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एमएसएमई नीति के नए मसौदे में कुछ भी नया या महत्वपूर्ण नहीं!

एमएसएमई मंत्रालय द्वारा MSMEs के लिए लाई गई राष्ट्रीय नीति का मसौदा कितना महत्वपूर्ण?
MSME policy
Image courtesy : India Today

क्या 16 फरवरी 2022 भारत में 6 करोड़ एमएसएमईज़ (MSMEs) के लिए एक महत्वपूर्ण दिन रहा? या, क्या यह एक और डेड लेटर डे बन गया? सब इस बात पर निर्भर करता है कि उस दिन एमएसएमई मंत्रालय द्वारा MSMEs के लिए लाई गई राष्ट्रीय नीति का मसौदा कितना महत्वपूर्ण साबित होता है। मंत्रालय ने फरवरी महीने के अंत तक मसौदे पर टिप्पणियां आमंत्रित की हैं। या, दूसरे शब्दों में, बुद्धिमान मंत्रिस्तरीय नौकरशाहों की राय में, सभी हितधारकों और आम जनता की प्रतिक्रिया प्राप्त करने के लिए 12 दिन पर्याप्त हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि मसौदा नीति का अच्छी तरह से प्रचार नहीं किया गया है, यहां तक कि न्यूज़क्लिक द्वारा संपर्क किए गए कई एमएसएमई संघों को भी इसकी जानकारी नहीं है।

महामारी के बाद आने वाले इस मसौदा नीति से महामारी के प्रभाव की समस्याओं पर काफी ध्यान देने की उम्मीद की जा सकती थी। लेकिन ऐसा लगता है कि एमएसएमई मंत्रालय के लिए MSMEs पर महामारी का कोई असर नहीं पड़ा और महामारी बीते दिनों की बात हो गई है। 3 फरवरी 2022 को लोकसभा में एक प्रश्न का उत्तर देते हुए MSME मंत्री श्री नारायण राणे ने SIDBI सर्वेक्षण के निष्कर्षों का उल्लेख किया और कहा कि 67% MSME इकाइयाँ महामारी के कारण बंद हो गई थीं, कम से कम FY21 के दौरान कुछ अवधि के लिए।

MSME इकाइयों के 66% ने अपने राजस्व में गिरावट का अनुभव किया।  लगभग 50% ने पूरे वर्ष के लिए राजस्व में 25% से अधिक की गिरावट का अनुभव किया। हालाँकि, उनका मंत्रालय 12 दिनों के बाद एक नीति दस्तावेज का मसौदा जारी करता है और इसमें महामारी के निरंतर जारी हैंगओवर को कम करने का एक भी प्रस्ताव नहीं है। उदाहरण के लिए, जैसे बैंक ऋण माफी या कम से कम उन महीनों के लिए न्यूनतम ब्याज माफी जिसमें उन्होंने काम नहीं किया। सरकार महामारी की चरम अवधि के लिए एमएसएमई मालिकों द्वारा भुगतान किए गए जीएसटी और आयकर को भी वापस कर सकती थी, जिसकी बात नहीं है।

SIDBI सर्वेक्षण, जिसके निष्कर्ष 27 जनवरी 2022 को सरकार को प्रस्तुत किए गए थे, ने उन एमएसएमई इकाइयों की संख्या पर कोई प्रकाश नहीं डाला, जिन्होंने उन खाली महीनों के दौरान भारी ऋण लेने के बाद कार्यशील पूंजी के अभाव में आर्थिक गतिविधियों को पुनर्जीवित नहीं किया। एकमुश्त राशि के रूप में हार्ड कैश का एकमुश्त भुगतान एमएसएमई इकाइयों के लिए पुनरुद्धार प्रोत्साहन के रूप में महत्वपूर्ण है। लेकिन सरकार टैक्स छूट और प्रोडक्टिविटी-लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) जैसे नकद प्रोत्साहन जैसे सभी प्रोत्साहन रियायतों को केवल बड़े कॉरपोरेट्स को देती है।

