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परिवारनामा : कहानी एक खोए हुए इतिहास की

मार्क्स ने अपने प्रिय फ्रेंच उपन्यासकार बाल्ज़ाक के बारे में लिखा है कि, "अगर आपको फ्रांस के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास के बारे में जानना है, तो बाल्ज़ाक के उपन्यासों को पढ़ना चाहिए।" परिवारनामा पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार मुझे मार्क्स का यह कथन याद आता है।
Parivarnama book

बात सन् 1989 की है, मेरा छात्र जीवन समाप्त हो गया था। मेरा वामपंथी राजनीति के साथ-साथ पत्रकारिता से भी जुड़ाव था तथा उस समय मैं दिल्ली ही में था। 1जनवरी 1989 को दिल्ली के निकट साहिबाबाद में जननाट्यमंच से जुड़े रंगकर्मी सफ़दर हाशमी पर नुक्कड़ नाटक खेलते समय कांग्रेस समर्थित गुंडों ने हमला किया। उसमें उनकी और नेपाली मजदूर राम बहादुर की मौत हो गई। उन दिनों की मुझे याद है- सफ़दर की प्रतिबद्धता के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में जननाट्यमंच ने उनके काम को जारी रखने का फैसला किया। सफ़दर पर हमले से बाधित हल्लाबोल नामक नाटक को फिर से उसी स्थान पर उनकी मृत्यु के दूसरे ही दिन उनकी पत्नी मलयश्री ने अन्य कलाकारों के साथ मिलकर उनकी इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति को पूरा किया। दिल्ली के हज़ारों कलाकार, बुद्धिजीवी और कार्यकर्ता उसमें शामिल हुए। मैं खुद एक दर्शक के रूप में उसमें शामिल था। सफ़दर की शवयात्रा में उमड़ी भारी भीड़ को देखकर मैं सोचता रहा कि यह कौन सी जिजीविषा और संघर्ष चेतना है, जिसके कारण इतना बड़ा सदमा झेलने के बाद भी सफ़दर का परिवार लगातार एक बेहतर दुनिया की लड़ाई में जी-जान से जुटा रहा और आज भी उसी में लगा है।

सफ़दर हाशमी की बड़ी बहन शैहला हाशमी ग्रेवाल की पुस्तक परिवारनामा पढ़ते हुए मुझे अपने अनेक सवालों का जवाब मिल गया। मार्क्स ने अपने प्रिय फ्रेंच उपन्यासकार बाल्ज़ाक के बारे में लिखा है कि, "अगर आपको फ्रांस के सामाजिक और राजनीतिक इतिहास के बारे में जानना है, तो बाल्ज़ाक के उपन्यासों को पढ़ना चाहिए।" परिवारनामा पुस्तक पढ़ते हुए बार-बार मुझे मार्क्स का यह कथन याद आता है। यह पुस्तक न इतिहास की पुस्तक है, न उपन्यास है। यह उन्नीसवीं सदी से लेकर आज तक की एक परिवार की दिलचस्प दास्तान है, जिसमें इतिहास, समाजशास्त्र और संस्कृति सब कुछ है। एक तहज़ीब जिसे गंगा जमुनी तहज़ीब कहते हैं ; की अनोखी दास्तान भी है। इसमें दिल्ली के बसने और उजड़ने की दास्तान है, जो शाहजहांनाबाद से लेकर आज की नयी दिल्ली तक फैला हुआ है। आज के दौर में निरन्तर जब अलगाववाद बढ़ रहा है तथा समाज में बहुसंख्यकवाद और वो-हम की भावना को आगे बढ़ाया जा रहा है, उस वक्त इस पुस्तक का महत्व बहुत बढ़ जाता है।

दिल्ली के शाहजहांनाबाद में अट्ठारहवीं सदी के प्रारम्भिक समय में हाशमी परिवार सम्भवतः कश्मीर से आकर यहाँ बसा था। इसी पुस्तक के पहले अध्याय में लेखिका लिखती हैं," मेरे बड़े भाई सुहेल हाशमी ने एक बातचीत के दौरान बताया कि हमारे परनाना के नाम से पता चलता है कि वे कश्मीरी या मुग़ल थे, जो दिल्ली आकर बस गए थे। सुहेल के मुताबिक यह मुमकिन है कि वे कश्मीरी ही हों, क्योंकि वे कश्मीरी कटरे में बसे हुए थे और 'ख़्वाजा मुग़ल' का ख़िताब उन्हें दिल्ली दरबार में मिला। हम यह भी कह सकते हैं कि हमारे आबा-ओ-अजदाद, मुग़ल और कश्मीरियों के मिलाप का नतीज़ा हों, लेकिन ये सब कयास और अटकलें ही हैं। सबसे अहम बात यह है कि वे लोग देशभक्त थे तथा उन्होंने हिन्दुस्तान की आज़ादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था।(पृष्ठ सं.-16)

