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पाश : हिंदी में सबसे ज़्यादा मकबूल क्रांतिकारी पंजाबी कवि

अवतार सिंह संधू 'पाश' की 23 मार्च 1988 को हत्या कर दी गई थी। उस वक़्त वे 38 साल के थे।
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पंजाबी का कोई अन्य लेखक/साहित्यकार हिंदी पट्टी में इतना मकबूल नहीं है जितना पाश। बल्कि यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं कि पाश विशाल हिंदी समाज में गैरहिंदी भाषाओं के सर्वाधिक सर्वप्रिय कवि हैं। बेशुमार हिंदी साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं में पाश की काव्य पंक्तियों को कोट किया है और अनेक ने अपनी कृतियां उनकी याद को समर्पित की हैं। यहां तक कि कई हिंदी फिल्मों में भी पाश की कविताएं ली गईं हैं। एक मिसाल बहुचर्चित फिल्म 'आर्टिकल-15' है, जिसमें एक सहनायक (मुख्य नायक) पुलिस अधिकारी के आगे प्रतिरोध स्वरूप पाश का नाम लेते हुए उनकी पंक्तियां बतौर संवाद बोलता है।

हिंदी के प्रख्यात आलोचक (दिवंगत) डॉ नामवर सिंह और मैनेजर पांडे ने पाश की कविता पर सविस्तार लिखा है। नामवरजी ने उनकी तुलना लोर्का से की है और उन्हें 'शापित कवि' करार दिया। हिंदी के इस दिग्गज आलोचक का मानना था कि जब भी भारतीय जुझारू और प्रतिरोधी कविता की बात होगी तो पाश को सबसे आगे रखना अनिवार्य होगा। डॉ मैनेजर पांडे पाश को भारत के जनवादी तथा क्रांतिकारी कवियों में पहली कतार का सबसे बड़ा और अहम कवि मानते थे। अन्य कई वरिष्ठ हिंदी आलोचकों ने भी पाश को प्रगतिशील भारतीय कविता का बेहद जरूरी कवि करार दिया है।

पाश की तमाम कविताएं हिंदी में अनूदित हैं। ज्ञानरंजन के संपादन में निकलने वाली हिंदी पत्रिका 'पहल' सबसे ज्यादा प्रतिष्ठित मानी जाती रही है। (अब इसका प्रकाशन स्थगित है)। अस्सी के दशक में इस पत्रिका ने भारतीय कविता पर एक बेहद महत्वपूर्ण और बहुचर्चित अंक प्रकाशित किया था। इसमें नक्सली लहर से वाबस्ता पंजाबी कवियों को भी विशेष जगह दी गई थी। लाल सिंह दिल, अमरजीत चंदन, संतराम उदासी के साथ पाश को भी ज्ञानरंजन ने ऐहतराम के साथ छापा था। ज्ञानरंजन और 'पहल' के पुराने पाठक-प्रशंसक आज भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि पाश की कविताओं को सबसे ज्यादा सराहा गया। हिंदी समाज में तभी से पाश का एक बड़ा पाठक वर्ग तैयार हुआ। 'पहल' में प्रकाशित होना वैसे भी एक उपलब्धि माना जाता था। पाश को 'पहल' ने कई दोस्त हिंदी साहित्य जगत से दिए। इस पत्रिका ने पाश की हत्या के बाद उनपर एक विशेष खंड दिया था।