दूसरे, आर्थिक विकास का पुनरुद्धार देश के सामने सबसे बड़ा एजेंडा है। रिवाइवल का मतलब कोई साधारण रन-ऑफ-द-मिल रिकवरी नहीं है, बल्कि जीडीपी की 9% की उच्च दर तक पहुंचने के लिए पुनरुद्धार है; केवल वही बेरोजगारी जैसी ज्वलंत समस्याओं का समाधान कर सकता है। एमएसएमईज़ की विकास दर को पुनर्जीवित किए बिना अर्थव्यवस्था के विकास दर को 9% पर पुनर्जीवित करना अकल्पनीय है, जो नीति दस्तावेज के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद का 28% हिस्सा है। लेकिन एमएसएमई नीति के मसौदे में एमएसएमईज़ (MSMEs) के लिए न तो विकास लक्ष्य निर्धारित किया गया है और न ही रूट मैप का विस्तार किया गया है।

इसके अलावा, समग्र रूप से एमएसएमई क्षेत्र को शामिल करने वाली एक व्यापक नीति की अपनी सीमाएं होना लाजमी है। अलग-अलग स्ट्रीट कॉर्नर किराना दुकानों से लेकर फ्लिपकार्ट या अमेज़ॉन जैसी बड़ी ई-कॉमर्स कंपनियों के माध्यम से ऑनलाइन आपूर्ति करने वाले लाखों नेटवर्क वाले खुदरा स्टोर, निम्न-प्रौद्योगिकी वाले पीतल के बर्तन या कांच के पदार्थ बनाने वाली इकाइयों से लेकर डिजिटलीकृत (digitalized) उच्च-तकनीकी आईटी और आईसीटी इकाइयों तक- सूक्ष्म, लघु और मध्यम व्यावसायिक इकाइयाँ , चाहे औपचारिक हो या अनौपचारिक, अत्यंत विविध श्रेणियों के होते हैं। विनिर्माण से लेकर व्यापार तक, सेवाएं प्रदान करने से लेकर श्रम की आपूर्ति करने या तकनीकी परामर्श प्रदान करने तक - वे गतिविधियों की एक विस्तृत श्रृंखला में संलग्न हैं। खैर, बड़े उद्योगों के विपरीत, उनका वर्णन सामान्य रूप से एमएसएमई के रूप में किया जा सकता है। लेकिन नीतिगत प्रतिक्रिया के लिए उन सभी को एक ही श्रेणी में मिलाने से वह नीति अस्पष्ट सामान्यताओं (vague generalities) से ग्रस्त हो जाएगी। एमएसएमईज़ की विशिष्ट व्यापक श्रेणियों  के वास्तविक समस्याओं में गहराई तक गए बिना, यह नीति भी सतहीपन की बीमारी से पीड़ित लगती है।

नीति दस्तावेज एमएसएमई क्षेत्र में 16 समस्या वाले क्षेत्रों की पहचान करने के साथ शुरू होता है। विभिन्न स्तरों पर सरकारों द्वारा नीतिगत हस्तक्षेप हेतु 8 कार्य क्षेत्रों का प्रस्ताव करता है। इन समस्या वाले क्षेत्रों में ऋण की उपलब्धता का सवाल, बड़ी इकाइयों, जिनके लिए एमएसएमईज़ जॉबवर्क करते हैं, द्वारा भुगतान में देरी,  प्रौद्योगिकी उन्नयन के लिए कम से कम गुंजाइश, R & D बैक-अप की अनुपस्थिति, कुशल श्रमिकों की कमी और विपणन सहायता जैसे तमाम मुद्दे हैं। आठ कार्य क्षेत्रों की पहचान की गई है, जिनमें से केवल दो को मसौदा नीति द्वारा एक विशिष्ट नौकरशाही फैशन में प्राथमिकता दी गई है। ये हैं सरकार और कानून के विभिन्न स्तरों के बीच भूमिकाओं और जिम्मेदारियों का उचित विभाजन और भारत में एमएसएमईज़ के लिए एक नियामक ढांचा विकसित करना । लेकिन फिर केंद्रीय स्तर पर एमएसएमई विकास के लिए राजकोषीय निधियों के कुल आवंटन और राज्यों को दी जाने वाली राशि के लिए किसी व्यापक लक्ष्य का उल्लेख किए बिना जिम्मेदारियों के संघीय बंटवारे पर विस्तारित चर्चा का क्या फायदा है?

