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सिर्फ़ 31 महीने की ‘महा विकास अघाड़ी’: किसका कितना नफ़ा कितना नुक़सान ?

महाराष्ट्र में एक नाथ शिंदे का बग़ावत फिलहाल कामयाब हो गई है, और उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा भी दे दिया है, ऐसे में देखने वाली बात ये है कि 31 महीने चली तीन पार्टियों की सरकार ने क्या खोया क्या पाया?
Uddhav Thackeray
Image courtesy : Mumbai Mirror

कहने को तो समान विचारधाराएं ही दो या उससे ज्यादा पार्टियों को क़रीब ले आती हैं, जैसे भाजपा और शिवसेना। इन दोनों की विचारधाएं समान, धर्म के प्रति कट्टरता समान, अयोध्या पर नज़रिया समान। लेकिन ये समान विचारधाराएँ तब ही साथ चल सकती हैं, जब तक सत्ता के लोभ से दूर वाली राजनीति पर पदों का पैमाना तय किया जाता रहे। शायद इसी पैमाने पर भाजपा और शिवसेना ख़री नहीं उतर सकीं। जिसके कारण ‘तेरा मुख्यमंत्री-मेरा मुख्यमंत्री’ की ज़िद ने दोनों के रास्ते अलग कर दिए। हालांकि शिवसेना ने हट नहीं छोड़ी और विचारधारा से विपरीत जाकर दो सेक्युलर विचारधारा वाली पार्टियों के साथ सत्ता हालिस कर ली। लेकिन अपनी विचारधारा को ढाल बनाकर तेज़ी से सत्ता के शिख़र की ओर दौड़ रही भाजपा के सामने ये तीनों दल ज्यादा दिनों तक एक दूसरे का साथ नहीं दे सके। और अंतत: सरकार गिर गई।

शिवसेना-कांग्रेस-एनसीपी ने जब महाराष्ट्र में सरकार बनाई थी, तभी एक सवाल पूरे राजनीतिक जगत में तेज़ी से घूमा था कि ये सरकार आख़िर कितने दिन चलेगी?, जिसका जवाब करीब 31 महीने के तौर पर सामने आ गया है। इन 31 महीने में तीनों राजनीतिक दलों ने क्या खोया और क्या पाया ये जानना बेहद अहम है।

बता दें कि साल 2019 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना और भाजपा साथ मिलकर चुनाव लड़े थे। एनडीए गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ जीतकर आई थी, लेकिन मुख्यमंत्री पद पर काबिज होने को लेकर शिवसेना और भाजपा की 25 साल पुरानी दोस्ती टूट गई थी और शिवसेना ने एनसीपी-कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया था। विचारधारा के दो विपरित छोर पर खड़ी पार्टियां सियासी मजबूरियों की वजह से साथ आईं और महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी गठबंधन बना।

ये कहना ग़लत नहीं होगा कि उद्धव ठाकरे का मुख्यमंत्री बनना महाराष्ट्र की राजनीति की ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि ठाकरे परिवार से संवैधानिक पद पर बैठने वाले वो पहले व्यक्ति बने थे। ऐसे में उद्धव ठाकरे ने कई उतार-चढ़ावों से गुजरते हुए ढाई साल पूरे किए, लेकिन एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना विधायकों की बगावत ने उन्हें मुख्यमंत्री पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया और इसके साथ ही महा विकास अघाड़ी सरकार का अंत हो गया। ऐसे में शिवसेना ही नहीं कांग्रेस और एनसीपी को भी सियासी तौर पर बड़ झटका लगा है।

