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दो महीने में नहीं बदला कुछ! स्वास्थ्यकर्मियों को आज भी नहीं मिल रहे पीपीई, मास्क और ग्लव्स

हर तरफ़ शोर है, दावे हैं कि हम रोज़ लाखों में पीपीई किट बनाने लगे हैं, एन95 मास्क बनाने लगे हैं, लेकिन हक़ीक़त इससे अलग है। एक नहीं कई राज्यों के स्वास्थ्यकर्मियों ने बताया कि कोरोना वार्ड के अलावा कहीं भी स्वास्थ्यकमिर्यों को पीपीई नहीं दिया गया। मास्क तो वे अपने पैसे से खरीद रहे हैं और ग्लव्स तो हैं ही नहीं, जबकि वे स्क्रीनिंग करते हैं, लक्षण देखते हैं, खासकर को-मॉर्बिड मरीज़ों के, और फिर मरीज़ों को प्राथमिक चिकित्सा केंद्र ले जाना होता है।
कोरोना वायरस
Image Courtesy: NDTV

आज विश्व भर में केरल की चर्चा हो रही है कि उसने कैसे कोविड-19 को पूरी तरह से काबू में कर लिया है। केरल के नर्स व चिकित्सक महाराष्ट्र में कोविड-19 अस्पताल स्थापित करने चल दिये हैं। वहीं तमिलनाडु, महाराष्ट्र, दिल्ली व गुजरात में महामारी के आंकड़े चैंकाने वाले हैं। क्या कारण है कि दो माह के जबर्दस्त लॉकडाउन के बाद भी इन राज्यों में स्थिति बेकाबू है?

एक बड़ा कारण तो यह है कि इन राज्यों में सरकारी लापरवाही चरम पर है, खासकर स्वास्थ्यकर्मियों के प्रति रवैये के संदर्भ में। इसपर हमने पहले भी बात की थी, पर स्थिति जस-की-तस है। दूसरे, सरकार की जवाबदेही और संवेदना न्यूनतम है। सबकुछ बेतरतीब ढंग से चलाया जा रहा है और कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं अपनाई जा रही। लगता है सबको ‘अपनी किस्मत अपने हाथ’ लेकर चलने के लिए छोड़ दिया गया है।

जब आप किसी को फोन करते हैं तो एक सरकारी संदेश कॉलर ट्यून के रूप में सुनाई देता है-‘‘इस बीमारी से बचने के लिए जो हमारे ढाल हैं, जैसे हमारे डाक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, सफाई कर्मचारी और पुलिस, इत्यादि, उनका सम्मान करें, उन्हें सहयोग दें। इन योद्धाओं की करो देखभाल तो देश जीतेगा करोना से हर हाल’’। पर क्या हमारी सरकार या सरकारें सचमुच इन योद्धाओं की देखभाल कर रही हैं? या यह संदेश भी एक और जुमला है।

चेन्नई की एक चिकित्सक ने बहुत दुख के साथ बताया कि शहर के राजीव गांधी गवर्मेंट जनरल हॉस्पिटल की नर्सिंग सुपरिंटेंडेंट जोन मेरी प्रेसिल्ला की कोविड से मौत हो गई। 58 वर्षीय जोन सेवानिवृत्त हो चुकी थीं पर उन्होंने हस्पताल के कोविड मरीजों की देखभाल का जिम्मा ले लिया था। आईसीयू में 2 महीने लगातार काम करने के बाद वह संक्रमित हो गईं और उसी अस्पताल में भर्ती हुईं। 27 मई को उनकी मृत्यु हुई तो अस्पताल ने तुरन्त पासा पलट दिया और 50 लाख मुआवजा देने से बचने के लिए कह दिया कि रिकार्ड में गलती से ‘कोविड पॉजिटिव’ लिखा गया जबकि जोन कोविड नेगेटिव थीं। जोन के परिवार वालों ने दावा किया है कि अस्पताल तथ्यों को छिपा रहा है। जोन को तमिलनाडु की ‘फ्लॉरेंस नाइटिंगेल’ कहा जाता था, पर एक कर्मठ और प्रतिबद्ध करोना-योद्धा को हमने खो दिया।

चेन्नई में 22,000 लोग करोना संक्रमित हैं। सोमवार को एक दिन में 1100 नए केस दर्ज हुए। अब तक 160 की मौत हो चुकी है। चेन्नई की विलेज नर्सेस ऐसोसिएशन की अध्यक्ष निर्मला पालसामी से बात करने पर उन्होंने बताया कि उनको गांव स्तर पर चेतना बढ़ाने के लिए भेजा गया है। ‘‘हमें ‘फ्रंटलाइन वॉरियरर्स’(अग्रिम पंक्ति के योद्धा) कहा जा रहा है पर हम ‘अनआर्मड वॉरियर’ (निहत्थे योद्धा) हैं। कोरोना वार्ड के अलावा कहीं भी स्वास्थ्यकमिर्यों को पीपीई नहीं दिया गया। मास्क तो हम अपने पैसे से खरीद रहे हैं और ग्लव्स तो हैं ही नहीं। हम स्क्रीनिंग करते हैं, लक्षण देखते हैं, खासकर को-मॉर्बिड मरीज़ों के, फिर मरीज़ों को प्राथमिक चिकित्सा केंद्र ले जाना होता है। पर सड़कों पर गाड़ियां नहीं चल रहीं और हमें एम्बुलेंस नहीं दिया जाता। प्राइवेट गाड़ियों से ले जाना संभव नहीं होता यदि मरीज गरीब है।