ECLGS अपने आप में MSME क्षेत्र को पुनर्जीवित या विस्तारित करने वाला नहीं है

एमएसएमईज़ के अस्तित्व और विकास के लिए क्रेडिट प्रमुख है। लेकिन सरकार ने मानो अपने सभी ‘अंडों को एक टोकरी में डाल दिया’ (put all its eggs in one basket) यानि आपातकालीन क्रेडिट लाइन गारंटी योजना (ECLGS) में । आर्थिक सर्वेक्षण 2021-22 में कहा गया है कि 19 नवंबर 2021 तक 95.2 लाख MSMEs को आपातकालीन क्रेडिट लाइन गारंटी योजना (ईसीएलजीएस) से लाभ हुआ है, जबकि मसौदा नीति कहती है कि देश में छह करोड़ एमएसएमईज़ हैं।

इसके अलावा, यह केवल उन MSMEs को लाभान्वित करता है जिन्होंने पहले ही बैंकों से उधार लिया था। वहां भी वे अपने मूल उधार के 20% की अतिरिक्त राशि ही उधार ले सकते हैं। इसके लिए सरकार बैंकों को कर्ज की गारंटी देगी। लेकिन नए कर्जदारों या पुराने कर्जदारों, जिन्होंने पहले बैंकों से कर्ज नहीं लिया था, के लिए नए कर्ज की कुल मात्रा का  कोई लक्ष्य निर्धारित नहीं किया गया है। कहीं नहीं दिखता कि सरकार नए कर्जदारों को जारी किए गए नए ऋणों के आंकड़े पेश कर रही हो । बीमार MSMEs का पुनरुद्धार निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। लेकिन महामारी पूर्व-स्तर से ऊपर की वृद्धि हासिल करने के लिए नए उद्यमियों की संख्या में तेजी से विस्तार करने की आवश्यकता है। इस संबंध में नीति का कोई विजन या लक्ष्य नहीं है।

MSMEs के लिए त्वरित भुगतान सुनिश्चित करने हेतु कोई कानूनी साधन नहीं

कोयंबटूर में कंप्रेसर इंडस्ट्रीज एसोसिएशन के अध्यक्ष एम रवींद्रन ने न्यूज़क्लिक को बताया, "MSMEs को उनके द्वारा निष्पादित ऑर्डस के लिए देरी से भुगतान एक गंभीर समस्या है - भले ही वह सार्वजनिक उपक्रमों से हो या निजी क्षेत्र के दिग्गजों से। वर्तमान में, MSMEs को इस समस्या को हल करने के लिए राज्य की राजधानियों और कोयंबटूर जैसे प्रमुख औद्योगिक शहरों में केवल एक सदस्य- उद्योग सचिव- वाले "सुविधा परिषदों" (Facilitation Councils) के दरवाजे पर दस्तक देनी पड़ती है, और उनकी कार्यप्रणाली वांछित नहीं है। यह स्वागत योग्य है कि नीति इस समस्या का समाधान करने का प्रयास करने की बात करती है और जिला स्तर पर ऐसी सुविधा परिषदों के गठन का प्रस्ताव करती है। लेकिन संरचना स्पष्ट नहीं की गई है, और आखिर उद्योग सचिव तमिलनाडु के सभी 38 जिलों में जाकर शिकायतों पर ध्यान नहीं दे सकते हैं। जर्मनी में, यदि भुगतान डेढ़ महीने के भीतर नहीं किया जाता है, तो चूक करने वाले फर्म का पंजीकरण रद्द हो जाता है। इसी तरह, यहां जीएसटीएन पंजीकरण को रद्द करने के लिए एक उचित अवधि से अधिक देरी के लिए कड़े प्रावधान की आवश्यकता है।“MSMEs बिजली से वंचित हैं जबकि देश में कथित तौर पर बिजली का आधिक्य है!