आपको बता दें कि महाराष्ट्र में शिवसेना और भाजपा 1984 में करीब आईं और 1989 में गठबंधन कर लिया। हिंदुत्व के मुद्दे ने शिवसेना-भाजपा को जोड़े रखा था, लेकिन सत्ता के सिंहासन ने दोनों दलों की राहें जुदा करा दीं। भाजपा से नाता तोड़कर शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री जरूर बन गए, महा विकास अघाड़ी के सियासी प्रयोग में सत्ता जरूर उद्धव को मिल गई थी, लेकिन उन्हें अपनी छवि से लेकर हिंदुत्व के विचारधारा तक का नुकसान उठाना पड़ा है। राज ठाकरे से लेकर शिवसेना से बगावत करने वाले एकनाथ शिंदे ने उद्धव ठाकरे पर हिंदुत्व के एजेंडे से हटने का आरोप लगाया और कहा कि बाला साहेब ठाकरे के मूल उद्देश्यों से पार्टी भटक गई है।

उद्धव ठाकरे जब तक सत्ता में नहीं आए थे तब तक उनकी छवि बेदाग थी। उद्धव पर कभी किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई आरोप नहीं लगा था और सत्ता में रहते हुए उद्धव ने अपनी इमेज को तो बचाए रखा, लेकिन पार्टी की हिंदुत्व की छवि नहीं बचा सके। कांग्रेस-एनसीपी के साथ होने के चलते हिंदुत्व के मुद्दे पर समझौता करने के आरोप में ढाई साल तक सफाई देनी पड़ी। जिसके लिए उद्धव ठाकरे और उनके परिवार को अयोध्या तक जाना पड़ा।

सरकार गई तो गई लेकिन सबसे बड़ा संकट तब आन खड़ा हुआ जब शिवसेना के मालिकाना हक को लेकर आवाज़ें बुलंद होने लगीं। दरअसल एकनाथ शिंदे की बगावत ने शिवसेना को पूरी तरह से बिखेर कर रख दिया। जबकि पहली बार ऐसा भी हुआ है जब ठाकरे परिवार को किसी ने चुनौती दी हो। ऐसा इसलिए क्योंकि पार्टी के करीब 40 विधायक एकनाथ शिंदे के साथ चले गए जबकि कई मंत्री भी बग़ावत पर अमादा हैं। जिसके बाद शिवसेना का राजनीतिक भविष्य साफ तौर ख़तरे में दिखाई दे रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या उद्धव के हाथ से संगठन का नियंत्रण भी चला जाएगा?  और अगर ऐसा हुआ तो क्या शिवसेना बिना ठाकरे परिवार के चलेगी?

साल 1991 में पार्टी का बड़ा चेहरा रहे छगन भुजबल चले गए, 2005 में नारायण राणे चले गए, साल 2005 में ही उद्धव ठाकरे के बड़े और चचेरे भाई राज ठाकरे भी अलग हो गए। हालांकि इन सबके बावजूद उद्धव ठाकरे का रुतबा कम नहीं हुआ लेकिन अब जब एकनाथ शिंदे के कंधे का सहारा लेकर भाजपा ने अपने सभी राजनीतिक शस्त्रों का इस्तेमाल किया तब उद्धव ठाकरे को भी पद छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा, जिसके बाद पार्टी के भविष्य पर भी खतरा मंडराने लगा। शायद यही कारण है कि उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री के साथ-साथ एमएलसी पद से भी इस्तीफा दे दिया और कहा कि अब पार्टी कार्यालय में बैठूंगा और पार्टी को फिर से खड़ा करूंगा। जो साफ दर्शाता है कि उद्धव के सामने पार्टी को बचाए रखने की बड़ी चुनौती है।

कांग्रेस ने शिवसेना के साथ रहकर क्या हासिल किया?

