Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

समकालीन दौर में पेरियार की प्रासंगिकता

पेरियार ईवी रामासामी सिर्फ एक तमिल नेता नहीं थे और उन्हें ब्राह्मण-विरोधी जाति की राजनीति के नेता नहीं माना जा सकता है। बल्कि, वर्ण-जाति व्यवस्था के हिंदू जाति-सामंतवाद के ख़िलाफ़ एक अग्रणी सेनानी के रूप में, पेरियार भी भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे।
Periyar

भारतीय लोकतंत्र के महान शिल्पकार

अम्बेडकर केवल दलितों के नेता नहीं थे। भारतीय लोकतंत्र के सबसे प्रमुख वास्तुकार के रूप में, विशेष रूप से संवैधानिकता और कानून के शासन के संदर्भ में, वह जाति, धर्म या राष्ट्रीयता से हटकर सभी भारतीयों के एक महान नेता थे। इसी तरह, पेरियार ईवी रामासामी सिर्फ एक तमिल नेता नहीं थे और उन्हें ब्राह्मण-विरोधी जाति की राजनीति के नेता नहीं माना जा सकता है। बल्कि, वर्ण-जाति व्यवस्था के हिंदू जाति-सामंतवाद के खिलाफ एक अग्रणी सेनानी के रूप में, पेरियार भी भारतीय लोकतंत्र के प्रमुख संस्थापकों में से एक थे। 24 दिसंबर 2021 को पेरियार की 48वीं पुण्यतिथि थी। इसलिए, आज पेरियार की क्रांतिकारी विरासत को याद करना उपयुक्त होगा। तब और भी, जब हिंदू- सवर्ण फासीवाद के काले भगवा बादल भारतीय लोकतंत्र पर मंडरा रहे हैं।

भारतीय लोकतंत्र को केवल चुनावी लोकतंत्र और मतदान के अधिकार तक सीमित नहीं किया जा सकता है। वह तब तक एक वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता जब तक विशाल जनसंख्या को वर्ण-जाति प्रणाली द्वारा उत्पीड़ित किया जाता रहेगा। यह एक वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता यदि हिंदू धर्म इस जातीय उत्पीड़न के पीछे अवलम्ब बनकर कार्य करना जारी रखेगा और उसे धार्मिक स्वीकृति प्रदान करेगा।अम्बेडकर की तरह, जाति व्यवस्था के खिलाफ पेरियार का धर्मयुद्ध भी स्वाभाविक रूप से हिंदू धर्म के प्रतिक्रियावादी पक्ष के लिए एक शक्तिशाली चुनौती बनने तक बढ़ा। यदि भारत में फासीवाद हिंदू बहुसंख्यकवाद और उच्च जाति के आधिपत्य पर आधारित है, तो भारतीय लोकतंत्र अम्बेडकर और पेरियार जैसे क्रांतिकारी सुधारवादियों की समृद्ध धर्मनिरपेक्ष और जाति-विरोधी विरासत से शक्ति ग्रहण करता  है।

सामाजिक सुधार संघटित रूप से औद्योगिक विकास से जुड़े हैं 

पेरियार आजादी-पूर्व इतिहास के अवशेष नहीं हैं। उनकी समकालीन प्रासंगिकता अपार है। यदि तमिलनाडु महाराष्ट्र और गुजरात के बाद भारत का तीसरा सबसे अधिक औद्योगिक और आर्थिक रूप से विकसित राज्य है, तो इस विकास की क्या व्याख्या की जाए? यदि संसाधन-विहीन तमिलनाडु में प्रति व्यक्ति एनएसडीपी (शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद)- 2020-21 में 3600 डॉलर था जो बिहार की तुलना में पांच गुना अधिक है ($681प्रति वर्ष ) और उत्तर प्रदेश की तुलना में लगभग चार गुना अधिक ($ 991 प्रति वर्ष) है, क्या यह सिर्फ आकस्मिक है? यदि कुल जीएसडीपी के संदर्भ में,  तमिलनाडु 20.92 लाख करोड़ रुपये के जीएसडीपी (सकल राज्य घरेलू उत्पाद) के साथ उत्तर प्रदेश की जीएसडीपी, 17.05 लाख करोड़ रुपये से आगे है, जबकि इसकी आबादी एक तिहाई से कम है; और यदि यह भारत में महाराष्ट्र के बाद दूसरे स्थान पर है, तो यह भी आकस्मिक नहीं है। यह पेरियार और द्रविड़ आंदोलन की सामाजिक सुधार की विरासत है, जिसने तमिलनाडु में व्यापक पूंजीवादी विकास, औद्योगीकरण और सामाजिक परिवर्तन की नींव रखी।