तो टेस्ट नहीं होते। सबकुछ भगवान-भरोसे चल रहा। सरकार ने आयूष विभाग बन्द कर दिया जबकि प्राकृतिक औषधियों से प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में काफी मदद मिल सकती थी। दूसरी समस्या कि गांव वाले हमसे बचते हैं कि कहीं हम उन्हें संक्रमित न कर दें। दूसरी ओर हर खुशी के मौके पर वे भीड़ लगाते हैं, कहने पर झगड़ा करते हैं। पहले तो हमें 5000 परिवार कवर करना होता था; अब हम 30,000-40,000 घरों तक कवर करते हैं, तो ठीक से काम कैसे हो? इसका पैसा भी नहीं मिलता। सरकार को पैरा नर्सेस को और प्राइवेट नर्सेस को लगाना चाहिये, पर ऐसा नहीं हुआ। एक और दिक्कत है कि सरकार के सभी विभागों में समन्वय नहीं है। सकारी विभागों को एकीकृत ढंग से काम करते हुए स्वयं सहायता समूहों, नागरिक समाज और पंचायतों को साथ लेना चाहिये। ऐसा नहीं होगा तो केस बढ़ेंगे।’’

मुम्बई की एक स्टाफ नर्स ने बताया कि उनके वार्ड में इंचार्ज खुद करोना-संक्रमित हो गए हैं, फिर भी पीपीई नहीं दिया जा रहा। ‘‘मुझे भी इंफेक्शन आ गया, जो मैं सात दिन क्वारंटाइन में हूं। आरोग्य सेतु ऐप मुझे ‘हाई रिस्क केस’ बता रहा है। मैं टेस्ट कराना चाहती हूं पर मेरा टेस्ट नहीं किया जा रहा। जबकि हमने करोना के लिए एक दिन की पगार कटवाई है। बड़े प्राइवेट अस्पताल बंद हैं; उनपर कोई दबाव नहीं। टेस्ट महंगा भी है। भर्ती होना पड़ा तो अपने अस्पताल में नहीं हो सकती। वहां तो जगह नहीं है; मरीजों के बगल में लाशें पड़ी होती हैं। भयानक स्थिति है। मुझे डर है कि पति और बच्चों को न संक्रमित कर दूं’’। अंत में वह गुस्से में बोलीं, ‘‘फिर हम क्यों अपनी और अपनों की जान जोखिम में डालें?’’महाराष्ट्र में 65,168 लोग संक्रमित हैं और 2,197 मर चुके हैं।

दिल्ली, जो संक्रमण में तीसरे नंबर पर है, की एक स्टाफ नर्स बोलीं कि पीपीई किट नहीं दिये जा रहे। ग्लव्स तक नहीं हैं और मास्क अपने पैसों से खरीद रहे हैं। एम्स जैसे प्रीमियर स्वास्थ्य संस्थान में इतनी गंदगी और हॉस्टलों में इतनी खराब व्यवस्था है कि 206 स्वास्थकर्मी संक्रमित हो चुके।’’ वास्तव में एम्स के रेज़िडेंट डाक्टर्स ऐसोसिशन (RDA) को कहना पड़ा, ‘‘हम कोरोनावायरस से नहीं, सरकार और अस्पताल प्रबंधन की उदासीनता से परेशान हैं।’’ 5 दिन पूर्व बहुत कर्मठ सफाई सुपरवाइज़र हीरा लाल की मौत हो गई। उन्होंने पीपीई नहीं दी गई थी जबकि वे सबसे खतरे के काम में थे। इसके पहले मेस-कर्मी राजेन्द्र प्रसाद की मौत हुई।