'पहल' के बाद उनकी कविताएं कई अन्य महत्वपूर्ण हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं में छपीं। उनके अनुवाद हिंदी के जरिए संभव हुए। मराठी, गुजराती, कन्नड़, तेलुगू, उर्दू, अंग्रेजी सहित तमाम भारतीय भाषाओं में पाश को खूब पढ़ा गया और पढ़ा जाता है। यह बाजरिया हिंदी संभव हुआ। 1988 में प्रभाष जोशी के प्रधान संपादकत्व में निकलने वाले अखबार 'जनसत्ता' का जबरदस्त जलवा और साख थी। मंगलेश डबराल इस अखबार के मैगजीन और साहित्य संपादक थे। पाश की हत्या से ऐन एक हफ्ता पहले निकले 'रविवारी जनसत्ता' में उनकी कविता 'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...' छपी थी। डॉक्टर चमन लाल ने इसका अनुवाद किया था। पाश की हत्या के तुरंत बाद मंगलेश डबराल ने श्रद्धांजलि लेख लिखा। इस लेख का शीर्षक था: 'क्रांति के लिए थी पाश की कविता।' कई अन्य हिंदी पत्र-पत्रिकाओं ने भी पाश पर विशेष टिप्पणियां लिखीं। उनकी कविताओं के अनुवाद प्रकाशित किए। इससे व्यापक हिंदी समाज पंजाबी के इस अप्रीतम हस्ताक्षर से नए सिरे से रूबरू हुआ और तब से पाश के पाठकों-प्रशंसकों का दायरा भी विस्तृत हुआ। बीबीसी हिंदी तक ने पाश पर विशेष प्रस्तुति दी। पाश की कविताओं को हिंदी समाज तक पहुंचाने में डॉक्टर चमन लाल और प्रोफेसर सुभाष परिहार का बहुत बड़ा योगदान है। अग्रणी प्रकाशन संस्थान राजकमल प्रकाशन ने पाश का कविता संग्रह 'बीच का रास्ता नहीं होता' (अनुवाद और संपादन डॉ चमन लाल) छापा। इसके कई संस्करण आ चुके हैं। पाश की समग्र कविताएं आधार प्रकाशन से भी आईं हैं। इसके भी एकाधिक संस्करण प्रकाशित हुए हैं।

खुद हिंदी साहित्य से गहरा नाता रखने वाले पाश के गहरे मित्रों में आलोक धन्वा, मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, वीरेन डंगवाल, लीलाधर जगूड़ी, गिरधर राठी, कुमार विकल, उदय प्रकाश, रविंद्र कालिया, स्वदेश दीपक, महेंद्र भल्ला, पंकज सिंह, नीलाभ, ललित कार्तिकेय, सतीश जमाली, मुद्राराक्षस, शैलेश मटियानी आदि शुमार रहे हैं। इन तमाम प्रख्यात हिंदी लेखकों ने कहीं न कहीं पाश पर जिक्रेखास टिप्पणियां उनकी हत्या के बाद कीं। राजेंद्र यादव और कमलेश्वर ने भी। कृष्णा सोबती ने भी अपने चंद वक्तव्यों में पाश का सम्मान जिक्र किया। हिंदी साहित्य के शिखर पुरुषों में शामिल विष्णु खरे के एक लेख में पाश की कविता और उनकी जीवन यात्रा का प्रसंग आता है। आम मान्यता है कि विष्णु खरे बेहद निर्मम आलोचक थे लेकिन पाश उन्हें खासे पसंद थे।

आलोक धन्वा हिंदी के बेमिसाल कवि हैं। पाश की कविताओं का हिंदी अनुवाद पढ़ने के बाद वह उनसे मिलने उनके गांव उग्गी (जालंधर) आए थे। सूबे में तब नक्सलवादी लहर जोरों पर थी। पाश खुफिया पुलिस की निगरानी में थे। आलोक धन्वा की पुलिसिया हिरासत होते-होते बची। उनके पंजाब से बिहार लौट जाने के बाद पाश की गिरफ्तारी हुई।

पाश की हत्या के बाद प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन-संस्कृति मंच की पूरे देश कि हिंदी पट्टी में फैली शाखाओं ने खास श्रद्धांजलि सभाएं आयोजित की थीं। शायद इसलिए भी कि वह हिंदी पट्टी के बेहद लाडले कवि थे! 'सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना...' लिखने वाला कवि किसे प्रिय नहीं होगा? विष्णु खरे के शब्दों में, 'दुनिया के किसी कवि के पास ऐसी कविता नहीं है!'

(लेखक पंजाब के स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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