कांग्रेस महाराष्ट्र की सत्ता में हमेशा बड़े भाई की भूमिका में रहा करती थी, लेकिन 2019 में बने महा विकास अघाड़ी में तीसरे नंबर की जूनियर पार्टनर की भूमिका में थी। कांग्रेस को शिवसेना के साथ गठबंधन के लिए वैचारिक रूप से समझौता करना पड़ा, जिसमें न तो उसे एनसीपी की तरह डिप्टी सीएम की पोस्ट मिली और न ही मलाईदार विभाग।

हालांकि, महाराष्ट्र ही एक बड़ा राज्य है, जहां सत्ता में कांग्रेस शामिल थी। महा विकास अघाड़ी के सत्ता से हटने से कांग्रेस फाइनैंशियल पावरहाउस कहे जाने वाले राज्य से एक्जीक्यूटिव कंट्रोल खो चुकी है। सत्ता से बाहर होने के बाद, कमजोर केंद्रीय नेतृत्व के चलते राजनीतिक रूप से कमजोर दिखने वाली कांग्रेस और भी खराब स्थिति में पहुंच सकती है। कांग्रेस पार्टी कभी पूरे देश में एकछत्र राज करती थी, 2014 के बाद से उसी पार्टी का ग्रॉफ लगातार नीचे जा रहा है।

2022 में कांग्रेस के हाथ से पंजाब भी फिसल गया। अब पार्टी की सिर्फ छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सरकार बची है। तो वहीं महाराष्ट्र में महा विकास अघाड़ी सरकार के गिरने से कांग्रेस के हाथ से एक और राज्य चला गया। तमिलनाडु और झारखंड में वो सहयोगी है। जिसमें झारखंड का मामला भी बिगड़ने लगा है। ऐसे में 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव से पहले कांग्रेस के लिए लिए ये एक बड़ा झटका है। कांग्रेस ने अपना सत्ता वाला एक राज्य और गंवा दिया है।

एनसीपी का क्या होगा?

उद्धव सरकार गिरने के बाद केवल शरद पवार अपनी पार्टी एनसीपी को बेहतर स्थिति में रख सकते हैं। पार्टी के पास इतनी क्षमता है कि वह कांग्रेस के कमजोर होने से बने स्पेस को कवर कर सकेंगे। अभी यह कहना जल्दबाजी होगी लेकिन आगे चलकर अगर महाराष्ट्र में राजनीतिक माहौल भाजपा बनाम एनसीपी बने तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हालांकि, सत्ता से हटने का नुकसान भी एनसीपी को उठाना पड़ेगा।

इस बात को ज़िक्र करना भी बेहद ज़रूरी है कि सत्ता मिलने के बाद भले ही उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन गए थे, लेकिन महा विकास अघाड़ी की मुख्य कुंजी शरद पवार के पास ही थी। उद्धव सरकार के मलाईदार मंत्रालय और गृह जैसा भारी भरकम विभाग भी एनसीपी ने अपने पास रखा।

पार्टी को नुकसान की बात करें तो मौजूदा वक्त में एनसीपी के दो बड़े नेता अलग-अलग मामलों में जेल में हैं, जिनमें से एक नवाब मलिक जो राज्य में मंत्री थे और दूसरे अनिल देशमुख हैं, जो उद्धव सरकार के गृहमंत्री थे। वहीं, एनसीपी नेता व राज्य के परिवहन मंत्री अनिल परब भी केंद्रीय जांच एजेंसियों के रडार पर है। ऐसी स्थिति में शरद पवार के लिए राजनीतिक चुनौतियां खड़ी हो जाएंगी। यही नहीं जांच एजेंसियों के घेरे में आए एनसीपी नेताओं की मुसीबतें और भी ज्यादा बढ़ सकती हैं।

फिलहाल... ग़ैर समन्वित विचारधाराओं को मिलाकर जो संगम तैयार हुआ था, उसमें गिनती करने पर ज्यादा नुकसान ही नज़र आ रहा है, जबकि उपलब्धियां बेहद कम। हालांकि ये जिस तरह से सरकार चली उससे ये ज़रूर कहा जा सकता है कि आने वाले वक्त में महाराष्ट्र के अंदर शरद पवार की पावर में इज़ाफा ज़रूर हो सकता है।

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