आरडीए सचिव डॉ. श्रीनिवास ने कहा, ‘‘हमने मांग की थी थर्मल स्कैनर (Thermal Scanner) से सभी स्टाफ की स्क्रीनिंग (screening) हो, मेस में एन-95 मास्क, ग्लव्स और सैनिटाजर दिये जाएं। पर कुछ नहीं हुआ। यहां जो एन-5 मास्क दिये भी गए वे घटिया थे।’’ यह देखा जा रहा है कि तीन समस्याएं हैं, एक- अस्पताल प्रशासन केवल कोविड वार्ड के स्टाफ को पीपीई देता है, औरों को नहीं जबकि यह जगजाहिर है कि अक्सर मरीज हफ्ते भर तक कोई लक्षण नहीं दिखाता। दूसरे, गंभीर कोविड लक्षण दिखने पर ही टेस्ट होता है इसलिए सभी स्वास्थ्यकर्मियों, यहां तक कि रिसेप्शन और बाहर खड़े गार्डों, एम्बुलेंस चालकों को तक पीपीई मिलना चाहिये। तीसरे, अस्पताल में ठेके पर काम कर रहे स्टाफ के लिए भी अस्पताल को जिम्मेदारी लेनी चाहिये।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि देश पीपीई निमार्ण के मामले में विश्व में दूसरे नंबर पर है। आज देश में 600 कम्पनियों को पीपीई निर्माण की अनुमति मिली है। खुद भारत में 4.5 लाख से अधिक किट प्रतिदिन बनते हैं। बंगलुरु आज पीपीई का सबसे बड़ा हब बन चुका है। फिर सिंगापुर और दक्षिण कोरिया से भी किट खरीदे जा रहे हैं। तो आखिर ये सारे किट जा कहां रहे हैं? और, घटिया किस्म के जो मास्क, पीपीई और वेंटिलेटर सप्लाई हो रहे हैं, उनकी गुणवत्ता जांचे बिना कैसे उन्हें अस्पताल ले रहे हैं? जहां तक पीपीई किट्स की बात है, तो उनका क्वालिटी कंट्रोल है ही नहीं। इसका खुलासा जरूर होना चाहिये, क्योंकि सर्वोच्च न्यायालय ने 28 अप्रैल को केंद्र को निर्देशित किया था कि वह सभी स्वास्थ्यकर्मियों के लिए पीपीई का प्रबंध करे, क्योंकि बिना लक्षण के हज़ारों केस सामने आ रहे हैं। क्यों आज भी इन निर्देशों का उल्लंघन हो रहा है?

दूसरी ओर केरल सरकार ने जिस मॉडल को पेश किया है, उससे क्यों सीखा नहीं जा रहा? केरल में कोविड से मृत्यु की दर (समस्त संक्रमित के अनुपात में मौतें) 0.007 प्रतिशत है और देश भर की दर करीब 0.028 प्रतिशत है। यह इसलिए हो पाया कि राज्य ने युनिवर्सल लिटरेसी (सार्वभौम साक्षरता) को प्राथमिकता दी, सामाजिक क्षेत्र पर सबसे अधिक खर्च किया और स्वास्थ्य व शिक्षा को वरीयता दी। इसलिए केरल की स्वास्थ्य-सेवा व्यवसथा पहले से चाक-चौबन्द तो थी ही, साथ में सरकार ने कुछ कड़े कदम उठाए। विदेश से पहुंचे यात्रियों को सरकारी क्वारंटाइन (quarantine) सुविधा दी गई और प्रतिदिन दो बार उनकी जांच कराई गई। संक्रमण पाते ही उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया और चिकित्सा दी गई। पुनः उन्हें अपने घरों में क्वरंटाइन किया गया। देश के अन्य भागों से आने वालों को एक साथ नहीं बल्कि कई चरणों में लाया गया और उनकी स्क्रीनिंग व टेस्टिंग की गई। केरल में स्वास्थ्यकर्मी ही नहीं, बल्कि पुलिस प्रशासन, चिकित्सक, आशा कर्मी, जन प्रतिनिधि, लेबर विभाग के लोग, सफाईकर्मी और नवयुवक स्वयंसेवी सभी ने समन्वय बनाकर सामुदायिक स्तर पर काम किया।

महिलाओं ने भी बड़ी अहम् भूमिका निभाई। फिर, पीपीई किट्स की कमी को पूरा करने के लिए राज्य की कोच्ची स्थित किटेक्स कम्पनी को काम दिया गया, जो प्रतिदिन 20,000 किट दे सकता है। चिकित्सकों द्वारा इनकी डिजाइन में आवश्यक सुधार भी सुझाए जाते हैं। दूसरे, कोच्ची की ऐरोफिल फिल्टर्स इंडिया ने एन-95 मास्क बनाने शुरू किये। ऐसे ही नेस्ट ग्रुप, कोच्ची के शोध केंद्र ने वेन्टिलेटरों की कमी पूरी की। तिरुवनन्तपुरम में स्थित यूबियो बायोफारमासेटिकल (biopharmaceutical) कम्पनी ने टेस्ट किट बनाने शुरू किये। इस तरह राज्य कोविड-19 का मुकाबला करने के मामले में पूर्णतया आत्मनिर्भर बन गया है। क्या दिल्ली, मुम्बई और तमिलनाडु जैसे औद्योगिक रूप से विकसित राज्य ऐसा नहीं कर सकते? तो ‘आत्मनिर्भरता’ का नारा किस काम का? या हम कहें कि देश में कोविड-19 से लड़ने की राजनीतिक इच्छाशक्ति ही नहीं है। स्वास्थ्यकर्मियों के यूनियनों को अब आंदोलन में उतरना ही होगा। 

(लेखक महिला एक्टिविस्ट हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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