नीति कुछ अन्य महत्वपूर्ण समस्या क्षेत्रों की उपेक्षा करती है; विशेष रूप से, पानी और बिजली की सुनिश्चित आपूर्ति जैसे बुनियादी ढांचे का संकट। उदाहरण के तौर पर उत्तर प्रदेश को लेते हैं। अकेले मुरादाबाद जिले में लगभग 10,000 अनौपचारिक पीतल के बर्तन एमएसएमई इकाइयां हैं, पीएम के निर्वाचन क्षेत्र वाराणसी के पास भदोही में 2000 कालीन इकाइयां, मिर्जापुर और अन्य जिलों में 20,000 कालीन इकाइयां हैं (और उनमें से 5000 अब बंद हैं), और लखनऊ के आसपास 50,000-60,000 चिकन कढ़ाई इकाइयां हैं और पश्चिमी यूपी में हजारों गुड़ की इकाइयां हैं । पावरलूम की संख्या बाराबंकी में 11,000, अलीगढ़ में 43,000, हापुड़ में 10,000 और वाराणसी में एक लाख से अधिक है। कानपुर में 2000 जूते और चमड़े के सामान की इकाइयाँ हैं और आगरा में ऐसी 5000 इकाइयाँ हैं। उपरोक्त सभी अनौपचारिक क्लस्टर बिजली पर निर्भर हैं, लेकिन सीएम श्री योगी शून्य-बिजली-कटौती के अपने वादे पर बुरी तरह विफल रहे और 4-6 घंटे के लिए दैनिक बिजली कटौती होती है। ये इकाइयां 12-18 प्रतिशत जीएसटी का भुगतान करती हैं। महामारी के चरम के दौरान इन हजारों इकाइयों को बंद कर दिया गया, और अब तक पुनर्जीवित नहीं हुए हैं । केंद्र अक्षम राज्य सरकार पर बोझ डालता है और ये समस्याएं उनकी प्रोत्साहन योजनाओं में नहीं आती हैं। ये क्लस्टर उत्तर प्रदेश की गैर-कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। विधानसभा चुनाव को लेकर अब मतदाताओं में गुस्सा देखने को मिल रहा है क्योंकि पहले तीन राउंड की जमीनी रिपोर्ट से यही संकेत मिलता है।

केंद्र सरकार का दावा है कि देश में अब बिजली अधिशेष है और तकनीकी रूप से अपने स्वयं के कमजोर वित्त के कारण यूपी सरकार एनटीपीसी से पर्याप्त बिजली खरीदने और इन सभी एमएसएमई समूहों को 24X7 बिजली आपूर्ति सुनिश्चित करने में असमर्थ है। लेकिन एक अक्षम राज्य सरकार पर इसका बोझ क्यों डाला जाए? केंद्र एनटीपीसी के तहत एक समर्पित बिजली वितरण विंग की स्थापना क्यों नहीं कर सकता और केवल औद्योगिक समूहों में 24X7 बिजली की आपूर्ति करता? यह नीति उद्योग के लिए शून्य बिजली कटौती की घोषणा क्यों नहीं कर सकती? विशेष रूप से, जब ये सभी क्लस्टर बड़े पैमाने पर निर्यात के लिए उत्पादन कर रहे हैं?

कच्चे माल की कीमतों में भारी बढ़ोतरी से प्रभावित MSMEs

मांग भले ही गिर गई हो, लेकिन विडंबना यह है कि कच्चे माल की कीमतों में गिरावट नहीं आई है। वीके शेखर, जो बैंगलोर में केएन ऑटोमैट्स के मालिक और एसएसआई हैं, ने न्यूज़क्लिक को बताया, “घटक इकाइयां और सहायक इकाइयां मुख्य रूप से कच्चे माल के रूप में एमएस रॉड्स (माइल्ड स्टील रॉड्स) का उपयोग करती हैं। लेकिन पिछले एक साल में एमएस रॉड, फैब्रिकेशन और मशीन क्लैडिंग के काम में इस्तेमाल होने वाली एमएस शीट, एमएस प्लेट्स की कीमतें 40% से 50% तक बढ़ गई हैं। यहां तक की पीतल, तांबा, रबर और एल्युमीनियम के कच्चे माल की कीमतों में भी 50-60% की वृद्धि हुई है। यह हमारे मार्जिन पर जबरदस्त दबाव डालता है। आपूर्तिकर्ता भी टाटा स्टील, जिंदल स्टील और कल्याणी स्टील्स आदि जैसी बड़ी कंपनियां हैं। उन्होंने अपने पहले के महामारी के नुकसान की भरपाई हेतु, बिना किसी औचित्य के, कीमतों में बढ़ोतरी की है। हम कंपोनेंट निर्माता, जो उन पर निर्भर हैं, असहाय हैं। सरकार केवल कुछ चुनिंदा वस्तुओं, जैसे सीमेंट की कीमतों को नियंत्रित करती है। लेकिन वह अन्य वस्तुओं के कच्चे माल की आपूर्ति को विनियमित नहीं करते हैं। नीति में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो व्यापक रूप से उपयोग किए जाने वाले कच्चे माल के मामले में मूल्य विनियमन का प्रावधान करता हो, जबकि एकाधिकार मूल्य हेरफेर यहीं होता है ।"