किताब के पहले अध्याय में शाहजहांनाबाद के बसने और वहाँ के घरों-महलों के स्थापत्य के साथ-साथ एक मिली-जुली संस्कृति की दिलचस्प दास्तान दर्ज की गई है। इसमें इतिहास का एक महत्वपूर्ण पन्ना 1857 के सैनिक विद्रोह का भी है, जिसका एक बड़ा केन्द्र दिल्ली था, जहाँ पहुँचकर विद्रोही सिपाहियों ने एक बार ही सही अंतिम मुग़लिया चिराग़ बहादुर शाह ज़फ़र को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया, हालाँकि उस समय तक बादशाह की हैसियत दिल्ली के लालकिले तक ही सीमित रह गई थी। दिल्ली पर अंग्रेजों के कब्जे के बाद जिस तरह की भयानक कत्लोगारत अंग्रेजों ने की, उसका लोमहर्षक चित्रण भी इस पुस्तक में है।

लेखिका शैहला हाशमी ने जिस शाहजहांनाबाद का संक्षिप्त परिचय इसमें दिया है,वह 1857 के महान विद्रोह के दौरान और बाद में अंग्रेजों द्वारा इसे गम्भीर रूप से विकृत कर दिया गया था। हाशमी परिवार की कहानी शाहजहांनाबाद की गलियों और सड़कों से खुलती हुई कश्मीरी कटरा, दरियागंज और कश्मीरी गेट तक जाती है।

कहानी की शुरुआत उन्नीसवीं सदी के मध्य में जाने माने सूफ़ी ख़्वाजा नवाब अली से होती है। उनके बेटे मोहम्मद नवाब मिर्ज़ा तारकश लेखिका के परदादा ; एक हाफ़िज़ (जिन्हें कुरान पूरी तरह से याद हो), एक मस्जिद के इमाम और एक विद्वान थे, जो फ़ारसी और अरबी पढ़ाते थे।1908 में उनका निधन हो गया। उनके सबसे बड़े बेटे मौलाना अहमद सईद एक विद्वान,कवि और कुरान के प्रसिद्ध व्याख्याकार थे। उन्होंने धार्मिक विषयों पर लगभग 20 किताबें लिखीं और कुरान का अनुवाद किया। वे एक प्रमुख राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद के महासचिव थे,जो एक प्रमुख ब्रिटिश विरोधी राष्ट्रवादी संगठन था,जिसने मुस्लिम साम्प्रदायिकता और पाकिस्तान के विचार का कड़ा विरोध किया था। वे भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और कांग्रेस के साथ निकटता से जुड़े थे। उन्होंने अपने जीवन का काफी समय ब्रिटिश जेलों में बिताया था। 1947 में दिल्ली में हो रही साम्प्रदायिक हिंसा और दंगों के पागलपन के दौरान उन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए अथक प्रयास किया और मुसलमानों को पाकिस्तान नहीं जाने के लिए; मनाने की कोशिश की।

वे इस दिशा में गांधी जी के प्रयासों से निकटता से जुड़े थे। पुस्तक में इस प्रयास से सम्बन्धित बहुत खुलासा करने वाली कुछ घटनाओं का वर्णन किया गया है, जिसमें यह भी शामिल है, उनके अपने भाई इदरीस हाशमी ; लेखिका के दादा पाकिस्तान जाने की मजबूरी क्यों महसूस करते थे। आज़ादी के बाद अपनी विपन्न आर्थिक स्थिति के बावजूद उन्होंने नेहरू द्वारा उन्हें सरकारी पेंशन और आवास देने की पेशकश यह कहकर ठुकरा दी थी कि आज़ादी की लड़ाई लड़ना मेरा कर्तव्य था, उसकी कोई कीमत नहीं हो सकती है। 1959 में उनकी मौत पर नेहरू जी ने उनके ताबूत के पास खड़े होकर कहा था कि "आख़िरी दिल्ली वाला भी चला गया।"

इस पुस्तक में हमें 1940 के दशक में इदरीस हाशमी के परिवार के माध्यम से उस समय के दिल्ली के सामाजिक और राजनीतिक परिवेश को बहुत ही निकट से बताने की कोशिश की है। इदरीस हाशमी ने राष्ट्रवादी प्रभाव में आकर सरकारी नौकरी छोड़ दी तथा अपने एक सहयोगी श्रीवर्मा के साथ फर्नीचर का व्यवसाय शुरू किया। कश्मीरी गेट के चाभीगंज इलाके में वर्मा हाशमी के नाम से एक दुकान शुरू की, जिसे बाद में हाशमी ब्रदर्स के नाम से जाना गया। उनके तीन बेटे अनीस हाशमी, हनीफ हाशमी (लेखिका के पिता) और हमीद हाशमी अपने काॅलेज के दिनों में (हिन्दू काॅलेज; जो उन दिनों कश्मीरी गेट में था) वामपंथी प्रभाव में आए और एआईएसएफ के कार्यकर्ता बन गए। 1940-42 के बीच तीनों भाई कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। कश्मीरी गेट में उनका घर कम्युनिस्टों का एक बैठक स्थल बन गया और वहाँ कम्युनिस्ट साहित्य भी छपने लगा।