एक और ठोस उदाहरण लें तो, अगर हम यूपी के एक छोर से दूसरे छोर, नोएडा से बलिया तक यात्रा करते हैं, तो हम केवल खेती के हरे-भरे खेत देखेंगे,और शायद ही कोई बड़ाऔद्योगिक क्षेत्र दिखेगा। आरा से कटिहार जाने पर बिहार का भी यही हाल है। लेकिन अगर हम चेन्नई से कोयंबटूर तक 500 किलोमीटर की दूरी तय करते हैं, तो हमें अरक्कोनम, कटपाडी, सेलम, पल्लीपालयम, इरोड और तिरुपुर जैसे औद्योगिक क्लस्टर ही दिखाई देंगे। इसी तरह, अगर हम चेन्नई से बैंगलोर तक 350 किलोमीटर की यात्रा करते हैं, तो हम सभी औद्योगिक शहरों, जैसे श्रीपेरंपुदुर, पूनमाली, रानीपेट, वेल्लोर, अंबुर, वनियामबाड़ी और होसुर को पार करते हैं और हम बीच में खेती की गई हरियाली के केवल कुछ हिस्से देख सकते हैं।

लेकिन तमिलनाडु के बारे में अनोखी बात यह है कि चेन्नई और कोयंबटूर के अलावा, होसुर, करूर, इरोड, पल्लीपलायम, कुमारपालयम, नमक्कल, राजपलायम, शिवकाशी, विरुधुनगर, कड्डालोर, तिरुचि, तिरुनलवेली आदि जैसे कई औद्योगिक शहर हैं, जिनमें से प्रत्येक में हमें हजारों एमएसएमई उद्यमी और उद्योगपति मिल सकते हैं। जबकि पहली पीढ़ी के औद्योगिक अग्रणी ब्राह्मण या चेट्टियार समुदायों के प्रमुख कुलीन परिवारों से थे, तमिलनाडु में द्रविड़ आंदोलन के बाद का पूंजीवाद "सामूहिक पूंजीवाद" था, जिसमें नादर, नायडू या गौंडर जैसे निचले ओबीसी के हजारों औद्योगिक उद्यमी थे। पेरियार और द्रविड़ आंदोलन द्वारा हिंदू सवर्णों के सामंतवादी हमलों से लोगों को मुक्त कराने, उन्हें शिक्षा और औद्योगिक कौशल प्रदान करने और अत्यधिक कुशल श्रमिकों और पेशेवरों के साथ एक ऐसे आधुनिक श्रम बाजार का गठन करने में  महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसने पूंजी को आकर्षित किया और चेन्नई जैसे शहरों को भारत के डेट्रॉइट के रूप में ख्याति दिलाई। समाज के निचले तबके भी उद्योग और सेवाओं में उद्यमी और उच्च कौशल पेशेवर बन गए थे। इस परिघटना को पेरियार और द्रविड़ आंदोलन द्वारा लाए गए सामाजिक और राजनीतिक जागरण से अलग नहीं किया जा सकता।

उत्तर प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय केआंदोलनों ने भी सत्ता को उच्च जातियों से ओबीसी तक स्थानांतरित कर दिया। लेकिन निचली जातियों के नेतृत्व में समान आर्थिक परिवर्तन और प्रगति नहीं हुई, जैसे तमिलनाडु में हुई। आज, तमिलनाडु में दलित और ओबीसी समुदायों में से कई लोगों ने न केवल सरकारी सेवाओं, स्वास्थ्य सेवा और शिक्षा जैसे व्यवसायों में अग्रणी स्थान पाया है, निजी उद्योगों और सेवाओं में पहली पीढ़ी के इंजीनियरों और अन्य कुशल तकनीशियनों का एक बड़ा हिस्सा भी है, जिन्हें जाति पदानुक्रम में सामाजिक रूप से निम्न जातियों में से लिया गया है। 1970 और 1980 के दशक में ऐसा सामाजिक परिवर्तन 1940 के सामाजिक सुधारों के बिना संभव नहीं होता।