उन्होंने यह भी कहा, “जमीन की कीमत बहुत बढ़ गई है और कई MSMEs किराए के शेड से ही काम कर रहे हैं और किराया भी बढ़ गया है। यहां तक कि जहां सरकार जमीन की पेशकश कर रही है, कुछ मध्यस्थ दलालों द्वारा जमीनें हड़प ली जाती हैं, जो फिर से इन जमीनों को वास्तविक खरीदारों को उच्च कीमत पर बेचते हैं। पहले सरकार 10,000 वर्ग फुट के भूखंड दस साल के पट्टे पर बेचती थी, जो सूक्ष्म इकाइयों के लिए सस्ती थी लेकिन अब केवल 2 एकड़ या 3 एकड़ भूखंड ही पट्टे पर बेचे जा रहे हैं जिसके लिए खरीदार 3 साल बाद एकबारगी मालिक बन सकते हैं और यह विकल्प सूक्ष्म और लघु इकाइयों के लिए वहनीय नहीं है।"

MSMEs की भूमि की आवश्यकता सरकार द्वारा विकसित भूखंडों की आपूर्ति से कहीं अधिक है। पीआईबी की 5 फरवरी 2020 की प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया है कि देश में 3377 औद्योगिक पार्क और सम्पदाएं थीं, लेकिन UNIDO ने इनमें से 498 एसएमई समूहों की पहचान की थी और भारत सरकार ने खुद 3220 एसएमई समूहों की पहचान की थी। इसका मतलब है कि MSMEs बाजार में खुद जमीन खरीद रही हैं। ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके ही काफी बचत है, लेकिन वे जमीन खरीदने में होने वाली परेशानी के कारण विनिर्माण क्षेत्र में उद्यम नहीं कर रहे हैं। पानी, बिजली और अच्छी परिवहन सुविधा की उपलब्धता के साथ जमीन का पता लगाना मुश्किल है। कोयंबटूर के एम. रवींद्रन का मानना है कि यदि औद्योगिक सम्पदा की संख्या सौ गुना बढ़ जाती है और सरकार द्वारा सस्ते में औद्योगिक भूखंडों की पेशकश की जाती है, तो औद्योगीकरण छलांग लगाएगा, जैसा कि तमिलनाडु में लघु उद्योग विकास निगम (SIDCO) ने 99 साल के पट्टे (99-year lease) के लिए सस्ते दरों पर किया था।“ 

शेखर ने आगे कहा कि “नए परिभाषित मध्यम उद्योगों को एक समान नीति के लिए सूक्ष्म और लघु उद्योगों के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए। न केवल मांगें अलग हैं, अक्सर सूक्ष्म इकाइयां मध्यम इकाइयों के चलते ही परेशानी झेलती हैं।

MSMEs की अन्य परेशानियाँ जिनकी उपेक्षा यह नीति करती हैं।कई MSMEs के लिए परिवहन भी एक बड़ी परेशानी बनी हुई है और, हालांकि वे जीएसटी के दायरे से बाहर हैं, जब वे अपना निर्मित सामान डीलरों को ई-वे बिल के बिना भेजते हैं, तो उन्हें चेकपोस्ट पर बहुत उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। भारतीय रेलवे MSMEs के लिए कोई रियायत नहीं देता और मांग करता है कि वे एक पूरी बोगी बुक करें जिससे माल गंतव्य पर समय से उतारा जा सके, न कि मध्यस्थ स्टेशनों पर। चेन्नई में एक एमएसएमई मालिक के अनुसार, रेलवे पार्सल सेवा पार्सल वैन में जगह की उपलब्धता के आधार पर विभिन्न ट्रेनों द्वारा किश्तों में माल भेजती है, जिससे देरी और समन्वय का सिरदर्द रहता है।