1947 में आज़ादी के आने के साथ ही सारे देश की तरह दिल्ली को भी साम्प्रदायिकता की आग जलाने लगी। लेखिका इसका बहुत ही मर्मस्पर्शी चित्रण पुस्तक में करती हैं। लोग किस प्रकार स्वयं को आतंकित और असुरक्षित महसूस कर रहे थे तथा दंगाइयों के ख़िलाफ़ खुद को और अपने पड़ोसियों/मोहल्ले के लोगों की रक्षा के लिए आवाज़ उठा रहे थे। हाशमी परिवार को अपने व्यवसाय में बहुत नुकसान उठाना पड़ा। उनकी सम्पत्ति ख़तरे में पड़ गई और बर्दाश्त की हद तब हुई जब अनीस हाशमी पर जानलेवा हमला हुआ। इदरीस हाशमी; जो अपने भाई मौलाना सईद की तरह भारत नहीं छोड़ने के लिए दृढ़ थे, हिल गए और अपने दो बेटों के साथ पाकिस्तान जाने का फैसला किया। अब बस उनके एक पुत्र लेखिका के पिता हनीफ हाशमी ही भारत में रह गए।

ज़िन्दगी में मिले इन त्रासदीपूर्ण अनुभवों के बावजूद हाशमी भाइयों ने पाकिस्तान में भी प्रगतिशील सोच के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जारी रखी और वहाँ के कम्युनिस्ट आंदोलन के साथ निकटता से जुड़े रहे। उन्होंने फ़ैज़ अहमद फ़ैज़, सज्जाद ज़हीर और अन्य प्रसिद्ध कम्युनिस्टों के साथ काम किया। बेगम हाशमी लोकतांत्रिक महिला संघ से जुड़ीं। अनीस और हमीद सक्रिय पत्रकार बन गए। कट्टरपंथी पाकिस्तान में एक कम्युनिस्ट के रूप में जीने के लिए उन्हें बहुत संघर्ष करना पड़ा। रावलपिंडी षड्यंत्र मामले में उन्हें फ़ैज़ और सज्जाद ज़हीर के साथ गिरफ़्तार किया गया।

यह पुस्तक सीमा पार चले गए उन लोगों का मानवीय चेहरा प्रस्तुत करती है, ख़ासकर आज के दौर में जहाँ सीमा पार के लोगों को 'अन्य' घोषित कर उनका विकृत चेहरा प्रस्तुत किया जा रहा है। यह इस किताब का एक महत्वपूर्ण योगदान है। इसके बाद की कहानी हनीफ हाशमी परिवार की है,जो भारत में रह गए। यह विभाजन से तबाह हुए परिवार के प्यार, चुनौतियों और उपलब्धियों की कहानी है, जिसका एक समृद्ध अतीत था,जिसमें उनके परिवार ने सौ से अधिक मजदूरों को रोज़गार दिया था। परिस्थितिवश हुई बदहाली के बावजूद उस परिवार ने अपने लोगों को जोड़े रखने में न केवल सफलता पाई बल्कि चुनौतियों को पार भी किया, जिसमें साहित्य,कला, रंगमंच और पुस्तकें भी थीं।

यह कहानी सरल भाषा में और स्वाभाविक परिवेश के कारण बरबस हमारे अंतर्मन को अपनी ओर आकर्षित करती है। एक समय था,जब हनीफ हाशमी की पत्नी क़मरजहां आज़ाद अपने बच्चों के साथ दिल्ली में बिलकुल अकेली थीं, क्योंकि उनका व्यापार चौपट हो गया था। हनीफ हाशमी को जीवन-यापन करने के लिए अलीगढ़ जाना पड़ा था। बिल का भुगतान न करने पर पानी और बिजली का कनेक्शन काट दिया गया था और भोजन की व्यवस्था करना मुश्किल था। यह कहानी बताती है, कैसे स्थिति को देखते हुए प्यारा सिंह सहराई ; जो पंजाब के कवि और कामरेड थे, श्रीमती हाशमी के राखी भाई बन गए। वे परिवार की रोज़मर्रा की चीज़ों के साथ प्रतिदिन घर आने लगे। एक झोला ; जिसे बच्चे जादू का झोला समझते थे, जिनसे उनकी सभी जरूरतें पूरी होगीं,वो उनके साथ हमेशा होता था। एक साझी संस्कृति का इससे अनोखा उदाहरण और क्या हो सकता है।

इसीलिए इस पुस्तक की भूमिका लिखते हुए इतिहासकार आदित्य मुखर्जी को इसे जन इतिहास और मौखिक इतिहास की पुस्तक बताते हैं। एक सांझी संस्कृति और साझी विरासत के लिए संघर्षरत लोगों के लिए यह बहुत उपयोगी पुस्तक है और इसे ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए।

पुस्तक का नाम:- परिवारनामा

लेखिका:- शैहला हाशमी ग्रेवाल

प्रकाशक:- गुलमोहर किताब

(स्वदेश कुमार सिन्हा एक लेखक और अनुवादक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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