पेरियार की विरासत

1879 में जन्मे पेरियार तब प्रमुखता में आए जब उन्होंने 1924 में मद्रास प्रेसीडेंसी (अब केरल में) के वैक्कोम में निचली जातियों द्वारा मंदिर में प्रवेश के लिए एक आंदोलन का नेतृत्व किया। जाति-विरोधी सामाजिक सुधारों के लिए उनके धर्मयुद्ध ने उन्हें उत्पीड़ित जातियों के बीच बेहद लोकप्रिय बना दिया। राजनीति में, उन्होंने 1919 में एक कांग्रेसी नेता के रूप में शुरुआत की। लेकिन उन्होंने उन दिनों कुछ अकल्पनीय किया - उन्होंने कांग्रेस की बैठकों में उच्च जातियों और निचली जातियों के लिए अलग-अलग रात्रिभोज के मुद्दे पर महात्मा गांधी का सामना किया। गांधी टालमटोल कर रहे थे और वर्णाश्रम धर्म के साथ उनके समझौतावादी रवैये ने पेरियार को नाराज कर दिया। उन्होंने विरोध में 1925 में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। जस्टिस पार्टी, गैर-ब्राह्मण तमिल अभिजात्य वर्ग की पार्टी, जो कांग्रेस के रूप में ब्रिटिश शासन के ज्यादा विरोधी नहीं थी, ने पेरियार को शामिल किया और वह उस पार्टी के नेता बन गए। इस यथास्थितिवाद से असहज, उन्होंने द्रविड़ कड़गम का शुभारंभ किया, जिसने गैर-ब्राह्मण स्थानीय आबादी को द्रविड़ों की एक अलग जाति के रूप में पहचानकर और ब्राह्मणों को उत्तर से आए आर्य आक्रमणकारी बताकर द्रविड़ आंदोलन का नेतृत्व किया।

इस तरह के मूलभूत सिद्धांतों की वैज्ञानिक सत्यता पर सवाल के बावजूद, पेरियार द्वारा समर्थित जोरदार सामाजिक सुधारों ने उनके आंदोलन को एक बेहद लोकप्रिय जन आंदोलन बना दिया। उन्होंने अपने आंदोलन को 'आत्म सम्मान आंदोलन' कहा - निचली जातियों की गरिमा और आत्म-सम्मान के लिए आंदोलन। ऑनर किलिंग और जबरन विवाह की संस्कृति का विरोध करते हुए, उनके द्रविड़ आंदोलन ने हजारों अंतर्जातीय विवाह कराए। एक अत्यधिक पुरुष-राष्ट्रवादी तमिल समाज में, उन्होंने अपने युवा अनुयायियों को विधवाओं से शादी करने के लिए प्रेरित करके व्यक्तिगत रूप से सैकड़ों विधवा विवाहों की व्यवस्था की। उन्होंने खुली रैलियों में पत्नी को पीटने वालों को जानवर बताया। उनकी व्यक्तिगत पहल के तहत, तमिलनाडु में नास्तिकता का प्रसार एक व्यापक घटना बन गया। मुख्यधारा में बने रहने के लिए, उन्होंने खुद को सभी के लिए स्वीकार्य किसी उदारवादी स्थिति में नहीं रखा और बहुसंख्यक हिंदू रूढ़िवाद के साथ समझौता नहीं किया।

महान राजनीतिक कम्युनिकेटर

पेरियार ने अत्यधिक उत्तेजक नारों के साथ राजनीतिक संचार को बहुत प्रभावी बना दिया जैसे "वह जो ईश्वर में विश्वास रखता है वह मूर्ख है!" इस तरह के "चरम" इशारे तब समझ में आएंगे जब हम उन्हें मद्रास प्रेसीडेंसी के अत्यंत रूढ़िवादी सामाजिक और सांस्कृतिक परिवेश के संदर्भ में देखें। यही वह प्रांत था जहां ब्राह्मणों और अन्य गैर-ब्राह्मण उच्च जातियों ( पिल्लई और मुदलियार जैसे वेल्लालस) द्वारा व्यापक रूप से अस्पृश्यता का व्यवहार जारी था। वे  वो दिन थे जब तंजावुर में जमींदार दलित खेतिहर मजदूरों पर कोड़े बरसाते थे और उन्हें थोड़ी सी भी कृषि-प्रतिरोध की सजा में जबरन गाय के गोबर का सेवन करने के लिए देते थे।

यही वह दौर था जब नौकरशाही और अन्य मध्य वर्ग के संस्थानों जैसे एकाडीमिया में लगभग सभी पदों पर ब्राह्मणों और अन्य उच्च जातियों का वर्चस्व था, जिनके पास भारी सामाजिक शक्ति थी। वे दिन थे जब केरल में नंबूदरी ब्राह्मणों ने निचली जाति की महिलाओं को अपने स्तनों को ढंकने की अनुमति नहीं थी। पेरियार के "चरम" इशारे इस तरह के "चरम" सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में "सामान्य" के रूप में प्रचलित हुए, क्योंकि ये इशारे हिंदू ब्राह्मणवादी आधिपत्य के खिलाफ व्यापक जन-आधारित संघर्ष में शामिल थे, और इसलिए उन्होंने निचली जाति के बहुमत के बीच स्वीकार्यता और प्रचलन प्राप्त हुआ । .