कई सूक्ष्म इकाइयों का दायरा बहुत सीमित रहता है क्योंकि वे अखिल भारतीय स्तर पर लाभकारी विपणन करने में असमर्थ होते हैं या निर्यात की पेचीदगियों में महारत हासिल नहीं कर सके हैं। खरीद कोटा (procurement quota) केवल सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों के लिए तय किया गया है, निजी बड़ी कंपनियों के लिए नहीं। उन्होंने कहा कि बड़ी कंपनियों को कर रियायतें MSMEs से उनकी खरीद की सीमा तक बांधा जाना चाहिए। MSMEs पर मसौदा नीति ऐसे मुद्दों को संबोधित नहीं करती।

सरकार ने MSMEs को प्रोडक्शन-लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम जैसी कुछ मेक-इन-इंडिया योजनाओं से पूरी तरह से बाहर रखा है। विनिर्माण क्षेत्र में भी तेजी से बढ़ते digitalisation से मौजूदा कई इकाइयों की तकनीक पुरानी हो जाएगी। यहां तक कि विश्व बैंक का भी अनुमान है कि मौजूदा इकाइयों में से 75% अगले दशक में पुरानी हो जाएंगी। नई नीति में इस दीर्घकालिक चुनौती के समाधान काअवसर है। लेकिन इस मसौदा नीति में इस चिंता का कोई नामो-निशान नहीं है।

मध्यम, लघु और सूक्ष्म इकाइयों की पुनर्परिभाषा भी मध्यम इकाइयों के लिये पक्षपाती है। मोदी सरकार के पिछले मुख्य आर्थिक सलाहकार इस बात की वकालत कर रहे थे कि नीति को SMEs का समर्थन करने के बजाय सूक्ष्म और लघु इकाइयों को मध्यम इकाइयां बनाने हेतु बढ़ावा देना चाहिए, जो उनके अनुसार, अर्थव्यवस्था में कम उत्पादकता और अक्षमता का समर्थन करने के बराबर है। पिछले साल एसबीआई रिसर्च यूनिट द्वारा एक विवादास्पद "अध्ययन" में दावा किया गया था कि अर्थव्यवस्था में अनौपचारिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 2011 में 56% से घटकर 2021 में 10-15% हो गई थी। उन्होंने इस बात की पुष्टि नहीं की कि वे इस आंकड़े पर कैसे पहुंचे। लेकिन इसने दिखाया कि नीतिगत हलकों के उच्च स्थानों पर छोटे और सूक्ष्म उद्योगों की तुलना में मध्यम उद्योगों के लिए प्रचार और सुरक्षात्मक प्रयासों को वरीयता देने का प्रयास है। 

मोदी सरकार के लिए ‘छोटा खूबसूरत’ (small is beautiful) नहीं रहा। MSMEs पर मसौदा नीति जैसी नीतियां उन्हें केवल बुरे के रूप में दिखेंगी।लेकिन SMEs का मैक्रो-इकोनॉमिक महत्व है- कुल मांग बढ़ाने के लिए, रोजगार पैदा करने में, अर्थव्यवस्था में समग्र निवेश बढ़ाने में, क्षेत्रीय और पिछड़े क्षेत्र के विकास में, उचित मूल्य-श्रृंखला संतुलन बनाए रखने के लिए और अंतर-क्षेत्रीय व ग्रामीण-शहरी संरचनात्मक परिवर्तन बनाए रखने के लिए। पूंजीवाद के तहत, पूंजी की सघनता और केंद्रीकरण छोटे उद्यमों के उभरने के साथ-साथ होता है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का 60% हिस्सा छोटी फर्मों में है और इटली में यह आंकड़ा 80% से अधिक है। MSMEs मेक-इन-इंडिया के लिए महत्वपूर्ण हैं- वे अमेरिका या चीन की तुलना में कहीं अधिक सस्ता सामान बना सकते हैं!

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