाद कुछ ठहरकर यह पहचानने का यत्न होगा कि वह कुछ क्या था, जो खो गया। जो भी था, अनमोल था।

वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश अपनी श्रद्धांजलि में लिखते हैं-

“हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार शेखर जोशी नहीं रहे। हाल ही में उन्होंने अपने जीवन के नब्बे वर्ष पूरे करके 91वें वर्ष में प्रवेश किया था। उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में जन्मे शेखर जी लंबे समय तक इलाहाबाद में रहे।

पिछले कुछ वर्ष से वह अपने पुत्र और जाने-माने प्रकाशक व प्रतिरोध का सिनेमा आंदोलन से जुड़े Sanjay Joshi के साथ गाजियाबाद के वसुंधरा स्थित जनसत्ता अपार्टमेंट में रह रहे थे।

कोसी का घटवार और दाज्यू जैसी अपनी अमर कहानियों, संस्मरणों और कई अन्य पुस्तकों के लिए वह हमेशा याद किये जायेंगे।”

जनवादी लेखक संघ (जलेस) ने अपने लेखक और संरक्षक शेखर जोशी को बेहद शिद्दत से याद किया है। जलेस के महासचिव संजीव कुमार, संयुक्त महासचिव बजरंग बिहारी तिवारी और नलिन रंजन सिंह की ओर से जारी शोक संदेश में कहा गया है—

“अलविदा, शेखर जोशी!

'दाज्यू', 'कोसी का घटवार', 'बदबू' और ऐसी तमाम कहानियाँ लिखने वाले नई कहानी आंदोलन के स्तंभ शेखर जोशी हमारे बीच नहीं रहे। वे काफ़ी समय से बीमार चल रहे थे। 4 अक्टूबर 2022 को अपराह्न 3:20 बजे गाजियाबाद के एक अस्पताल में उन्होंने अंतिम साँस ली। 5 अक्टूबर 2022 को उनकी इच्छानुसार उनका पार्थिव शरीर देहदान के लिए ग्रेटर नोएडा के शारदा अस्पताल को सौंप दिया जाएगा।

10 सितंबर 1932 को अल्मोड़ा जनपद के ओलिया गाँव में जन्मे शेखर जोशी ने अभी पिछले महीने ही 90 वर्ष पूरे किए थे। 1953 में लिखी अपनी कहानी 'दाज्यू' से वे चर्चा में आए थे और उनका पहला कहानी संग्रह 'कोसी का घटवार' 1958 ई. में प्रकाशित हुआ था। पहाड़ी जीवन और मध्यवर्गीय पारिवारिक स्थितियों पर उनकी लिखी कहानियाँ बेहद चर्चित हुई थीं। मज़दूरों के जीवन पर लिखी कहानियों के मामले में उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई थी। एक तरह से कह सकते हैं कि ग्राम कथा बनाम नगर कथा की धाराओं के संघर्ष में अपनी प्रगतिशील चेतना से लैस औद्योगिक जीवन को आधार बनाकर लिखी गई कहानियों की एक तीसरी धारा शेखर जोशी से निकलती थी। उनकी कहानियाँ स्वयं में एक आंदोलन हैं।

शेखर जोशी जनवादी लेखक संघ की स्थापना के समय से इससे जुड़े रहे और लंबे समय तक इसके उपाध्यक्ष रहे। अभी हाल ही में जयपुर में संपन्न जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अधिवेशन में उन्हें संरक्षक मंडल में शामिल किया गया था। अपने समर्पण और प्रतिबद्धता के लिए वे हमेशा जाने गए। अपने मधुर व्यवहार के कारण वे अपने समकालीन कहानीकारों और परवर्ती पीढ़ी में बेहद लोकप्रिय थे।

शेखर जोशी का निधन जनवादी लेखक संघ और हिंदी के साहित्यिक समाज के लिए एक बड़ी क्षति है। जनवादी लेखक संघ अपने अभिभावक साथी के निधन पर शोक संवेदना व्यक्त करता है और उनके प्रति विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है।”

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