पेरियार ने हिंदी थोपने के खिलाफ जन आंदोलन का समर्थन किया जिसके कारण 1967 में डीएमके सत्ता में आई और उन्होंने राष्ट्रीयता के अधिकार का समर्थन किया । 1940 में, उन्होंने एक सम्मेलन बुलाया था और यहां तक कि एक अलग द्रविड़ नाडु के लिए प्रस्ताव भी पारित किया। लेकिन बाद में DMK ने इसे वापस लेकर "राज्य स्वायत्तता" में परिवर्तित कर दिया ।

राजनीतिक सत्ता की जगह सामाजिक सुधारों को प्राथमिकता

लेकिन गांधी के समान, पेरियार ने भी प्रत्यक्ष चुनावी राजनीतिक सत्ता को त्याग दिया और इसलिए उन्हें अन्नादुरई द्वारा दरकिनार कर दिया गया, जो पेरियार के द्रविड़ कड़गम से अलग हो गए थे और उन्होंने 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) का शुभारंभ किया और 1967 में गैर-ब्राह्मण जातियों को राजनीतिक सत्ता में पहुंचाया ।  सच है, पेरियार में सोच के स्तर पर गांधी जैसा एक अराजकतावादी पहलू भी था, जिसमें महत्वपूर्ण अंतर था कि गांधी के अराजकतावाद ने वर्ण-जाति प्रणाली के साथ तालमेल बिठाया था पर पेरियार के रैडिकल अराजकतावाद ने इसके खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखा।

पेरियार के मूल्यांकन के बारे में पूछे जाने पर, तमिलनाडु के एक प्रमुख समकालीन विचारक, प्रो. ए.मार्क्स ने न्यूज़क्लिक को बताया: “कई लोग सोचते हैं कि पेरियार ईवीआर केवल तमिलनाडु के एक नास्तिक थे। यह पूरी तरह गलत है। यह उनका न्यूनतावादी दृष्टिकोण (reductionist view) है। सच है, वह नास्तिक थे । परन्तु उनके और भी कई आयाम थे। उन्होंने शुचिता, राष्ट्रवाद, नैतिकतावाद, जाति, धर्म और ईश्वर जैसे सभी पवित्र निर्माणों (constructs) का विरोध किया। उन्होंने इस बात की परवाह किए बिना कि हजारों लोग कैसी प्रतिक्रिया देंगे, इन सभी की जमकरआलोचना की। उन्होंने खुद को "नग्न विचारक" के रूप में वर्णित किया। उन्होंने बौद्ध धर्म और जैन धर्म जैसे अवैदिक धर्मों द्वारा निर्वाण की अवधारणा का प्रस्ताव रखा ताकि समाज द्वारा हमारे विचारों और विश्वासों पर थोपे गए बेतुकेपन को दूर किया जा सके।

"उन्होंने कोई जुनून स्वीकार नहीं किया और इस बात की वकालत की कि हमें देशभक्ति, भाषा और धर्म के लिए सनक को छोड़ देना चाहिए। उन्होंने बेनेडिक्ट एंडरसन, जिन्होंने राष्ट्र की व्याख्या एक कल्पित समुदाय के रूप में की थी, से सौ साल पहले भी राष्ट्र को एक 'निर्माण' (construct) के रूप में वर्णित किया और खुद को "राष्ट्र-विरोधी" भी बताया! यद्यपि वे जीवन भर तर्कवाद के समर्थक रहे थे, फिर भी उन्होंने से पुनः खण्डित करने में संकोच नहीं किया। वे कहते थे कि तर्कवाद, नैतिकता, त्याग, लोक कल्याण और जनहित आदि सभी ढोंग हैं। हम जानते हैं कि उन्होंने तमिल को "बर्बर भाषा" भी कहा था; पेरियार कोई साधारण व्यक्तित्व नहीं थे। वह एक दार्शनिक थे, लेकिन युद्ध के मैदान में एक योद्धा भी।”

हिंदी पट्टी में जारी बेलची, बाथे-लक्ष्मणपुर, हाथरस और सहारनपुर नरसंहार और सामाजिक न्याय की ताकतों के लिए एक अस्थायी झटके के बाद हिंदुत्व के तहत सवर्णों का एकीकरण उत्तर भारत में तत्काल एक पेरियार की आवश्यकता को रेखांकित करता है-  जिसकी विरासत दक्षिण में जीवित है।

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest